अर्थव्यवस्था के अनुपात में रोजगार के अवसरों का नहीं बढ़ना लंबे समय से चिंता का विषय है. इस कारण आर्थिक वृद्धि को ‘जॉबलेस ग्रोथ’ की संज्ञा भी दी जाती है. लेकिन, कुछ सालों से अनेक आंतरिक और बाह्य कारकों के कारण देश में बेरोजगारी की समस्या गंभीर होती जा रही है.
आर्थिक परिदृश्य पर नजर रखनेवाली भरोसेमंद संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, दिसंबर में बेरोजगारी दर बीते 27 महीनों में सबसे ज्यादा रही, जब यह दर 7.38 फीसदी तक जा पहुंची. सितंबर, 2016 में यह दर 8.46 फीसदी थी. इस कारण 2018 में रोजगार में लगे लोगों की संख्या में 1.09 करोड़ की कमी दर्ज की गयी है.
बेरोजगारी बढ़ने के साथ श्रम भागीदारी दर का नीचे आना समस्या को बेहद जटिल बना देता है. यह दर श्रम शक्ति (15-64 साल की आयु के लोगों की कुल संख्या) में काम करने के इच्छुक लोगों तथा रोजगार में लगे या रोजगार पाने की कोशिश कर रहे लोगों की संख्या के अनुपात को इंगित करती है. दिसंबर, 2017 और दिसंबर, 2018 के बीच इसमें 1.10 फीसदी का अंतर है. इसका मतलब यह है कि घटते अवसरों की वजह से निराश लोग रोजगार की ओर उन्मुख नहीं हैं.
श्रम भागीदारी दर में कमी आम तौर पर अर्थव्यवस्था में संकुचन या मंदी का एक संकेत होती है. इस रिपोर्ट की एक अन्य अहम बात यह है कि 2018 में रोजगार में जो कमी आयी है, उसका 83 फीसदी से अधिक हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों से संबद्ध है. इस आंकड़े को कृषि संकट के साथ रखकर देखें, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि गांव-देहात की आर्थिकी बेहद खराब दशा में है. उल्लेखनीय है कि ग्रामीण क्षेत्रों में मांग हमारे उद्योगों के लिए बड़ा सहारा है, परंतु खेती की मुश्किलों और रोजगार की कमी से इस मांग पर नकारात्मक असर पड़ रहा है. एक निराशाजनक आंकड़ा यह भी है कि एक करोड़ से अधिक अवसरों की कमी की गाज सबसे अधिक महिलाओं पर गिरी है.
साल 2018 में 88 लाख महिलाओं ने काम का मौका खोया, जिनमें 65 लाख ग्रामीण क्षेत्रों में बसती हैं. कामकाजी लोगों की संख्या में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाये बिना आर्थिक और सामाजिक विकास को सुदृढ़ आधार दे पाना बहुत मुश्किल है. रोजगार पर चर्चा करते समय कुछ खास पहलुओं का ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए. हाल ही में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने बेरोजगारी को देश की सबसे बड़ी समस्या बताते हुए कहा है कि रोजगार और काम में अंतर होता है. नीति आयोग समेत अनेक संस्थाएं और अर्थशास्त्री अल्प रोजगार को भी समस्या का हिस्सा मानते हैं.
अनेक कामगार या तो अपनी क्षमता से कमतर काम कर रहे हैं या स्थायी या निश्चित अवधि के लिए नहीं हैं. अक्सर काम के एवज में मिलनेवाला वेतन-भत्ता कम होता है तथा उसके साथ बीमा, पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी सुविधाएं नहीं होती हैं. ऐसी स्थिति में सरकार और उद्योग जगत को दूरगामी प्रयासों पर विचार करना चाहिए.