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न्यूनतम मजदूरी का सवाल
मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com बढ़ती महंगाई को देखते हुए देश में क्या न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाया जाना चाहिए? यह सवाल इसलिए भी उठ खड़ा हुआ है, क्योंकि दिल्ली और ओड़िशा के सरकारों ने इसमें महत्वपूर्ण पहल करने का निर्णय लिया है? पूंजीवादी विकास के तीन आधार हैं और उनमें एक संतुलन बनाये […]
मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
बढ़ती महंगाई को देखते हुए देश में क्या न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाया जाना चाहिए? यह सवाल इसलिए भी उठ खड़ा हुआ है, क्योंकि दिल्ली और ओड़िशा के सरकारों ने इसमें महत्वपूर्ण पहल करने का निर्णय लिया है?
पूंजीवादी विकास के तीन आधार हैं और उनमें एक संतुलन बनाये रखने का काम राज्य के जिम्मे होता है. पहला आधार है पूंजी, जिसके मालिकों को इस बात के लिए प्रेरित करना कि उसका निवेश किया जाये, ताकि विकास हो सके. यह तभी संभव है, जब पंूजी मालिकों को इस बात का विश्वास हो कि निवेश से उन्हें यथेष्ट लाभ होगा. इसलिए उनसे लिये जानेवाले टैक्स पर हमेशा ही यह ध्यान रखा जाता है कि कहीं उनकी रुचि निवेश में खत्म न हो जाये.
दूसरा आधार है मजदूर, जिनके काम से वस्तुओं का मूल्य बढ़ता है और फायदे का एक ही हिस्सा उन्हें मिलता है, लेकिन बड़ा हिस्सा उनको मिलता है, जिनका अधिकार पूंजी पर होता है. तीसरा आधार है बाजार, जहां उत्पादित वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता है. पूंजीवादी समाज में राज्य का काम इन तीनों के बीच समन्वय बनाना है.
एक समय में आर्थिक संकट के कारण जब बाजार में खरीदारों की कमी हो गयी, तब लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना की गयी. कहा गया कि मजदूरों को पर्याप्त आमदनी होनी चाहिए और उनके स्वास्थ्य, शिक्षा आदि पर राज्य को खर्च करना चाहिए, ताकि उनके पास बाजार में खर्च करने के लिए पैसे हो सकें. इसके लिए मजदूरी भी बढ़ायी गयी और मुफ्त सुविधाएं भी दी गयीं.
लेकिन, जब पूंजीवाद का नया संकट शुरू हुआ, तो लोककल्याणकारी नीतियों को खत्म कर दिया गया. मजदूरों को दी जानेवाली सुविधाओं को बहुत ही कम कर दिया गया. मजदूरों की सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा की नीतियों को खत्म कर दिया गया. जितनी भी सुविधाएं उन्हें सस्ते में या मुफ्त में दी जाती थीं, सबको बाजार के हवाले कर दिया गया.
अब यदि जीवन असुरक्षित हो जाये, आर्थिक बदहाली हो जाये, तो फिर हम बाजार में जाकर केवल समान देख सकते हैं, लेकिन खरीद नहीं सकते. यदि बाजार में समान का बिकना बंद हो जाये, तो फिर पूंजीपतियों के लिए संकट हो जाता है और फिर मजदूरों के लिए भी संकट की शुरुआत हो जाती है. नवउदारवादी आर्थिक नीति के दौर में मजदूर संघों को खत्म कर दिया गया.
बढ़ती बेरोजगारी और बाजार की बदहाली ने अब यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या पूंजीवाद को बचाने के लिए लोककल्याणकारी नीतियों को फिर से लागू करना पड़ेगा? नवउदारवादी आर्थिक चिंतन कहता है कि इसकी जरूरत नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से पूंजीपति निवेश नहीं करेंगे और रोजगार कम होगा. इसके विपरीत, एक मत यह है कि हमारे पास इसके अलावा कोई उपाय नहीं है कि हम मजदूरी बढ़ाएं और शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाएं उन्हें मुफ्त में प्रदान करें.
शायद दूसरा पक्ष सही है. भारत के संविधान निर्माताओं ने यह कल्पना की थी कि कहीं इस्ट इंडिया कंपनी की तरह ही फिर कोई कंपनी उत्पादन और व्यापार पर एकाधिकार कर यहां की राजनीति को प्रभावित न करने लगे, इसलिए इसके विरोध में नीतिनिर्धारक तत्वों की रचना की गयी और समाजवाद को प्रस्तावना का हिस्सा बनाया गया.
बात बहुत साफ है. यदि देश की संपत्ति का ज्यादा हिस्सा कुछ ही लोगों के जिम्मे हो, तो इसका दुष्प्रभाव जनतांत्रिक राजनीति पर पड़ेगा ही. सता को अपने कब्जे में करने के नुस्खे अपनाये जायेंगे. इसलिए लोगों के बीच एक तरह का संपत्ति संतुलन होना चाहिए. इसका एक ही उपाय है कि पूंजीपतियों पर टैक्स बढ़ाया जाना चाहिए और न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाकर सामाजिक संतुलन करना चाहिए.
मजदूरी का संतुलन बनाने के लिए मापदंड क्या हो? एक मजदूर को आवश्यक सुविधाएं मिलें, ताकि वह सम्मानपूर्ण जीवन जी सके, विकास के फलों का उपभोग जरूरत के हिसाब से कर सके और मजदूरी के बाजार में अपने श्रम के पुनः सृजन में सक्षम हो सके.
यह तभी संभव है, जब उसे या तो इतना पैसा मिले, ताकि बाजार से सुविधाएं खरीद सके या फिर उन सुविधाओं के लिए पैसे खर्च ही नहीं करना पड़े. चूंकि पूंजीवाद उन सुविधाओं को खत्म करता जा रहा है, इसलिए मजदूरी बढ़ाने के अलावा उनके पास कोई और रास्ता ही नहीं है. बढ़ती महंगाई के साथ क्या न्यूनतम मजदूरी को भी संतुलित करना जरूरी नहीं है?
ऐसा लगता है कि अपने फायदे को बढ़ाने के लिए पूंजीवाद अब तकनीकी का सहारा लेकर मजदूरों को बेरोजगार करने की तैयारी में है. इससे आर्थिक लाभ तो बढ़ेगा ही, मजदूरों के हड़ताल से छुटकारा भी मिल जायेगा.
लेकिन इस सोच की सीमा है. जैसा मैंने कहा कि यदि लोगों के पास आमदनी नहीं होगी, तो बाजार विफल हो जायेगा और बाजार खत्म हो गया, तो पूंजीवाद हिल जायेगा. लेकिन इस कहानी में एक और पेंच है.
विकसित देशों में एक नया प्रपंच चल रहा है न्यूनतम आमदनी का. लोग अनुमान कर रहे हैं कि आनेवाले समय में बेरोजगारी बढ़ेगी और राज्य लोगों को काम तो नहीं दे पायेगा, लेकिन सबको एक न्यूनतम आमदनी सुनिश्चित की जायेगी. यह कैसे संभव होगा? यह तभी संभव है, जब विकसित देश एक बार फिर विकासशील देशों का दोहन करे. इसकी संभावना बढ़ रही है कि विकसित देश अपनी पूंजी को युद्ध सामग्री के उत्पादन में लगा दें, क्योंकि उसमें फायदा ज्यादा है.
विकासशील देश अपने लोककल्याणकारी नीतियों को खत्म कर इन सामग्रियों को खरीदने में ज्यादा पैसा खर्च करे. लेकिन, इसका प्रभाव यह होगा कि भारत जैसे देशों में बेरोजगारी और बढ़ेगी, मजदूरों की हालत खराब होगी, आंदोलन बढ़ेंगे. इन आंदोलनों को दबाने के लिए न केवल पुलिस और सैनिकों की सहायता ली जायेगी, बल्कि उनके बीच धर्म और अस्मिता को लेकर उन्माद भी बढ़ाया जायेगा.
ऐसे में कुछ राज्य सरकारों ने यदि लोककल्याणकारी नीतियों पर वापस जाने का सोचा है, तो यह बिल्कुल ही न्यायसंगत है. केंद्रीय सरकार को भी यदि देश को बचाना है, समाज में शांति रखनी है, तो सुविधाओं के बटवारों में संतुलन करने का प्रयास करना चाहिए. पूंजीपतियों के न चाहने पर भी सरकार को मजदूरी बढ़ाना चाहिए और उसके लिए जरूरत पड़े, तो टैक्स भी बढ़ाना चाहिए.
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