।। शैबाल गुप्ता।।
(अर्थशास्त्री और ‘आद्री’ के सदस्य-सचिव)
नीतीश कुमार का बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटना दुर्भाग्यपूर्ण है. हमलोग आशा करते हैं कि यह एक अस्थायी घटना है. नीतीश कुमार का बिहार में जो सबसे बड़ा योगदान रहा, वह है शासन तंत्र को स्थापित करना. एक बहुत बड़ा मिथ था कि बिहार एक सबसे सुशासित राज्य था आजादी के बाद. लोग बराबर इसके बारे में ‘एपल्वी रिपोर्ट’ का उदाहरण देते रहे हैं. दरअसल, एपल्वी साहब की दो रिपोर्टे थीं हिंदुस्तान के बारे में. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन दिनों अमेरिका में लोक प्रशासन के सबसे बड़े विद्वान एपल्वी से दो रिपोर्ट देने का अनुरोध किया था. पहला भारत के प्रशासन के बारे में और दूसरा केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रलयों के कामकाज के बारे में. दोनों ही रिपोर्ट में बिहार का कहीं कोई जिक्र नहीं था.
सही मायने में देखा जाये तो मुगल साम्राज्य के बाद जब ब्रितानी हुकूमत आयी, बिहार की शासन प्रणाली खराब होनी शुरू हो गयी. बिहार में ब्रितानी हुकूमत ने तीन तरह का लैंड सेटलमेंट स्थापित किया. पहला- स्थायी सेटलमेंट, दूसरा- रैयतवाड़ी सेटलमेंट और तीसरा महालवारी सेटलमेंट. इन तीनों में सबसे अनुपयोगी स्थायी बंदोबस्त प्रणाली थी, जिसे बिहार और बंगाल प्रेसिडेंसी में लागू किया गया. इस सेटलमेंट के चलते न केवल बिहार में करों की उगाही कम होती गयी, बल्कि सार्वजनिक पूंजी निवेश भी कम होता गया. सरकारी महकमा शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी आधारभूत चीजों में इसका सीधा असर दिखा.
आजादी के बाद भी बिहार की उपेक्षा जारी रही. किसी भी आकलन से, चाहे योजना हो या गैर योजना या फिर केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की ओर से जारी धनराशि, बिहार को सबसे कम हिस्सा मिला. यूनाइटेड बिहार में पूरे देश का करीब 40 प्रतिशत खनिज संपदा उपलब्ध रहने के बावजूद बिहार का विकास अवरुद्ध हो गया, क्योंकि फ्रेट इक्यूलाइजेशन (भाड़ा समानीकरण) बिहार में लागू हुआ. फ्रेट इक्यूलाइजेशन के पहले बिहार में टाटा घराने का आगमन हो चुका था. और भी कई ऐसे औद्योगिक घराने थे, जिसकी शुरुआत ब्रिटिश काल में हुई थी. मगर भाड़ा समानीकरण की नीति के लागू होने के बाद बिहार में विकास की संभावनाएं व्यावहारिक तौर पर ठप हो गयी. यह इतिहास का कौतूहल का विषय है कि भाड़ा समानीकरण पर बिहार की तत्कालीन सरकार ने कोई नाराजगी जाहिर की या नहीं, यह किसी को पता नहीं. आजादी के पहले और आजादी के बाद बिहार का शासनतंत्र सबसे लचर रहा. शासन प्रणाली लचर रहने के चलते जो भी शासनतंत्र के प्यादे थे, उनके डेवलपमेंट की कोई इंस्टीट्यूूशनल मेमोरी (संस्थागत स्मृति) ऊपर से नीचे तक का नहीं रही.
इस परिप्रेक्ष्य में जब नीतीश कुमार ने बिहार की कमान संभाली, तो उन्होंने शासनतंत्र का एक नया प्रशासनिक अध्याय शुरू किया. इसका सिलसिला चारो ओर दिखाई पड़ने लगा. बिहार में कानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं थी. इसको उन्होंने इसे री-स्टोर (पुनस्र्थापित) किया. पिछले आठ साल में एक लाख 12 हजार आरोपितों को सजा मिली. पहले अपराधी छुट्टा घूमते थे. उनकी समानांतर सरकार चलती थी. नीतीश कुमार की सरकार के आने से बिहार में कानून के जरिये शासन तंत्र की साख स्थापित हुई. इसके बाद उन्होंने हिंदुस्तान में सबसे प्रथम पब्लिक इन्वेस्टमेंट सेंट्रिक डेवलपमेंट स्ट्रैटिजी (सार्वजनिक निवेश योजना) बनायी. इस क्रम में सैकड़ों मील सड़कें बनीं. हजारों की संख्या में पुल बने. सबसे अनहोनी बात तो बिजली के क्षेत्र में बड़ा बदलाव दिखाई पड़ा. हालांकि अब तक बिजली के क्षेत्र में बहुत कुछ काम बाकी है, लेकिन जिन जगहों पर ट्रांसमिशन की व्यवस्था हुई वहां 22-22 घंटे बिजली उपलब्ध होने लगी. आजादी के 67 साल तक राज्य में जितने स्कूल बने, उससे दोगुना स्कूल अगले तीन साल में राज्य में नजर आयेंगे. 2005 तक राज्यभर में करीब तीन हजार मुसलमान बच्चे मैट्रिक में प्रथम श्रेणी से पास होते थे. वर्तमान में 30 हजार मुसलिम बच्चे मैट्रिक प्रथम श्रेणी से पास हो रहे हैं और उन्हें 10 हजार रुपये की छात्रवृत्ति मिल रही है. 2004 में सरकारी स्कूलों में जितनी लड़कियां नौवीं कक्षा में पढ़ती थीं, उससे सात गुना अधिक छात्रओं की नौवीं कक्षा में उपस्थिति है. बिहार में शायद ही ऐसा कोई परिवार होगा, जिसे आठ साल की उपलब्धि में कहीं-न-कहीं खुशी अनुभव नहीं हुई हो. पोलियो उन्मूलन में भी बिहार आगे रहा. 2004 में जहां सरकारी दफ्तरों में टाइपराइटर से काम चलता था, केंद्र सरकार ने 2011-12 में आइटी सेक्टर में बेहतर काम करने के अवार्ड दिये. स्वास्थ्य केंद्रों पर जहां मुट्ठी भर लोग इलाज कराने पहुंचते थे, अब इनकी संख्या आठ हजार तक पहुंच गयी है.
भाड़ा समानीकरण से बिहार को हुई हानि को पाटने की कोशिश करते हुए नीतीश कुमार ने विशेष राज्य के दरजे की मांग की. यह मांग न सिर्फ बिहार के लिए थी, बल्कि हिंदुस्तान के सारे पिछड़े राज्यों के लिए थी. उनकी पहल पर ही केंद्र सरकार ने राज्यों के मानव विकास सूचकांक बनाने के लिए रघुराम राजन कमेटी का गठन किया. हिंदुस्तान के अंडर डेवलप्ड स्टेट के लिए नीतीश कुमार का यह बहुत बड़ा योगदान है. कौन राज्य विकसित है, कौन विकासशील है- इसका सटीक आकलन इस कमेटी से ही हो सका.
इस मायने में 2014 के लोकसभा चुनाव का परिणाम अभूतपूर्व दिखता है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए के पक्ष में जबरदस्त लहर रही. देश में चले जनमत आधारित चुनावी अभियान ने कई सामाजिक और क्षेत्रीय एजेंडे को हाशिये पर डाल दिया, जो भारतीय संस्कृति की पहचान रही. राष्ट्रीय मुद्दों के प्रभावी होने के कारण पिछले एक दशक में बिहार की बेहतर होती छवि उपेक्षा का शिकार हो गयी. मोदी के पक्ष में निर्णायक मत से केंद्र इतना सशक्त हो जायेगा कि क्षेत्रीय अधिकार प्रभावित होंगे. यह कॉरपोरेट जगत को सामने से अर्थव्यवस्था चलाने की इजाजत देगा.
लोकसभा चुनाव में जदयू को घोर पराजय का सामना करना पड़ा. पार्टी की हार की नैतिक जिम्मेवारी लेते हुए नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. नरेंद्र मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित किये जाने के बाद सांप्रदायिक आधार पर तेजी से ध्रुवीकरण हुआ. इस संदर्भ में नीतीश कुमार ने त्यागपत्र देने के तुरंत बाद आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में भाजपा से संबंध तोड़ने को उचित बताया. प्रलयंकारी चुनावी नतीजे पर उन्होंने कहा कि ऐसा बड़े पैमाने पर हुए ध्रुवीकरण के कारण हुआ. साथ ही नीतीश कुमार ने यह भी साफ किया कि एनडीए से अलग होने का निर्णय किसी रणनीति के तहत नहीं, बल्कि सैद्धांतिक आधार पर लिया गया था. चीजें जिस प्रकार से उभर कर सामने आयीं, उससे उनकी भविष्यवाणी सही साबित हुई.
अब नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री पद त्यागना हवा के मौजूदा रुख के विपरीत चलने जैसा है. यह राजनीति और गवर्नेस में नैतिकता की पुनर्बहाली की तरह है, जो आज के दौर में फिलहाल अस्तित्व में नहीं दिखता. जब नीतीश कुमार ने वर्ष 2005 में मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण किया, तो उन्होंने गंठबंधन को नयी ऊंचाई दी. गवर्नेस के लिए सभी जाति-वर्ग का समर्थन सुनिश्चित किया. बिहार में एनडीए के टूटने के साथ ही यह गंठबंधन भी टूट गया. इसके बाद नीतीश ने नये गंठबंधन बनाकर गैर शक्तिशाली सामाजिक वर्ग को शक्ल दी. लेकिन यह सफल नहीं हो सका. दूसरी ओर एनडीए ने रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा को अपने खेमे में ला खड़ा किया. अब अगर बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के बीच गंठबंधन होता है, तो एक नया गंठजोड़ पिछड़ों में अगड़ा और गैर शक्तिशाली सामाजिक वर्ग उभरेगा. यह चुनावी तौर पर दहला देनेवाला साबित हो सकता है. नीतीश कुमार का इस्तीफा राज्य में उत्प्रेरक का काम करेगा. ऐसा लगता है कि सभी राजनीतिक समूह सामाजिक न्याय के एजेंडे को आगे बढ़ाएंगे, जिसका तानाबाना पूर्व में बिखर गया था, फिर से एक होंगे. लालू प्रसाद जदयू को समर्थन देने के लिए तैयार हैं. यह बिहार के राजनीतिक और सामाजिक समीकरण को पूरी तरह से बदल देगा. इस बदलाव का असर हिंदी पट्टी में भी दिखेगा. चुनावी राजनीति का एक नया अध्याय लिखा जा सकेगा.