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भाजपा व कांग्रेस का रूपांतरण!

।। कृष्ण प्रताप सिंह।। (वरिष्ठ पत्रकार) इस आम चुनाव में कांग्रेस और भाजपा कम-से-कम दो मामलों में अपनी धुरी पर पूरे 180 अंश घूम गयी लगती हैं. इनमें पहला मामला कांग्रेस द्वारा भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी द्वारा श्रीमती इंदिरा गांधी की तारीफों का है. जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वाजपेयी […]

।। कृष्ण प्रताप सिंह।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

इस आम चुनाव में कांग्रेस और भाजपा कम-से-कम दो मामलों में अपनी धुरी पर पूरे 180 अंश घूम गयी लगती हैं. इनमें पहला मामला कांग्रेस द्वारा भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी द्वारा श्रीमती इंदिरा गांधी की तारीफों का है. जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वाजपेयी की तारीफ में उनकी ‘उदारता’ के बहाने ‘आक्रामक’ मोदी को घेरने का उसका मकसद एकदम साफ है. लेकिन पिछले दिनों कर्नाटक की अपनी सभाओं में मोदी ने जिस अंदाज में इंदिरा गांधी को ‘विकास करनेवाली शेरनी’ बता कर सत्ता में आने पर उनका दस गुना विकास करने का वादा किया, उसके मकसद को सावधानीपूर्वक समङो जाने की जरूरत है.

गौरतलब है कि मोदी को ‘शेरनी’ इंदिरा को छोड़ कोई भी दूसरा कांग्रेसी प्रधानमंत्री या नेता अच्छा नहीं लगता. यहां तक कि वे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहरलाल नेहरू के नाम भी पर्याप्त आदर के साथ नहीं लेते और उन्हें देश की कई मुसीबतों का जनक मानते हैं. सरदार वल्लभभाई पटेल का नाम लेते भी हैं, तो गुजरात में उनकी विशेष अवस्थिति के कारण और उद्देश्य कांग्रेस को चिढ़ाना और यह जता कर अपनी 56 इंच की छाती ठोंकना होता है कि उन्होंने उसके लौहपुरुष को उसके ही विरुद्घ इस्तेमाल कर लिया और वह इतनी बेबस है कि कुछ नहीं कर पा रही.

ऐसे में प्रश्न है कि तब क्या इंदिरा गांधी के साथ भी वे सरदार पटेल जैसा सलूक करना चाहते हैं या कर पायेंगे? अगर नहीं तो यह तारीफ इतनी रहस्यमय हो जाती है कि यह सवाल मौजूं हो जाये कि नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी जैसा ही ‘सर्वशक्तिमान’ प्रधानमंत्री बनने की हसरत तो नहीं पाले हुए हैं? इसका जवाब हां में है, तो इस देश को नरेंद्र मोदी को लेकर कहीं ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है. उनकी पार्टी उनकी जिस आक्रामकता को उनकी सबसे बड़ी योग्यता बता कर प्रचारित कर रही है, वह ‘गुणों’ व ‘मूल्यों’ के लिहाज से निश्चित ही उन इंदिरा गांधी के साथ ही एकाकार हो सकती है, जिन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अपना चुनाव अवैध घोषित किये जाने के बाद इस्तीफा देने के बजाय देश पर इमरजेंसी थोप कर नागरिकों के सारे मौलिक अधिकार छीन लिये थे और सारे विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया था.

मोदी के पैरोकार कह सकते हैं कि एक समय अटल जी ने भी दुर्गा कह कर इंदिरा गांधी की तारीफ की थी. लेकिन तब देश 1971 में था और इमरजेंसी की काली रात से नहीं गुजरा था. अब जब कांग्रेस भी इमरजेंसी का औचित्य मानने का साहस नहीं करती, मोदी को इमरजेंसी वाली इंदिरा ‘शेरनी’ लगती हैं, तो वे इतने सदाशयी नहीं कि वे लोगों को इंदिरा के बारे में अटल का बयान याद दिलाना चाहते हैं. चुनाव बाद उनका दस गुना करने की हालत में आने पर वे क्या करेंगे, यह कल्पना किसी भी लोकतांत्रिक शख्स को हिला कर रख देने के लिए काफी है, क्योंकि उनके समर्थक अभी से उनके विरोधियों को पाकिस्तान भेजने लगे हैं!

दूसरी ओर इन दोनों पार्टियों के चुनावी विज्ञापनों में साफ दिखता है कि उन्होंने अपनी भूमिकाएं आपस में बदल ली हैं. 1977 और 1980 के लोकसभा चुनावों में जनता पार्टी, जिसमें भारतीय जनता पार्टी भी समाहित थी, मतदाताओं से पूछती थी- सारी ताकत एक हाथ में या सारी जनता में? और फैसला करने को कहती थी. यह सवाल उन दिनों तानाशाही व एकाधिकारवाद की प्रतीक बन गयी इंदिरा गांधी के खिलाफ उसका सबसे कारगर हथियार हुआ करता था.

लेकिन अब भाजपा का ‘सारी ताकत एक हाथ में’ देने के सिद्घांत में ऐसा अगाध विश्वास है कि अबकी बार उसे भाजपा की नहीं, मोदी की सरकार अभीष्ट है. उसका नारा है- अबकी बार, मोदी सरकार! व्यष्टि के सामने समष्टि का ऐसा आत्मसमर्पण तो उसने अटल के समय में भी नहीं किया था. उसकी यह असहायता लगातार दो लोकसभा चुनावों में हार से उपजी है या रीति-नीति के आधार पर कांग्रेस को चुनौती दे पाने की अक्षमता से, यह तो वही जाने. लेकिन व्यक्ति के रूप में राहुल गांधी नरेंद्र मोदी से पार पाते नहीं दिख रहे, तो कांग्रेस अचानक बहुत लोकतांत्रिक हो उठी है. सत्ता और स्वार्थो के हर तरह के केंद्रीकरण और अलोकतांत्रिक मूल्यों के विकास को प्रोत्साहन देने के लिए बदनाम देश की यह सबसे पुरानी पार्टी अब हर स्तर पर सत्ता के विकेंद्रीकरण और एक व्यक्ति के बजाय सारी जनता को ताकत देने की वकालत कर रही है, तो मुहावरा याद आता है-नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली!

जनता की याददाश्त को कमजोर मान कर भाजपा और कांग्रेस द्वारा यों एक-दूसरे की काया में प्रवेश की कोशिशों के बीच हमें यह समझने की जरूरत है कि तानाशाही अच्छी से अच्छी होकर भी लोकतंत्र का विकल्प नहीं हो सकती. बुरे से बुरे लोकतंत्र का भी नहीं.

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