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भाषाओं की चिंता

भारत विविधताओं का देश है, इसकी पुष्टि के लिए यही तथ्य पर्याप्त है कि हमारे यहां 19,569 भाषा-बोलियां मातृभाषा के रूप में बोली जाती हैं. सवा सौ करोड़ की आबादी में से 96.71 फीसदी लोग संविधान में अनुसूचित 22 भाषाओं को बोलते हैं. साल 2011 की जनगणना के अध्ययन पर आधारित ताजा रिपोर्ट में बताया […]

भारत विविधताओं का देश है, इसकी पुष्टि के लिए यही तथ्य पर्याप्त है कि हमारे यहां 19,569 भाषा-बोलियां मातृभाषा के रूप में बोली जाती हैं.
सवा सौ करोड़ की आबादी में से 96.71 फीसदी लोग संविधान में अनुसूचित 22 भाषाओं को बोलते हैं. साल 2011 की जनगणना के अध्ययन पर आधारित ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि लोगों द्वारा उल्लिखित 19,569 भाषाओं को श्रेणीबद्ध करने के बाद 1,369 को मातृभाषा के रूप में बोली जानेवाली भाषा और बोली के वर्ग में रखा गया गया है तथा 1,474 भाषाओं को अवर्गीकृत या अन्य के खाते में.
भाषाओं की अंतिम रूप से संख्या 121 रखी गयी है, जिनमें अनेक भाषाओं और बोलियों को समाहित कर दिया गया है. हालांकि कुल 270 मातृभाषाओं (10 हजार से अधिक भाषी) को चिह्नित किया है, जिनमें से 123 को अनुसूचित भाषाओं के साथ और 147 को गैर-अनुसूचित भाषाओं के साथ समूहबद्ध कर दिया गया है. हिंदी और उससे जुड़ी भाषाएं और बोलियां बोलनेवाले 43.63 फीसदी हैं. ये आंकड़े भाषा-संबंधी नीतियों की समीक्षा और संवर्धन की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण हैं ही, इनके आधार पर कुछ अन्य अहम रुझानों को भी चिह्नित किया जा सकता है.
भले ही दक्षिण भारत की भाषाओं का विस्तार हिंदी या बंगाली की तुलना में कम है, पर आबादी का जो पलायन या विस्थापन हो रहा है, वह यह इंगित कर रहा है कि देश का आर्थिक केंद्र अब दक्षिण भारत बनता जा रहा है. शहरी विकास और आर्थिक अवसर बेहतर होने के कारण पूर्वी, उत्तरी और पश्चिमी भारत से लोग दक्षिण भारत का रुख कर रहे हैं.
इस तथ्य के प्रकाश में भी हमें हिंदी, बंगाली और मराठी के विस्तार को देखना चाहिए. भाषाओं का यह विस्तार संतोषजनक तो है, पर इससे यह भी संकेत मिलता है कि यह स्वाभाविक विस्थापन या विकास का परिणाम न होकर मजबूरन और जबरिया पलायन के कारण हो रहा है. ऐसे में हमें आर्थिक विकास की क्षेत्रवार विषमता पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है.
सवाल भाषिक गणना और उसके अध्ययन के तौर-तरीकों पर भी है. प्रख्यात भाषाविद् जीएन देवी ने रेखांकित किया है कि भोजपुरी और राजस्थानी जैसी भाषाओं को सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विशिष्टता के बावजूद हिंदी के अंतर्गत वर्गीकृत कर दिया गया है. पोवारी और कुमायूंनी के साथ भी यही हुआ है. अंतरराष्ट्रीय मानकों और सांस्कृतिक चेतनाओं की परवाह करते हुए जनगणना के अध्ययन होने चाहिए, ताकि देश की भाषायी संरचना का सही स्वरूप परिलक्षित हो सके.
देश में 10 हजार से कम लोगों द्वारा बोली जानेवाली 40 से अधिक भाषाएं विलुप्त होने की श्रेणी में रखी गयी हैं. कुछ समय पूर्व यूनेस्को ने बताया था कि बीते 50 साल में भारत में 220 भाषाएं मर चुकी हैं और 197 पर समाप्त होने का खतरा है. केंद्र और राज्य सरकारों को डिजिटल तकनीक के इस्तेमाल से और साक्षरता बढ़ने का फायदा उठाकर भाषाओं को बचाने-बढ़ाने पर देना चाहिए.

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