डॉ एके अरुण
जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं होमियोपैथी चिकित्सक
नरेंद्र मोदी जी के केंद्र की सत्ता में आते ही देश की कई संस्थाओं में बदलाव की पहल शुरू हुई. सबसे पहले योजना आयोग को बदलकर ‘नीति आयोग’ कर दिया गया. अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया को नीति आयोग का पहला उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया. फिर पनगढ़िया के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय समिति का गठन कर यह प्रक्रिया शुरू की गयी कि भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) और साथ-साथ आयुष की चिकित्सा पद्धतियों की परिषद को खत्म कर एक ‘राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग’ (नेशनल मेडिकल कमीशन ‘एनएमसी’) बनाया जाये. समिति ने तत्काल काम शुरू कर दिया.
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के गठन के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली के नेतृत्व में एक मंत्रियों का समूह (जीओएम) बनाया गया, फिर प्रक्रिया शुरू हुई और महज कुछ महीने में ही ‘ राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक 2017’ की रूपरेखा बना दी गयी. नीति आयोग में संबंधित पक्षों की कई जनसुनवाई, बैठकें, विमर्श के बाद अब लगभग विधेयक तैयार है और संभव है कि इसे आगामी सत्र में संसद में पेश भी कर दिया जायेगा.
प्रस्तावित आयोग में कुछ खास नयी बात तो नहीं है, लेकिन इसमें सरकारी अंकुश और प्रशासनिक नियंत्रण बहुत ज्यादा है. वर्तमान चिकित्सा परिषद एवं आयुष की विभिन्न चिकित्सा परिषदों में चिकित्सकों का वर्चस्व है. इन परिषदों में सदस्यों का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से होता है. हालांकि, इसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की खामियों का फायदा उठाकर कुछ खास चिकित्सकों का परिषद पर कब्जा बना रहा है और उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप भी लगते रहे हैं.
भारतीय चिकित्सा परिषद के पूर्व अध्यक्ष डॉ केतन देसाई पर तो परिषद में लंबे समय से चल रहे बड़े भ्रष्टाचार के आरोप लगे. ऐसे ही आयुर्वेद, होमियोपैथी, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी चिकित्सा परिषद के अधिकारियों पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं. कई पर तो अब भी सीबीआई कोर्ट में मुकदमा चल ही रहा है.
इसमें संदेह नहीं कि स्वास्थ्य क्षेत्र में भ्रष्टाचार की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर इन चिकित्सा परिषदों की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े हो रहे थे. चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट, स्तरहीन चिकित्सा महाविद्यालयों को मंजूरी, मरीजों के उपचार के नाम पर भ्रष्टाचार, चिकित्सा महाविद्यालयों में नामांकन में धांधली आदि के कई मामले प्रकाश में थे, फिर भी चिकित्सा परिषदों ने समुचित कार्रवाई नहीं की और चिकित्सा का ‘प्रतिष्ठित सेवा क्षेत्र’ एक ‘गंदे व्यापार’ में तब्दील होता चला गया. लगभग विगत डेढ़-दो दशक से इन चिकित्सा परिषदों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, लेकिन सुधार नहीं दिखा, तो अब मोदी सरकार ने एकदम कड़ा निर्णय लेकर इन परिषदों को भंग कर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग बनाने का निर्णय ले लिया है.
नये प्रस्तावित आयोग में चुने हुए सदस्यों की संख्या बेहद कम होगी. लेकिन, इसमें सरकारी दखल ज्यादा होगी. जाहिर है, आयोग की स्वायतता लगभग खत्म हो जायेगी और लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने हुए सदस्यों की भूमिका भी न के बराबर होगी. चिकित्सा अध्ययन और चिकित्सा कार्य पर प्रशासनिक अंकुश बढ़ेगा.
एक तरह से चिकित्सा में ‘इंस्पेक्टर राज’ की शुरुआत होगी, जो देखने में अच्छी तो लगेगी, लेकिन व्यवहार में यह कई दिक्कतें भी पैदा करेगी. जिस भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए वर्तमान चिकित्सा परिषद निशाने पर लिया गया है, वह भ्रष्टाचार अब दूसरे रूप में लाल फीतों में बंधकर सामने आयेगा. आप कह सकते हैं कि लोकतांत्रिक भ्रष्टाचार रूप बदलकर सांस्थानिक भ्रष्टाचार में दिखेगा.
नये प्रस्तावित आयोग में कई स्वायत्त बोर्ड के गठन का प्रस्ताव है, जिन पर चिकित्सा स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षण, प्रशिक्षण संचालित करने, चिकित्सा संस्थाओं का निरीक्षण, मूल्यांकन करने, उन्हें मान्यता देने अथवा न देने, चिकित्सा कार्य में लगे चिकित्सकों का पंजीकरण आदि की जिम्मेदारी होगी.
प्रस्तावित विधेयक के अनुसार, ‘आयोग’ में सरकार द्वारा मनोनीत अध्यक्ष और सदस्य होंगे. विभिन्न बोर्ड के सदस्यों का चयन कैबिनेट सचिव के अधीन एक निगरानी समिति करेगी. यह आयोग समय-समय पर चिकित्सकों की मूल्यांकन परीक्षा भी लेगा, ताकि चिकित्सकों की गुणवत्ता पर निगरानी रहे.
नया चिकित्सा आयोग विधेयक पारित होते ही मौजूदा सभी चिकित्सा परिषद भंग हो जायेंगी. जाहिर है, वर्तमान चिकित्सा ढांचे के ढहने का दुख और दर्द चिकित्सा व्यवस्था के कई ठेकेदारों को तो होगा ही, लेकिन वर्षों से सड़ी-गली सरकारी प्रशासनिक व्यवस्था से यह उम्मीद करना कि वे पारदर्शिता और ईमानदारी से भ्रष्टाचार व व्याप्त अव्यवस्था को सुधारने में कामयाब होंगे, यह अविश्वसनीय लगता है.
इस नयी प्रक्रिया से सार्वजनिक संस्थाओं का लोकतंत्र प्रभावित होगा. व्यवस्था और केंद्रीकृत होगी, भ्रष्टाचार का स्वरूप बदलेगा और चिकित्सक बनने की प्रक्रिया के कड़ा और जटिल होने से चिकित्सा व्यवस्था भी प्रभावित होगी.
बहरहाल, हम उम्मीद करते हैं कि संसद में पारित होने के बाद राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग पूरी जिम्मेदारी से चिकित्सा ‘व्यवसाय’ को ‘सेवा’ में तब्दील करने की दिशा में प्रयास करेगा. यदि ऐसा हो पाया, तो इसे निश्चित ही देश की सराहना मिलेगी.