।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
चुनाव का महाभारत अपने आखिरी चरण में है. चारों ओर एक ही मुद्दा, एक ही बहस. कौन अच्छा है, कौन बुरा? एक बारात में गया, तो वहां भी दो ध्रुव कायम थे. एक ने परिहास में पूछा कि आप ‘समुद्र में डूबना’ पसंद करेंगे या ‘पाकिस्तान जाना’? मुङो एक घटना याद आयी. गांव में किसी के घर मेहमान आया. भोजन के समय उससे पूछा गया कि ‘आप दूध लेंगे या दही?’ उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया-‘आपके घर में दो कटोरे नहीं हैं क्या?’ सो, यदि मैं समुद्र में डूब कर पाकिस्तान जाना चाहूं, तो क्या किसी को आपत्ति है? काश, ऐसा होता कि मुंबई में समुद्र में डुबकी लगाता और कराची में उपराता! क्या ऐसा खुलापन कभी आ सकेगा, जैसे संयुक्त अरब अमीरात में है?
यहां छोटे से छोटे समुदाय की बात करनेवाले मिलेंगे, मगर ‘अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम्’ के स्वर में रंभानेवाली कामधेनु भाषा और उसके कमासुत पुत्र साहित्य का संरक्षण कोई चुनावी मुद्दा नहीं होता. भारतीय भाषाओं को राजभाषा का सम्मानित स्थान मिले, यह प्रश्न कोई भी राजनीतिक दल नहीं उठाना चाहता. इसकी कोई चर्चा भी नहीं करना चाहता. देश के दो प्रमुख दलों में एक ने अपनी सारी गांधीवादी परंपराओं को तोड़ते हुए (बल्कि फाड़ कर फेंकते हुए!) अपना घोषणापत्र केवल अंगरेजी में निकाला. दूसरे दल ने हिंदी में घोषणापत्र जरूर जारी किया, मगर भाषा और साहित्य के विकास के मुद्दे पर वह भी चुप है.
सभी राज्यों का नक्शा देख लीजिए. वहां की भाषा की चौहद्दी धीरे-धीरे सिकुड़ रही है. केंद्र से लेकर राज्य सरकारों के कार्यालयों तक राजभाषा का प्रयोग न के बराबर है. हिंदीभाषी राज्यों में भी भाषा की संस्थाएं धीरे-धीरे काल-कवलित होती जा रही हैं. काशी की नागरी प्रचारिणी सभा हो, या प्रयाग का हिंदी साहित्य सम्मेलन या पटना की बिहार राष्ट्रभाषा परिषद. वहां के बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन तो अब साहित्यिक कार्यक्रमों के बजाय वैवाहिक समारोह स्थल के रूप में जाना जाता है. देवघर विद्यापीठ को छोड़ कर हिंदी की कोई संस्था ठीक से नहीं चल रही है. यह हाल तब है, जब राज्य का प्रशासन भूमिपुत्र चलाते हैं. समारोहों में वे हिंदी की ऐसी पक्षधरता का दिखावा करेंगे कि लगेगा, इनसे बढ़ कर ‘निज भाषा की उन्नति’ की बात कौन सोचेगा?
जहां तक साहित्यकारों की बात है, तो यह ऐसा वर्ग है, जो स्वर्ग का निर्माण करता है, लेकिन उसके बाद उसे ही निर्वासित कर दिया जाता है. चाणक्य कहते हैं कि राजनीति में भाग न लेने का सबसे बड़ा दंड यह है कि अयोग्य व्यक्ति आप पर शासन करते हैं. इस विसंगति का आक्रोश सबसे ज्यादा एक संवेदनशील रचनाकार ही ङोलता है. नयी कविता के अग्रणी कवि केदारनाथ अग्रवाल इस स्थिति से चिढ़ कर कहते हैं:
हम तो उनका वोट न देबै, जो हमका बधियाइन है।
रोटी कपरा लत्ता खातिर, जो हमका तरसाइन है।।
इसमें ‘बधियाइन’ शब्द पर जरा गौर कीजिए. इसका एक सीधा अर्थ तो ‘वध करना’ हुआ, मगर लोकभाषा में इसका एक और अर्थ है- बधिया करना. बछड़े को बधिया करके बैल बनाया जाता है. बैल यानी ‘बछिया के ताऊ’ यानी दीन-हीन साहित्यकार. इस लोकतंत्र ने कितना अशक्त कर दिया है, चेतना-पुरुष कलमकारों को! वह समाज के लिए नयी-नयी दिशाओं का अन्वेषक या अ™ोय जी के शब्दों में ‘नयी राहों का अन्वेषी’ है. आप खिलाड़ियों की चिंता कर सकते हैं, मगर साहित्यकारों के लिए कुछ भी नहीं, जैसे ये पराये देश से आये अनावश्यक नागरिक हैं! रेलयात्र में भी दो दर्जन प्रकार के लोगों को रियायतें दी गयी हैं, खिलाड़ियों, संगीतकारों और नाटक कलाकारों को पूरी छूट है, मगर साहित्यकारों के लिए किसी प्रकार की रियायत नहीं. क्योंकि राजनेता उस व्यक्ति से परहेज करते हैं, जो नये विचारों को जन्म देता है. जब स्पष्ट नीति न हो, तो धुंध का लाभ चाटुकार लोग उठाते ही हैं. सो, रेलमंत्री की कृपादृष्टि का लाभ दिल्ली के कलाकार कवि उठाते रहे हैं. सरकार किसी की बने, दरबार में वही दिखेंगे. उनके लिए कविता सिर्फ मनोरंजन है. नेहरू-इंदिरा के जमाने में यह बात नहीं रही हो, मगर आज के राजनेता की समझ और साहित्यिक संस्कार यहीं तक हैं. अभी तो लोकतंत्र के राज दरबारों की यही संस्कृति है, जिसमें कलमकारों पर व्यंग्य करते हुए उसके पड़ोसी पूछते हैं:-
क्या है तेरे पास, कलम की क्या है यहां वजूद।
काला अक्षर देख, सभी हैं लेते आंखें मूंद।।
इससे अच्छा तबला, घुंघरू, खेलों का मैदान।
जिनके आगें दांत निपोरें, पद्मश्री श्रीमान।।
वह दृश्य बहुत पीड़ादायक होता है, जब एक ही ट्रेन में एक ही कार्यक्रम के लिए निकृष्ट कवि उच्च श्रेणी में मुफ्त पास पर चलते हैं और श्रेष्ठ कवि निम्न श्रेणी में टिकट कटा कर जाते हैं. देख कर ग्लानि तो बहुत होती है, मगर जिस महाभारत का धृतराष्ट्र अंधा और बहरा दोनों हो, उसमें यही होना स्वाभाविक है. देश के लिए जो जितना जरूरी है, वह उतना ही उपेक्षित है. नदियों और जंगलों से लेकर किसानों और कलमकारों तक यह लंबा सिलसिला है. किसान देश के अन्नदाता हैं, मगर वे ही सबसे ज्यादा आत्महत्या करते हैं:
बदतर हुआ शहर से, अपना गांव अन्नदाता/
असह भार कर्जे का ऐसा, ङोल नहीं पाता//
आत्मदाह करते किसान अब, खबर नहीं बनते/
नंगा नाच लड़कियों का/ हर चैनल दिखलाता।।
किसानी की तरह ही साहित्य भी आज देश की न्यूनतम प्राथमिकताओं में है. अपेक्षा की जाती है कि यदि रचनाकार स्वयं सत्ता में आ जाये, तो साहित्य केंद्रीय भूमिका में आ सकता है. मगर नेहरू के बाद ऐसा कभी नहीं हो पाया. वीपी सिंह कवि भी थे, चित्रकार भी, मगर प्रधानमंत्री बनते ही युवा प्रतिभाओं को मंडल की चूहेदानी में फंसा कर मटियामेट करने लगे. अटल बिहारी वाजपेयी भी कवि थे. इमरजेंसी के बाद कैदी कविराय की कुंडलियां खूब चर्चित हुई थीं. मगर जब सत्तासीन हुए तो देश में साहित्य के लिए सर्जनात्मक वातावरण बनाने के बजाय स्वयं ही ‘सदी का गीतकार’ वाला मुकुट पहनने लगे. इस समय ऐसा कोई नहीं है, जो द्वारका प्रसाद मिश्र बन कर उभरे. इसलिए अभी कोई भी सत्ता में आये, साहित्य हाशिये पर ही रहेगा..
स्तब्ध हैं कोयल कि उनके स्वर, जन्मना कलरव नहीं होंगे।
वक्त अपना या पराया हो, शब्द ये उत्सव नहीं होंगे।।