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मोदी पर गुजरात का भरोसा है जीत

रामबहादुर राय वरिष्ठ पत्रकार हिमाचल प्रदेश में किसी को शंका नहीं थी कि भाजपा सरकार बनायेगी. जो कुछ संदेह था, वह गुजरात के बारे में थे. गुजरात में चुनाव भाजपा और कांग्रेस के बजाय नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच उभरकर आया. राहुल गांधी को कांग्रेस गुजरात के संगठन और उसके जनाधार से अधिक […]

रामबहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार
हिमाचल प्रदेश में किसी को शंका नहीं थी कि भाजपा सरकार बनायेगी. जो कुछ संदेह था, वह गुजरात के बारे में थे. गुजरात में चुनाव भाजपा और कांग्रेस के बजाय नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच उभरकर आया. राहुल गांधी को कांग्रेस गुजरात के संगठन और उसके जनाधार से अधिक तीन नेताओं (हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकोर) पर भरोसा था और उनके ईर्द-गिर्द जो भीड़ जुट रही थी, उससे उसे ऐसा भरोसा हुआ कि कांग्रेस सरकार बना सकती है.
यह भी था कि गुजरात में भाजपा पिछले 22 सालों से है, तो उससे कुछ शिकवे-शिकायतें होंगी, सत्ताविरोधी लहर दौड़ेगी, खासकर पाटीदार आंदोलन के खड़े होने के कारण एक आशंका थी कि भाजपा पिछड़ सकती है. भाजपा को कम सीटें मिलने से यह आशंका सही साबित होती है.
एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह है कि गुजरात में पाटीदार भी दो हिस्सों में बंटे हुए हैं. हार्दिक पटेल जिन पाटीदारों का नेतृत्व करते हैं, उनकी संख्या कम है. और आनंदी बेन पटेल जिन पाटीदारों का नेतृत्व करती हैं, उनकी संख्या ज्यादा है. इसके बावजूद हार्दिक का प्रभाव दिखायी पड़ा है. हालांकि, भाजपा को भले पिछले साल के मुकाबले सीटें कम मिली हैं, लेकिन उसका वोट प्रतिशत बढ़ा है. यह भाजपा के लिए बहुत अच्छी बात है.
हर बार की तरह इस बार भी गुजरात ने नरेंद्र मोदी में अपना भरोसा जताया है. भाजपा अगर यह चुनाव हार जाती, तो उसका अर्थ निकाला जाता कि मोदी का जहां से प्रभाव शुरू हुआ था, वहीं अब धीरे-धीरे क्षरण हो रहा है. देश में इसका संदेश नकारात्मक जाता. वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी के लिए यह चुनाव महत्वपूर्ण रहा है. कांग्रेस की सीटें बढ़ने से वह अब यह दावा कर सकती है कि उसका प्रभाव अब गुजरात में बढ़ा है और यही कहकर वह दूसरे राज्यों में वोट मांग सकती है. हो सकता है कांग्रेस को इसका आगामी समय में कुछ चुनावी फायदा हो, लेकिन हर हाल मेें संगठन का मजबूत होना ही काम आता है.
गुजरात चुनाव में कांग्रेस की सीटों में बढ़त तो हुई है, लेकिन जैसा कहा जा रहा है कि इसमें राहुल गांधी का शानदार प्रदर्शन या बढ़िया चुनाव-प्रचार रहा है, मैं ऐसा नहीं मानता हूं.
ऐसा इसलिए, क्योंकि गुजरात चुनाव में राहुल गांधी के शानदार प्रदर्शन की छवि मीडिया द्वारा बनायी गयी है, क्योंकि राहुल को मीडिया का शानदार समर्थन मिला है. और इसलिए यह छवि बनी है कि राहुल गांधी ने अपनी भाषा सुधारी है, अपनी भाषण शैली सुधारी है, और ज्यादा लोगों से जुड़ना सीख लिये हैं. लेकिन, गुजरात चुनाव के परिणाम इस बात की गवाही नहीं देते, बल्कि परिणाम ये बता रहे हैं कि राहुल को उसी तरह से मीडिया का समर्थन मिला है, जिस तरह से सोनिया गांधी के राजनीति में आने पर पहली बार मिला था. सोनिया गांधी 1998 के लोकसभा चुनाव में सीधे कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उतरी थीं.
उस समय सोनिया और अटल बिहारी वाजपेयी की तुलना नहीं थी, लेकिन मीडिया ने सोनिया को कहीं-कहीं अटल जी के समान और कहीं-कहीं बड़ी छवि करके दिखाया था. बिल्कुल मौजूदा चुनावों की तरह. मुझे याद है, सिर्फ ‘दि हिंदू’ ही एक ऐसा अखबार था, जिसने खबर लगायी थी कि अटल जी की हैदराबाद में हुई सभा में ज्यादा भीड़ इकट्ठा हुई थी.
इस बार भी गुजरात के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी से ज्यादा राहुल गांधी को उभारने की कोशिश मीडिया ने की. राहुल गांधी के भाषणों और उनकी रैलियों-सभाओं को ज्यादा स्पेस मिला, और वे काफी दिनों से गुजरात में जमे भी हुए थे. अपने भाषणों में राहुल गांधी ने जो नयी शैली अपनायी, उसमें उन्होंने हिंदू बनाम हिंदू का चुनाव बनाने की कोशिश की. वहीं नरेंद्र मोदी ने उसको विकास बनाम दोमुंही राजनीति का मुद्दा बनाया. मगर चुनाव परिणाम ने विकास को समर्थन दिया है और दोमुंही राजनीति को नकार दिया है. भाजपा विकास की बात लेकर चली थी और वह अब भी कायम है.
साल 2014 के बाद जितने भी चुनाव हुए हैं, उन सभी चुनावों में एक पैटर्न दिखायी पड़ता है. पैटर्न यह है कि जहां लड़ाई भाजपा और कांग्रेस के बीच हुई है, वहां भाजपा को जीत मिली है. गुजरात और हिमाचल इसके उदाहरण हो सकते हैं.
लेकिन, जहां पर भाजपा का मुकाबला क्षेत्रीय दलों से रहा है, और कांग्रेस भी उन क्षेत्रीय दलों के साथ एक गठबंधन बनाने में कामयाब हो जाती है, वहां पर भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी हो जाती है, जैसा बिहार में हुआ. अब 2018 में कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में चुनाव होने हैं और इन सभी राज्यों में सीधी लड़ाई भाजपा-कांग्रेस के बीच होगी, क्योंकि ज्यादातर राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हैं.
उदाहरण के तौर पर देखें, तो कर्नाटक में लड़ाई सीधे भाजपा और कांग्रेस के बीच होगी. कर्नाटक में भाजपा नेता येदियुरप्पा एक मास लीडर हैं, जिनका नेतृत्व कर्नाटक में भाजपा की जीत के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है यानी जीत सुनिश्चित है. वहां पिछड़ी जातियां येदियूरप्पा के साथ जायेंगी. भाजपा अगर गुजरात में हार जाती, तब कांग्रेस का हौसला बढ़ता और वह कर्नाटक में उसका फायदा उठा लेती. अब भाजपा के गुजरात जीतने के बाद कांग्रेस चाहे जितनी भी राहुल के शानदार प्रदर्शन का दावा करे, उसके लिए लड़ाई कठिन होगी, मायूसी छायेगी, टूटन होगी.
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हिमाचल और गुजरात चुनाव परिणाम पर जो प्रतिक्रिया दी है, उससे साफ दिखता है कि चौहान अपने को आश्वासन दे रहे हैं कि 2018 में वे खतरे में नहीं पड़नेवाले हैं. यानी जाहिर है कि हिमाचल और गुजरात चुनाव परिणामों का असर अगले साल में होनेवाले राज्यों के चुनावों में हवा बनाने में काम आयेगा.
बाकी जो क्षेत्रीय-स्थानीय के साथ अन्य परिस्थितियां तो अपनी जगह रहेंगी ही. फिलहाल अभी से आगामी चुनावों के बारे में कुछ कहना उचित नहीं है, क्योंकि राज्य और केंद्र के मुद्दे अलग-अलग होते हैं. लेकिन, यह जरूर कहा जा सकता है कि अगर आगामी चुनावों में भी भाजपा के पक्ष में नतीजे आये, तो भाजपा के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने में कुछ और आसानी हो जायेगी.

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