27.4 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

तय होती है सुधारों की जीत

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया aakar.patel@gmail.com वर्ष 2016 में केरल में हुए विधानसभा चुनावों के फलस्वरूप वहां वाम मोर्चे की सरकार बनी. कांग्रेसनीत मोर्चे की पराजय हुई और उसके सात प्रतिशत मत उसके पाले से खिसक गये. यही नहीं, वाम मोर्चे की विजय के बावजूद उसके मतों में भी दो प्रतिशत की गिरावट […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक,
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@gmail.com
वर्ष 2016 में केरल में हुए विधानसभा चुनावों के फलस्वरूप वहां वाम मोर्चे की सरकार बनी. कांग्रेसनीत मोर्चे की पराजय हुई और उसके सात प्रतिशत मत उसके पाले से खिसक गये. यही नहीं, वाम मोर्चे की विजय के बावजूद उसके मतों में भी दो प्रतिशत की गिरावट आ गयी.
दरअसल, मतों के ये हिस्से इन दो मोर्चों के समर्थन से खिसक कर जिस एक पार्टी के समर्थन में जा पड़े, वह भारतीय जनता पार्टी थी, मलयाली मतों में जिसकी पूर्ववर्ती 6 प्रतिशत की हिस्सेदारी बढ़ कर तब 15 प्रतिशत पर पहुंच गयी.
यों तो भारतीय जनता पार्टी के लिए यह एक ऊंची और उत्साहवर्धक बढ़ोतरी थी, पर पार्टी कई दशकों से पूरे देश में ऐसी ही उपलब्धि हासिल कर रही थी.
गुजरात में जन संघ (भाजपा का पिछला स्वरूप) द्वारा 1970 के दशक के मध्य तक केवल दो से तीन प्रतिशत मत हासिल किये जाने पर भी पार्टी नेतृत्व बगैर किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के संगठन खड़ा करने में लगा रहा. उसके बाद तो फिर इमरजेंसी एवं अयोध्या आंदोलन के रूप में जैसे ही उसे जन समर्थन का सुअवसर प्राप्त हुआ, उसने उसे लपक लिया.
कोई भी व्यक्ति भारतीय जनता पार्टी पर धार्मिक एवं विभाजनकारी मुद्दों का इस्तेमाल कर अपने राजनीतिक उद्देश्य पूरे करने का आरोप आसानी से लगा सकता है, लेकिन, उसे उसमें विफल होने का दोषी नहीं बता सकता. किंतु केरल में पार्टी द्वारा प्राप्त की गयी यह उपलब्धि अपने साथ हिंसक वारदातों की बाढ़ लेकर आयी. वहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (अारएसएस), भारतीय जनता पार्टी एवं वाम दलों के बहुत-से समर्थक मारे गये हैं, क्योंकि स्थानीय स्तर पर अपना-अपना दबदबा कायम करने के लिए छिड़े संघर्ष ने अत्यंत बुरा रूप हासिल कर लिया है.
राज्य विधानसभा के लिए वर्ष 2016 में संपन्न इन चुनावों में यद्यपि भारतीय जनता पार्टी ने केवल एक सीट पर विजय हासिल की, पर अगले चुनावों तक वह खुद के लिए इतना समर्थन हासिल कर चुकी होगी कि उनके नतीजे में यह पार्टी इस राज्य में एक प्रमुख राजनीतिक हस्ती के रूप में स्थापित हो जायेगी.
पार्टी द्वारा सबरीमला मुद्दे के आक्रामक इस्तेमाल ने इसे अगड़ी जातियों के अच्छे-खासे मत प्रतिशत का समर्थन आकृष्ट करने में सहायता पहुंचायी है. ये अगड़ी जातियां सुप्रीम कोर्ट द्वारा सबरीमाला मंदिर में सभी भारतीयों के अबाधित प्रवेश के हक में फैसला सुनाये जाने से खार खायी बैठी हैं.
यह दूसरी बात है कि इस सवाल पर अंतिम विजय महिलाओं तथा उन लोगों की ही होगी, जो पारंपरिक अधिकारों पर व्यक्तिगत अधिकारों का समर्थन किया करते हैं. उनकी इस जीत का दूरगामी प्रभाव यह होगा कि समाज और राजनीति में सुधारकों का असर बढ़ेगा. हालिया विवाद से पहले जब तक किसी भी महिला को वहां पूजा-अर्चना की अनुमति नहीं थी, एक भावनात्मक शक्ति ने इस मुद्दे को ज्वलंत बनाये रखा था. मगर जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा महिलाएं मंदिर में प्रविष्ट होकर दर्शन-पूजन करने लगेंगी, यह मुद्दा धीरे-धीरे धूमिल पड़ता चला जायेगा.
हम भारत में ऐसे ही एक अन्य मुद्दे पर इसी तरह के घटनाक्रम का अवलोकन कर चुके हैं, जब साल 1930 के दशक में दलितों के मंदिर प्रवेश के समर्थन पर दक्षिणपंथी हिंदू समूहों ने महात्मा गांधी का विरोध करते हुए उनके विरुद्ध धरने का भी आयोजन कर डाला था. तब अहमदाबाद में तो यहां तक हुआ कि मेरे खुद के समुदाय के पटेलों ने दलितों को मंदिरों से बाहर रखने के उद्देश्य से स्वयं को गैर हिंदू घोषित कर दिया, ताकि वे बंबई हरिजन मंदिर प्रवेश अधिनियम के स्वयं पर लागू न होने का दावा कर सकें. पर जैसा कि हम जानते हैं कि इस तरह की चीजें बहुत अधिक दिनों तक टिक नहीं सकती हैं.
आखिरकार, हम परंपरा-पोषण के नाम पर भेदभाव बरकरार नहीं रख सकते और एक अरसे में तो हमेशा ही सही चीजें मान्यता प्राप्त कर ही लेती हैं.
मंदिरों में दलितों के प्रवेश के विरुद्ध पटेलों ने भी अपना संघर्ष जारी रखते हुए जल्दी हार स्वीकार न की. पर अंततः वे सुप्रीम कोर्ट में यह केस हार ही गये. अपना फैसला सुनाते हुए माननीय न्यायाधीशों ने कहा कि ‘मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश का अधिकार उनके द्वारा सभी सामाजिक सुविधाएं तथा अधिकार पाने का प्रतीक है, क्योंकि सामाजिक न्याय उस लोकतांत्रिक जीवनशैली का मुख्य आधार है, जो भारतीय संविधान के प्रावधानों में निहित है.’ आज इस कथन में वर्णित विचार सामान्य वास्तविकता का बोध कराते जैसे लगते हैं और कोई भी इनसे छूट पाने की बात सोच भी नहीं सकता.
केरल में भी ऐसा ही कुछ घटित होगा, जब कुछ ही महीनों अथवा वर्षों के बाद महिलाओं का इस मंदिर में प्रवेश सामान्य-सी बात बन चुकी होगी.
जो लोग अभी एक परंपरा पर चोट पहुंचने से नाराज और क्षुब्ध हैं, एक अरसे के बाद वे अपना क्रोध भूल चुके होंगे. जो लोग कभी दलितों को मंदिर से बाहर रखना चाहते थे, वे अब कहीं खोजे से भी नहीं मिल सकते. दरअसल, आज वे कहीं गायब नहीं हो गये हैं. जो हुआ, वह यह कि अब उनके विचार बदल चुके हैं और हमारा समाज भी बदल चुका है.
वर्तमान में कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि व्यक्तिगत अधिकारों पर परंपरा को तरजीह देते हुए दलितों को मदिरों से बाहर रखा जाना चाहिए. इसी तरह, एक अवधि के बाद हमें इस बात पर हैरत होगी कि वर्ष 2019 में हम महिलाओं के मंदिर में प्रवेश जैसे बेकार के मुद्दे पर संघर्ष में लगे थे.
समाज के रूढ़िवादी तत्व सुधारों को हमेशा स्थगित रखना चाहते हैं, क्योंकि सुधार प्रकृति से ही परंपराओं पर चोट करते हैं. जब ये तत्व दलितों के मंदिर प्रवेश पर पराजित होते हैं, तब वे महिलाओं के मंदिर प्रवेश जैसे किसी दूसरे मुद्दे पर स्थानांतरित हो जाते हैं. और इसी तरह भविष्य में भी वे ऐसा ही कोई और मुद्दा उठाकर उस पर संघर्षरत होते हुए एक बार पुनः अपना विरोध प्रदर्शित करेंगे.
लेकिन, अंततः होगा यही कि जो कुछ अवश्यंभावी है, वे उसको स्वीकार कर लेंगे. इस अर्थ में परंपरा की ऐसी हार अल्पावधि में भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक फायदा पहुंचायेगी. मगर, कानून का पालन तथा अधिकारों का सम्मान करनेवाले समाज के रूप में यह हमारे लिए दीर्घावधि में फायदेमंद ही सिद्ध होगी.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें