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कर्ज से माफी नहीं, मुक्ति चाहिए
डॉ दर्शन पाल कृषि विशेषज्ञ एवं एक्टिविस्ट darshanpal1@gmail.com इसमें कोई संदेह नहीं कि किसानों की कर्जमाफी में सरकारें अपना फायदा जरूर देखती हैं और चुनावी जीत-हार के नजरिये से ही ऐसा करती भी हैं. लेकिन, यह जरूरी है कि किसानों के कर्जे माफ किये जाएं और साथ ही ऐसी नीतियां बनायी जाएं, ताकि किसान कर्ज […]
डॉ दर्शन पाल
कृषि विशेषज्ञ एवं एक्टिविस्ट
darshanpal1@gmail.com
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसानों की कर्जमाफी में सरकारें अपना फायदा जरूर देखती हैं और चुनावी जीत-हार के नजरिये से ही ऐसा करती भी हैं. लेकिन, यह जरूरी है कि किसानों के कर्जे माफ किये जाएं और साथ ही ऐसी नीतियां बनायी जाएं, ताकि किसान कर्ज के दलदल में फंसे ही नहीं.
बीते करीब ढाई दशक से ज्यादा समय से देश में किसानों की कर्जमाफी की राजनीति हमारी सरकारें कर रही हैं, लेकिन आज तक किसी सरकार ने एेसी नीति नहीं बनायी, जिससे किसान पर कर्ज का बोझ आने ही न पाये और वह आत्महत्या न करे. सरकारें चार-साढ़े चार साल तक किसानों के मुद्दों-मांगों पर ओछी राजनीति करती रहती हैं और जब चुनाव आते हैं, तो पार्टियां कर्जमाफी का वादा कर देती हैं. निश्चित रूप से यह राजनीति ठीक नहीं है और इससे कभी भी किसानों की आय बढ़नेवाली नहीं है.
इस वक्त देश का किसान कर्ज के आइसीयू में पड़ा हुआ एक ऐसा मरीज है, जिसे बाहर निकालना बहुत जरूरी है और यह काम कर्जमाफी से ही संभव है. अब रहा सवाल कर्जमाफी से सरकारों के राजस्व घाटे का, तो मैं समझता हूं कि नागरिकों की रक्षा की जिम्मेदारी सरकार को लेनी ही चाहिए.
किसान पर कर्जे क्यों हैं, इसके कई अलग-अलग कारण हैं. लेकिन, यह बात पक्की है कि कर्ज देनेवाली संस्थाएं एक तो किसानों के साथ कठोर होती हैं, दूसरे यह कि किसान को लागत की कीमत भी नहीं मिल पाती, क्योंकि कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़ या फिर कीड़े-मकोड़े लगने के साथ कभी-कभी प्राकृतिक आपदाओं के आने से उसकी फसल बर्बाद हो जाती है. ऐसे में वह और भी कर्जदार हो जाता है.
कभी बारिश ज्यादा हाे गयी, या कभी बहुत कम हुई, तो भी किसान की फसल पर असर पड़ता है. कुल मिलाकर इस एतबार से देखें, तो एक बार कर्ज माफ कर देनेभर से ही किसान की समस्या का अंत नहीं हो जाता है. इसके लिए एक समुचित और व्यावहारिक नीति बनाने की जरूरत है, ताकि फसल बर्बादी की हालत में किसान की बर्बादी न होने पाये.
मेरा मानना है कि किसानों को कर्ज देने की व्यवस्था में सिर्फ सरकारी संस्थाएं अग्रणी हों और उन्हें बेतहाशा सूद पर कर्ज देनेवाले साहूकारों से मुक्ति दिलायी जाये. पंजाब में 95 प्रतिशत किसान आत्महत्याएं स्थानीय स्तर पर साहूकारों द्वारा दिये कर्जे के कारण हुई हैं. इसे बंद करने की सख्त जरूरी है और यह तभी होगा, जब सरकारी व्यवस्था में कर्ज मिलना आसान हो.
यह भी कि सरकारी व्यवस्था में कर्ज पर ब्याज चार प्रतिशत से अधिक तो कतई न हो और किसी भी कीमत पर न हो. साथ ही बैंक से लोन मिलने में भी आसान व्यवस्था बनायी जाये. अगर साहूकारों के चंगुल से किसानों को नहीं बचाया गया, तो बड़ी से बड़ी कर्जमाफी का भी कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि सरकारें तो माफ कर देंगी, मगर किसान साहूकार के कर्ज के हाथों मारा जाता रहेगा.
इस समय जो बैंक से कर्ज मिल रहे हैं किसानों को, उस पर करीब सात प्रतिशत ब्याज है, जिसमें तीन प्रतिशत की सब्सिडी केंद्र सरकार देती है. ऐसे में बचा चार प्रतिशत, जो किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं कर रहा है, जितना कि साहूकारों का कर्ज करता है. यहां एक और बात समझनी होगी कि जो किसान छोटे-मझोले हैं, उनके लिए ब्याज दर 4 प्रतिशत से भी कम हो.
उदारीकरण के बाद जब बाजार उन्मुक्त हुआ, तो हर चीज बाजार तय करने लगा. इसका नुकसान यह हुआ कि तब से किसानों (गरीबों भी कह सकते हैं) के स्वास्थ्य पर खर्च कर पाना महंगा होता गया है. एक तरफ जहां बीमारियों का इलाज महंगा होता गया, वहीं शिक्षा के बाजारीकरण से उनके बच्चे उच्च शिक्षा से भी वंचित होते चले गये. और बाकी चीजों की महंगाई का हाल तो हम सबको पता है कि यह रुकने का नाम नहीं ले रही है.
ऐसे में किसानों पर दोगुनी-चौगुनी मार पड़ने लगी. इसलिए कर्ज में डूबे हुए किसान अपने फसलों की बर्बादी या लागत भी न मिल पाने के चलते या तो किसानी छोड़ने लगे या फिर आत्महत्याएं करने लगे. आज खेती में इस्तेमाल होनेवाली हर चीज तो महंगी हो गयी है. चाहे डीजल हो या बीज, रासायनिक खाद हो या पानी, सब कुछ तो उसकी पहुंच से बाहर है, तभी तो वह कर्ज लेता है. बैंक से कर्ज लेने में इतने लफड़े हैं कि वह मजबूरी में साहूकार से कर्ज ले लेता है.
एक तरफ वह अपनी फसल की मार से परेशान होता है, तो दूसरी तरफ उसके बच्चे को न तो अच्छा स्वास्थ्य मिलता है, न अच्छी शिक्षा. नौकरी करनेवाले या मध्यवर्ग के लोग जब पैसा रहते हुए भी इन चीजों के महंगे होने से हमेशा परेशान रहते हैं, ऐसे में किसान के लिए यह जीवन नर्क की तरह है, जहां उसके पास पाने को कुछ नहीं है, खोने के लिए सब कुछ है, ऊपर से कर्ज अलग से है.
हमारा तो इतना ही मानना है कि अगर सरकारें कर्जमाफी की राजनीति कर रही हैं, तो करें. लेकिन, जब तक फसलों में इस्तेमाल होनेवाली चीजों की कीमतें कम नहीं होंगी, और उत्पादन के बाद फसलों का समर्थन मूल्य उसकी पूरी लागत कीमत के साथ 50 प्रतिशत ज्यादा जोड़कर नहीं मिलेगा, तब तक किसान कर्ज लेते रहेंगे और आत्महत्या करते रहेंगे.
कहने का अर्थ यह है कि किसान को कर्ज से माफी नहीं, बल्कि मुक्ति की जरूरत है. इसके लिए सरकारें योजनाएं और नीतियां बनाएं और ईमानदारी से बनाएं, तो मैं समझता हूं कि यह संभव है कि किसान कर्जमुक्त हो जायेंगे.
लोग कह रहे हैं कि पूंजीपतियों के दिवालिया होने पर उनके लोन को सरकार राइट ऑफ कर देती है, लेकिन किसानों के थोड़े से कर्जे माफ करने में उसकी हिम्मत डोल जाती है. यह बात सही है. लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि दोनों अलग-अलग प्रकार के कर्जे हैं और दोनों की प्रक्रिया और ब्याज अलग-अलग हैं. इन दोनों की तुलना नहीं करनी चाहिए.
लेकिन, यह बात तो जरूरी कही जानी चाहिए कि एक तरफ पूंजीपति हजारों करोड़ रुपये लेकर विदेश भाग जा रहे हैं, और दूसरी तरफ महज कुछ हजार के कर्ज के चलते किसान आत्महत्या कर ले रहे हैं, तो क्या सरकार इतनी असंवेदनशील है कि उसे यह फर्क नजर नहीं आता?
देश के नागरिकों को आत्महत्या से बचाना सरकार की जिम्मेदारी है, क्योंकि वे इस देश के नागरिक ही नहीं, बल्कि अन्नदाता भी हैं. इसलिए सरकार को अपनी जिम्मेदारी तो निभानी ही चाहिए.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
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