16वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव ने राजनीति के कई आयाम दिखाये. जहां नरेंद्र मोदी विकास पुरुष की छवि के साथ सत्ता पर काबिज हुए, वहीं ईमानदारी की प्रतिमूर्ति होने का दावा करनेवाले अरविंद केजरीवाल का भ्रम टूट गया. यह एक लघुकालिक लेकिन संघर्षपूर्ण सफर है दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का, जिन्होंने नौकरशाही को ठुकरा कर अन्ना हजारे से जुड़ कर समाजसेवा के क्षेत्र में कदम रखा और चर्चा में आये.
फिर खुद को संपूर्ण राष्ट्र से अलग कर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में केंद्रित किया और आम आदमी की विराचधाराओं को ध्यान में रखते हुए आम आदमी पार्टी का गठन किया. भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था के खिलाफ जम कर बोले. कई दिग्गजों को नाकों चने चबाने पर मजबूर भी किया. फिर दिल्ली की गद्दी के दौड़ में शामिल हुए. पूर्ण बहुमत न होने के बावजूद गद्दी के हकदार बन गये. यहां तक सब कुछ लगभग ठीक चल रहा था. कुछ वादे पूरे हुए और कुछ पूरे हो रहे थे. ऐसा लग रहा था कि दिल्ली को एक जिम्मेदार नेतृत्व मिला है और इसी वजह से पूरी देश की भावना जुड़ चुकी थी.
लेकिन अचानक से एक जिम्मेदार नेता ‘भगोड़े’ में तब्दील हो गया. जिस नेतृत्व क्षमता की सराहना की जा रही थी, वह व्यंग्य का विषय बन गया. और फिर ‘आप’ की सफलता का ग्राफ नीचे गिरने लगा. फिर लोकसभा चुनाव में सिर्फ पंजाब में चार सीट और कई जगहों पर अप्रत्याशित हार. ‘आप’ प्रमुख का विवादों में उलझना और फिर तिहाड़ की यात्रा. काफी कम समय में ‘आप’ ने उत्थान और पतन का रास्ता तय कर लिया. संभवत: अगले विधानसभा चुनाव तक दिल्ली भी हाथ से जा चुकी होगी क्योंकि आम आदमी के लिए बनी ‘आप’ अब आम पार्टियों से अलग नहीं है. आनंद राज, जमशेदपुर