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फ्रांसिस फुकुयामा के नाम एक चिट्ठी

।। सत्य प्रकाश चौधरी।। (प्रभात खबर, रांची) फ्रांसिस फुकुयामा जी, मेरे आसपास कुछ ऐसा घटित हो रहा है जिसकी वजह से आज मैं आपको चिट्ठी लिखने पर मजबूर हुआ हूं. आपसे पहला परिचय सन 1989 में हुआ. परिचय कहना बड़ा हल्का लग रहा है, आप तो बौद्धिक जगत में किसी बम की तरह आकर गिरे […]

।। सत्य प्रकाश चौधरी।।

(प्रभात खबर, रांची)

फ्रांसिस फुकुयामा जी,

मेरे आसपास कुछ ऐसा घटित हो रहा है जिसकी वजह से आज मैं आपको चिट्ठी लिखने पर मजबूर हुआ हूं. आपसे पहला परिचय सन 1989 में हुआ. परिचय कहना बड़ा हल्का लग रहा है, आप तो बौद्धिक जगत में किसी बम की तरह आकर गिरे और फटे थे. हर तरफ आपके राजनीतिक निबंध ‘इतिहास के अंत?’ की चर्चा थी. हमने बिना देरी किये आपको अमेरिकी पूंजीवाद का एजेंट करार दे दिया था.

क्योंकि, आप जिस ‘उदार लोकतंत्र’ को मनुष्यता की अंतिम मंजिल बता रहे थे, उसे हम पूंजीवादी शोषण के सजावटी मुखौटे के रूप में देख रहे थे. आप जिस ‘उदार लोकतंत्र’ पर पूरी दुनिया में ‘सर्वसम्मति’ बता रहे थे, हम उससे असहमत थे. यहां हमें उदार शब्द का इस्तेमाल भाषा के साथ जबरदस्ती की तरह लगा था. यह ऐसी ‘उदारता’ थी जो मेहनतकशों के खून-पसीने पर पूंजीपतियों व उनके दलालों को अय्याशी की छूट देती थी.

लेकिन आपकी एक बात से हम सहमत थे और अब भी हैं कि नया इतिहास बनने-बिगड़ने के लिए ‘असहमति’ जरूरी है. असहमतियों के टकराव से ही इतिहास आगे बढ़ता है. ‘सर्वसम्मति’ तो इतिहास का अंत लेकर आती है. अभी हमारे देश में जो आम चुनाव चल रहा है, उसमें गजब की सर्वसम्मति दिख रही है. हर पार्टी का एक ही नारा दिख रहा है- ‘विकास’. विचाराधाराओं का स्थान ‘विकास’ ने ले लिया है. ‘हवन करेंगे.. हवन करेंगे’ की तर्ज पर हर पार्टी कह रही है- ‘विकास करेंगे.. विकास करेंगे’. लेकिन, ‘विकास किसका और कैसे?’- यह सवाल पूछते ही ‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई!’ वाली तसवीर सामने आती है. केवल वामपंथियों को यह ‘विकास’ नहीं भा रहा है. वे ‘विकास’ में कॉरपोरेट लूट देख रहे हैं.

लेकिन सर्वसम्मति के नक्कारखाने में उनकी असहमति तूती के समान है जो सुनायी नहीं दे रही. इस चुनाव की शुरुआत में इतिहास की खूब खुदाई हुई. नेहरू, पटेल, आंबेडकर सब बाहर निकाले गये. लेकिन ये किसी काम के नहीं पाये गये और इस पर सर्वसम्मति बन गयी कि देश के इतिहास को अब नरेंद्र मोदी से ही शुरू माना जाये. 2002 वाले मोदी से नहीं, 2014 वाले मोदी से. अब बनारस उर्फ काशी उर्फ वाराणसी को ही ले लीजिए. इस शहर का हजारों साल पुराना इतिहास है. लेकिन इसके इतिहास का भी अंत हो गया है. मोदी के यहां से परचा भरते ही बनारसी ऐसे हुलस पड़े मानो इससे पहले उनका कोई वजूद ही न रहा हो. अब मोदी से पहचान मिलने की आस लगाये बैठे हैं. बनारसी साड़ी और यहां तक कि गंगा मइया भी मोदी में ही पहचान तलाशती दिख रही हैं. तो फुकुयामा जी, हमारे यहां जो हो रहा है वह ‘उदार लोकतंत्र’ लायेगा या फासीवाद, यह तो पता नहीं, पर इतिहास का अंत वाली आपकी बात फिलहाल सही साबित हो रही है.

-आपका एक संशयग्रस्त आलोचक

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