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जिसे गरीब की चिंता नहीं, वह दल कैसा!

।। तरुण विजय।। (राज्यसभा सांसद, भाजपा) जिस देश में 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हों और भीषण महंगाई के मौजूदा दौर में भी 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम में गुजारा करने पर मजबूर हों, जहां 70 प्रतिशत लोग बेघर हों और बड़ी संख्या में लोग जूठन बटोर कर तथा फुटपाथ […]

।। तरुण विजय।।

(राज्यसभा सांसद, भाजपा)

जिस देश में 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हों और भीषण महंगाई के मौजूदा दौर में भी 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम में गुजारा करने पर मजबूर हों, जहां 70 प्रतिशत लोग बेघर हों और बड़ी संख्या में लोग जूठन बटोर कर तथा फुटपाथ पर सोकर जिंदगी बिता रहे हों, उस देश में सांप्रदायिक जुनून पैदा कर चुनाव लड़ना एक पाप है, अपराध है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक होने के नाते हमारे देश के करोड़ों लोग हर दिन राष्ट्र के परम वैभव की कामना करते हैं और उस स्थिति तक देश व समाज को पहुंचाने के लिए संकल्प लेते हैं. यह हमारी प्रतिदिन की उस प्रार्थना का अनिवार्य हिस्सा है, जिसकी प्रारंभिक पंक्ति ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ से शुरू होती है. जो लोग ‘हिंदुत्व’ को अपशब्द कह कर उसका तिरस्कार करते हैं, वे समझ ही नहीं पाते हैं कि हमारे लिए आर्थिक विकास के बिना धर्म की कल्पना नहीं है. स्वामी विवेकानंद ने धर्मनिष्ठा को भूख और गरीबी के उन्मूलन से जोड़ा था. देश में करोड़ों गरीब लोग अत्यंत बदहाल स्थिति में भूखे पेट सोने पर मजबूर हों और हम मंदिर-मसजिद की बात करें, सांप्रदायिक नफरत फैलानेवाले भाषण दें, राजनीतिक विपक्षियों की वोटी-वोटी नोच डालने की धमकी दें और किसी एक वर्ग से कहें कि बहुत हो गया सेकुलर बन कर, अब थोड़ा कम्युनल हो जाइये और अपनों को ही वोट दीजिये, तो यह सब भारत के हित में तो नहीं ही है, इंसानियत के भी विरुद्ध है.

हमारे यहां तो शिव भक्ति का अर्थ यह माना गया है कि मनुष्य की सेवा करो. रामकृष्ण परमहंस ने कहा था ‘शिबेर सेवा, जीबेर सेवा.’ यानी जीव की सेवा ही शिव की सेवा है. यह बात न तो करोड़ों रुपये के घोटाले करनेवाले समझते हैं और न वे, जो मुसलमानों को वोट बैंक का महज एक उपकरण समझते हैं. हमारे देश में न तो किसी को किसी संप्रदाय को माननेवालों की देशभक्ति पर संदेह करने का अधिकार है और न ही स्वयं को बाकी तमाम लोगों से बड़ा देशभक्त या धर्मरक्षक कह कर अहंकार जताना चाहिए. लेकिन सच तो यही है कि हमारी तमाम बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद हम अपने ही देश के अटूट अंग कश्मीर में न तो मंदिर बचा पाये, न ही हिंदुओं की रक्षा कर पाये. हमारे तीर्थस्थान गंदे रहते हैं, पंडित-पुजारियों का व्यवहार दूरदराज से आनेवाले भक्तों और तीर्थयात्रियों के प्रति अजीब और धन केंद्रित रहता है, लेकिन इन बातों की ओर ध्यान किसी का भी नहीं जाता है.

जिस देश में धरती माता की पूजा करनेवाले किसानों को आत्महत्या करने पर विवश होना पड़े, वहां धरती को मजहब तथा संप्रदाय की नफरतों के तूफान में रक्त से रंगना कहां की राजनीति और कहां की वतन परस्ती है? जरा सोचिये, पिछले दिनों बिहार में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के खूंखार आतंकवादी को सेकुलर सरकार ने आइबी के कहने के बावजूद गिरफ्तार करने से मना कर दिया और नतीजा यह हुआ कि कोलकाता से एनआइए को गिरफ्तारी को अंजाम देने के लिए बुलाना पड़ा. यह किस प्रकार की भारत भक्ति का प्रमाण था? क्या उस सरकार को लगता था कि एक आतंकवादी को गिरफ्तार करने से मुसलमान उससे नाराज हो जायेंगे? या उसे गिरफ्तार नहीं किया तो मुसलमान खुश हो जायेंगे और मुसलिम वोट बैंक पक्का हो जायेगा? ऐसा सोचना भी देश तथा मुसलिम समाज का अपमान है, क्योंकि भारत के मुसलमान अब्दुल हमीद, कैप्टन हनीफुद्दीन और अब्दुल कलाम परंपरा के मुसलमान हैं, न कि भटकल और उसके हमदर्दो के समर्थक.

अब जरा देश के चुनावी इतिहास पर नजर डालिये. अब तक इस देश में ऐसा एक ही नेता हुआ है, जिसने जिद के साथ कहा कि वे न हिंदू से वोट मांगेंगे, न ही मुसलमान से, बल्कि सिर्फ हिंदुस्तानियों से वोट मांगेंगे, भले ही ऐसा करने में उन्हें पराजय ही क्यों न मिले. भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का यह कथन उन नेताओं के लिए चुनौती है, जो मुजफ्फरनगर दंगों के बाद एक ऐसे वक्त में यूरोप यात्र पर चले गये, जब दंगा पीड़ित वहां शिविरों में भीषण ठंड में ठिठुर रहे थे. वे नेता, जिन्होंने मुजफ्फरनगर के मुसलिम लड़कों के बारे में कहा कि वे लश्कर-ए-तोयबा में भरती होने जा रहे हैं, या फिर वे, जिन्होंने ईमाम बुखारी से अपने सेकुलर होने का सर्टिफिकेट बटोरा और 1984 के दंगों के घाव कुरेदते हुए उस नेता को निदरेष साबित किया, जिसकी 84 के दंगों में भूमिका जगजाहिर थी, क्या इस बात का जवाब देंगे कि जितनी तल्खी और खूंखार जोश के साथ वे हिंदू-मुसलिम की बात करते हैं, उससे आधे जोश से भी क्या कभी उन्होंने गरीबों के लिए रोजगार और उनके बच्चों की अच्छी पढ़ाई की बात की है? हजारों रुपयों के महंगे जूते पहन कर गरीबों के घरों में रुकने या किसी मजदूर के तसले को हाथ लगा देने भर से आत्मीयता नहीं बढ़ती है. यह किसी से छिपा नहीं है कि दसियों साल इन नेताओं के बंगले साधारण गरीब लोगों के लिए पूरी तरह बंद रहे. सुरक्षा के आवरण में कोई उनसे मिले भी नहीं, देश का धन लूट कर बाहर जमा होता रहे, हजारों एकड़ सस्ती जमीन खरीद कर सरकार द्वारा कानून बदलते हुए उसे व्यावसायिक बना दिया जाये, और इस बारे में यदि कोई सवाल पूछा जाये तो मासूमियत से रो लिया जाये कि देखो-देखो ये लोग मेरे परिवार और मेरे पति पर हमला कर रहे हैं. यह सब क्या है जी? इसे राजनीति कहेंगे या पारिवारिक सामंतशाही के बिखरने के डर से उपजी पारिवारिक पीड़ा?

वास्तव में, 2014 का लोकसभा चुनाव ‘भारत भाग्य विधाता चुनाव’ है. इसमें देश के मतदाताओं को यह तय यह करना है कि गरीबी, बदहाली और भुखमरी का शिकार भारत राजनीतिक लूट, ऐश्वर्य, वैभव तथा अहंकार के साथ लाखों करोड़ रुपये डकारनेवाले इंडिया से हमेशा दबा-कुचला ही रहेगा, या फिर विद्रोह करके इन नव-सामंतों को उनकी हैसियत के अनुसार कूड़ेदान में फेंक देगा? दुनिया के इतिहास में जब भी बदलाव हुआ है, उसके विरोध में यथास्थितिवादी धनपतियों और राजदरबार में वर्षो से स्थापित सत्ता के दलालों ने अपनी पूरी ताकत लगायी है. आज भी यही दृश्य है, जब लुटियन की नयी दिल्ली के सुलतान किसी भी कीमत पर न तो हार बर्दाश्त कर पा रहे हैं और न ही आलोचना. यही तत्व 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान आर्थिक मुद्दे को सांप्रदायिक रंग में बदलना चाहते हैं, क्योंकि उनके वोट बैंक का फायदा अर्थनीति से नहीं, बल्कि अनर्थ नीति से ज्यादा होता है. लेकिन वे अपनी विफलता रोक नहीं पायेंगे, ऐसा आभास होने लगा है.

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