।। डॉ अश्विनी महाजन।।
(एसोसिएट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय)
नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार अभियान अधिकतर आर्थिक बदहाली और उससे निजात पाने के वादों पर केंद्रित रहा. मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में गिरावट, भारी बेरोजगारी, भुगतान संकट और उसके कारण रुपये की कमजोरी, गरीबी और भुखमरी इत्यादि मुद्दों के अलावा जनता को तुरंत प्रभावित करनेवाला मुद्दा महंगाई का है. पिछले तीन वर्षो में खाने-पीने की चीजों की कीमतें डेढ़ गुनी हो चुकी हैं. पिछली यूपीए सरकार महंगाई के समक्ष बेबस दिख रही थी. भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों को लगातार बढ़ाना व ऊंचे स्तर पर रखना, महंगाई के विरुद्ध एकमात्र हथियार दिखाई दे रहा था. हालांकि ऊंची ब्याज दरों के चलते ग्रोथ पर प्रतिकूल असर पड़ रहा था, उसके बावजूद भारी महंगाई के चलते आरबीआइ ब्याज दरों को घटाने का जोखिम नहीं लेना चाहता था. इससे लग रहा था कि महंगाई के आगे सरकार घुटने टेक चुकी है.
वर्ष 2008-09 के बाद खाने-पीने की चीजों की कीमतें डेढ़ गुनी बढ़ी, पर ईंधन और फैक्ट्री निर्मित सामानों की कीमतें उस अनुपात में कम बढ़ीं. कारण यह रहा कि एक ओर खाने-पीने की चीजों का उत्पादन मांग के अनुपात में कम बढ़ा, तो दूसरी ओर वितरण और आर्थिक प्रबंधन में अकुशलताओं से कीमतों में वृद्घि हुई. कृषि पदार्थो के सही रख-रखाव में कोताही भी कीमतों में वृद्घि का कारण बनी. एक ओर तो देश खाद्यान्नों की कमी से जूझ रहा था, दूसरी ओर सही रख-रखाव में कमी के चलते सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा था. भंडारण सुविधआ न होने और पैसे की तंगी के कारण किसान को अपनी फसल को तुरंत बेचना पड़ता है. योजना आयोग का कहना है कि देश में भंडार और कोल्ड स्टोरेज में करीब 7,685 करोड़ रुपये निवेश करने की जरूरत है. आश्चर्य भी और देश का दुर्भाग्य भी कि सरकार कृषि के प्रति इतनी उदासीन है कि कृषि आजादी के 66 साल के बाद भी भंडारण की समस्या से गुजर रही है. बड़ा आश्चर्य इस बात का कि सरकार अपनी कमियों को ढंकने के लिए खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के लिए यह तर्क देती है कि इससे भंडारण की कमी दूर की जा सकती है.
यह बात सर्वथा सिद्घ हो चुकी है कि देश में खाद्य पदार्थो की कीमतों को बढ़ाने में कमोडिटी एक्सचेंज में भारी तादाद में वायदा बाजार की एक बड़ी भूमिका है. कई बार सरकारी प्रतिनिधियों की ओर से यह कहा गया कि इससे किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य मिलता है. लेकिन, सच्चई यह है कि वायदा बाजार से किसानों को नहीं, बल्कि सटोरियों को ही फायदा मिलता है. कृषि के प्रति सरकार की बेरुखी इस बात से सिद्घ होती है कि केंद्रीय बजट में कृषि के लिए लगभग एक प्रतिशत ही आवंटित होता है. गौरतलब है कि बीते समय में बजट में कृषि का हिस्सा 20 से 25 प्रतिशत तक होता था. इसका असर यह हुआ कि खाद्यान्न उपलब्धता 1990-91 में 510 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से घट कर 2011-12 तक 427 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गयी. तर्क दिया जाता है कि जब भी अन्न की कमी हो, तो विदेशों से मंगा कर महंगाई पर काबू किया जा सकता है, परंतु पिछले कुछ वर्षो में वैश्विक स्तर पर खाद्यान्नों का उत्पादन प्रभावित हुआ है. इससे लोगों के लिए खाद्यान्नों की उपलब्धता वैश्विक स्तर पर प्रभावित होने लगी है.
अर्थशास्त्र के सिद्घांतों के अनुसार जब सरकार अपनी आमदनी से ज्यादा खर्च करती है, तो उसे घाटे का बजट बनाना पड़ता है. ऐसे में जब यह घाटा अतिरिक्त उधार लेकर भी पूरा नहीं होता, तो उसे रिजर्व बैंक से उधार लेना पड़ता है. रिजर्व बैंक इस मांग को अतिरिक्त नोट छाप कर पूरा करता है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार 2009-10 में जनता के पास कैरेंसी की कुल मात्र 7,67,500 करोड़ रुपये थी, जो 2013-14 में यह 12,48,300 करोड़ रुपये हो चुकी थी. यानी चार वर्षो में जनता के पास कैरेंसी की कुल मात्र में लगभग 63 प्रतिशत वृद्घि हो चुकी थी, जिसका सीधा असर महंगाई पर पड़ा. सरकार की कोशिश यह रही है कि महंगाई और बेरोजगारी को रोक पाने में असफलता को सब्सिडी देकर या मनरेगा जैसी स्कीमों पर खर्च करके ढंका जाये, चाहे उसके लिए राजकोषीय घाटा बढ़ाना पड़े. बढ़ते घाटे के कारण मुद्रा की पूर्ति में भारी वृद्घि हो रही है, जो मुद्रास्फीति का कारण बन रही है.
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि महंगाई को रोक पाना सरकार के लिए निकट भविष्य में संभव नहीं है. लेकिन, सरकार को सोचना होगा कि यदि आमजन के लिए दीर्घकाल में वस्तुओं की कीमतों को नीचे रखना है, तो उसके लिए उसे कृषि की अनदेखी समाप्त कर कृषि विकास के लिए ठोस उपाय करने होंगे. साथ ही साथ कमोडिटी एक्सचेंज पर लगाम लगानी होगी. सबसे जरूरी बात यह है कि सरकार को अपनी फिजूलखर्ची को कम करते हुए बजट घाटे को कम करना होगा, ताकि उसे अपना खर्च पूरा करने के लिए अतिरिक्त नोट न छापने पड़ें.