लंबी चुनाव प्रक्रिया खत्म होने और अच्छे दिन के नारों के साथ नमो की ताजपोशी हो गयी है. चुनावी नारों का मीडिया में शोर खत्म हुआ और इधर गहराता बिजली संकट आनेवाले अच्छे दिनों का संकेत दे रहा है. ऊपर से सूर्य धरती पर आग उगल रहा है, जिससे पीने का पानी तेजी से सूखता जा रहा है. थोड़ी राहत की बात यह है कि समय-समय पर थोड़ी बारिश हो जा रही है.
देश में 54 प्रतिशत बिजली कोयले से, 26 प्रतिशत पनबिजली से, करीब 8-10 प्रतिशत सौर और पवन ऊर्जा से, 8 प्रतिशत गैस एवं 2 प्रतिशत परमाणु रिएक्टरों द्वारा उत्पादित होती है. अब स्थिति यह है कि अपने देश में अच्छे कोयले का भंडार नहीं है. बचे हुए कोयले को निकाला जाये तो बचे-खुचे जंगल भी खत्म हो जायेंगे, जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा. पवन और ऊर्जा में हमारी तकनीक उतनी समृद्ध नहीं हुई है, जितनी जरूरत है. जल के अभाव में और देश के कोने-कोने में जल बंटवारे के विवादों के कारण जल विद्युत परियोजनाएं खटाई
में पड़ती जा रही हैं. वहीं परमाणु ऊर्जा काफी
खर्चीली है.
ऐसे में, मौजूदा तथ्यों को देखते हुए देश में बिजली उत्पादन की आशा नगण्य है. अत: बिजली नहीं तो पानी नहीं और बिजली-पानी नहीं तो विकास नहीं और विकास नहीं तो नौकरी-उद्योग नहीं. ऐसे में विकास एक स्वप्न-परी की तरह सपनों में युवा पीढ़ी को दिखायी पड़ता है. जब नींद खुलेगी तो सच्चई के पथरीले रास्ते पर नंगे पांव रोजी-रोटी की तलाश में भटकना पड़ सकता है. यानी गहराते बिजली-पानी संकट के अंधकार में अच्छे दिन भटकते रहेंगे. हां, महंगी बिजली बेच कर कारपोरेट जगत अपने अच्छे दिनों पर ऐश करेगा और गरीब जनता का दिल जलेगा.
नित्यानंद सिंह, धनबाद