।। वीरेंद्र यादव ।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
– यह चिंता की बात है कि संविधान निर्माता जिस राजनीतिक जनतंत्र को आर्थिक व सामाजिक जनतंत्र में बदलते और संवरते देखना चाहते थे, आज वह तेजी से धनिक तंत्र में बदलता जा रहा है. –
‘कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूं, वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता’
आज से ठीक पचास वर्ष पूर्व नेहरू युग के अंतिम दौर में जब कवि मुक्तिबोध ने अपनी लंबी कविता ‘अंधेरे में’ की ये पंक्तियां लिखी थीं, तब न आर्थिक उदारवाद की आड़ में पूंजी का खुला खेल था और न ही लोभ-लाभ की निर्लज्ज संस्कृति का आज सरीखा बोलबाला. इसके बावजूद यदि मुक्तिबोध भारतीय समाज की अधोगति को लक्षित कर सके थे, तो यह राजनीतिक तंत्र की उनकी वह गहरी समझ थी जो नैतिक चेतना के बिना संभव नहीं थी.
दरअसल वैश्वीकृत आर्थिक नीतियों ने ‘उदारवाद’ के आवरण में संपन्नता के उजाले और दारिद्रय के अंधेरे के बीच जो खाई इस दौरान पैदा की है, उससे सभी श्रेष्ठ जीवन मूल्य तिरोहित हो गये से लगते हैं.
सुखासीन समाज की धन-वैभव, भोग-विलास और अकूत लिप्सा की चाहत ने वैध-अवैध, नैतिक-अनैतिक और उचित-अनुचित के भेद को इस तरह मिटा दिया है कि मूल्यहीन सफलता और आनंद ही जीवन की उपलब्धि बन कर रह गये हैं. वरना होना तो यह चाहिए था कि कोलकाता में आइपीएल के अंतिम प्रदर्शन के दौरान ईडन गार्डन खाली होता और बाहर क्रिकेटप्रेमियों का समुदाय खेल के तिजारतियों के विरुद्ध प्रदर्शन करता दिखता.
क्रिकेट उन्मादियों की नैतिक उदासीनता का ही परिणाम है कि मीडिया के शोरशराबे के बावजूद उद्योगपतियों, राजनेताओं, स्टार खिलाड़ियों और सटोरियों के गंठजोड़ से अरबों-खरबों का धंधा फिलहाल बे-रोकटोक जारी है. जिस हठ और निर्लज्जता के साथ क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष श्रीनिवासन अपने निदरेष होने की ताल ठोंक रहे हैं, वह सचमुच बे-मिसाल है.
दो राय नहीं कि भारतीय जनतंत्र की यह परिणति चिंतनीय है. यह शहरी मध्यवर्ग की भ्रष्टाचार विरोधी उस मुहिम की सीमाओं को भी उजागर करता है, जिसमें ‘दूसरी आजादी’ की इबारत पढ़ी जा रही थी. यह हैरतअंगेज है कि जो मध्यवर्ग चार-पांच अंक की धनराशि खर्च कर दीवानगी की हद तक इस खेल का लुत्फ उठाता है, वह इसके अरबों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध न तो दिल्ली के जंतर-मंतर पर कोई प्रदर्शन करता है और न ही इंडिया गेट पर कोई मोमबत्ती जलाता है. याद आते हैं फिल्म-फैशन, विज्ञापन और कॉरपोरेट जगत के वे दमकते चेहरे, जो इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के चमकते सितारे थे. कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके लाभ-लोभ के रिश्ते भी इस ‘खेल’ से जुड़े हों!
यह संयोग ही है कि जब ‘शाइनिंग इंडिया’ क्रिकेट के खेल में बेसुध होकर भ्रष्टाचार के नये कीर्तिमान बना रहा है और कोयला तथा अन्य घोटालों की खबरें नेप्थ्य में हैं, उन्हीं दिनों भारत के ‘लाल गलियारे’ में जल-जंगल और जमीन छीनने और बचाने का रक्त-रंजित संग्राम जारी है. आश्चर्य की बात नहीं कि जिस दण्डकारन्य में अर्धसैनिक बलों द्वारा आदिवासी बच्चों, तरुणों और स्त्रियों की हत्याएं खबरों की सुर्खियों से बाहर होती हैं, वहीं नक्सलियों की प्रतिरोधी हिंसा जनतंत्र के लिए गंभीर खतरा बन जाती है!
विगत 27 मई को बस्तर की सुकमा घाटी में हुई हिंसा के गहरे निहितार्थ हैं. आदिवासी विरोधी अभियान सलवा जुडूम के सूत्रधार महेंद्र कर्मा की हत्या के जश्न और मातम का एक साथ होना जनतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है. महेंद्र कर्मा स्वयं आदिवासी मूल के थे, पर आदिवासियों के बड़े मुखिया परिवार से होने के कारण वे भूस्वामी भी थे. अपने वर्गीय हितों के ही कारण वे कांग्रेस की राजनीति के हिस्सेदार हुए और ‘सलवा जुडूम’ अभियान की कमान संभाल कर कांग्रेस, भाजपा और कॉरपोरेट घरानों के लाडले बने.
कहने की आवश्यकता नहीं कि सलवा जुडूम की आदिवासियों पर जुल्म-ज्यादतियों के चलते कर्मा की आदिवासियों से दूरी बनी. यह अकारण नहीं है कि आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्री किशोर चंद्र देव ने सलवा जुडूम को ‘पापयुक्त रणनीति’ बताते हुए महेंद्र कर्मा को इसका दोषी ठहराया.
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आदिवासी प्रतिरोध की संपूर्ण पृष्ठभूमि पर बात किये बिना जनतंत्र बनाम हिंसा का सरलीकृत विमर्श रचा जा रहा है. विनायक सेन और सीमा आजाद सरीखे जाने कितने ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को नक्सल समर्थक बता कर कथित देशद्रोह के अपराध में लंबे समय तक बंदी बनाया जा चुका है. महाराष्ट्र के पुणे में कबीर कला मंच के शीतल साठे सहित कई दलित संस्कृतिकर्मी आज भी जेल की सलाखों के पीछे हैं. यहां तक कि कई प्रदेशों में कबीरपंथियों को माओवादी बता कर सत्तातंत्र द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है.
ओड़िशा में पोस्को विरोधी मुहिम हो, कुदानकुलाम में परमाणु संयंत्र विरोधी आंदोलन, या देश के अन्य हिस्सों में स्वत:स्फूर्त प्रतिरोध, हर कहीं जनतांत्रिक प्रतिरोध का सत्ता की दमनात्मक कार्रवाईयों का निशाना बनना आम बात है. हालात यहां तक पहुंचे हैं कि उत्तर प्रदेश में कई निर्दोष मुसलिम युवकों को भी आतंकवादी होने के फर्जी मामलों में फंसा कर लंबे समय से जेल में रखा गया है. उनका मुकदमा लड़ने के कारण वकीलों तक को बार-बार हमले का निशाना बनाया जा रहा है.
अभी दो दिन पूर्व राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से मुक्त होते हुए सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय ने जो बयान दिया है, वह भी हमारे जनतंत्र पर एक गौरतलब टिप्पणी है. अरुणा राय का कहना कि जहां उनके पिछले कार्यकाल में बाजार के विकास के बनिस्बत सामाजिक मुद्दों को अधिक प्राथमिकता दी गयी, वहीं इस दौर में बाजार के विकास पर अधिक जोर है. यही कारण है कि जहां विगत वर्षों में वन अधिकार, घरेलू हिंसा और रोजगार गारंटी से जुड़े विधेयक संभव हो सके, वहीं इन दिनों भूमि अधिग्रहण एवं खाद्य सुरक्षा संबंधी विधेयक कानून बनने की बाट जोह रहे हैं.
सूचना के अधिकार संबंधी कानून के क्रियान्वयन पर गहरी निराशा जताते हुए उनका कहना है कि आज प्रश्न पूछने पर कड़े पहरे हैं. प्रश्न पूछनेवालों को प्रताड़ना से लेकर जान गंवाने तक, कड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है. अरुणा राय सरीखी प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता की इस पीड़ा के मूल में हाशिये के समाज की वह अनदेखी है जो वर्तमान राजनीतिक तंत्र की दिनोंदिन बढ़ती संवेदनहीनता का दुष्परिणाम है.
कहने की जरूरत नहीं कि नब्बे के दशक के बाद नयी आर्थिक नीतियों के चलते ज्यों-ज्यों राज्य ने पूंजी की ताकतों के सफरमैना की भूमिका अपनायी है, त्यों-त्यों प्रतिरोधी आंदोलनों पर जुल्म-ज्यादतियां भी बढ़ी हैं. यह वास्तव में चिंता की बात है कि हमारे संविधान निर्माता जिस राजनीतिक जनतंत्र को आर्थिक व सामाजिक जनतंत्र में बदलते और संवरते देखना चाहते थे, आज वह तेजी से धनिक तंत्र में बदलता जा रहा है. जनतंत्र को हिंसक ताकतों से जितना खतरा है, उससे कम खतरा हिंसक पूंजी से नहीं है. इसे समझे बिना न जनतंत्र को बचाया जा सकता है और न भारतीय संविधान की रक्षा हो सकती है.