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इस लोकतंत्र में कहां हैं हम?

भारत एक भीड़ है और मैं उस भीड़ में शामिल धक्के खाता, हाशिये पर खड़ा एक नागरिक हूं. सड़क, रेल, हवाई अड्डा, अस्पताल, स्कूल, कचहरी, थाना, जेल, मंदिर, राशन दुकान, सिनेमा घर, नगरपालिका, ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी, टेलीफोन एक्सचेंज, बिजली ऑफिस, बाजार, श्मशान- हर जगह भीड़ ही भीड़ है और मैं बेबस, निरीह, कतारबद्ध, धैर्य के साथ […]

भारत एक भीड़ है और मैं उस भीड़ में शामिल धक्के खाता, हाशिये पर खड़ा एक नागरिक हूं. सड़क, रेल, हवाई अड्डा, अस्पताल, स्कूल, कचहरी, थाना, जेल, मंदिर, राशन दुकान, सिनेमा घर, नगरपालिका, ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी, टेलीफोन एक्सचेंज, बिजली ऑफिस, बाजार, श्मशान- हर जगह भीड़ ही भीड़ है और मैं बेबस, निरीह, कतारबद्ध, धैर्य के साथ अपनी बारी के इंतजार में खड़ा हूं.

कभी-कभार थोड़ी देर के लिए मेरा धैर्य चूकने लगता है और मैं बेकाबू होने लगता हूं. लेकिन कभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता कि कतार से बाहर निकल कर अपना काम पहले करवाने की धौंस जमा सकूं.

मेरी तरह तीन-चौथाई से ज्यादा हिंदुस्तानी नागरिक एक भीड़ से ज्यादा कुछ नहीं हैं. उनकी कोई हैसियत नहीं है, कोई अहमियत नहीं है, कोई ताकत नहीं है. इस देश की सबसे बड़ी सच्चाई यही है कि यहां के तीन-चौथाई से ज्यादा नागरिक लोकतंत्र के हाशिये पर रहते हैं. इस देश में हैसियत, अहमियत और ताकत केवल उनके पास है जिन्हें कभी किसी कतार में नहीं लगना पड़ता, जिन्हें हर मनचाही चीज जरूरत से अधिक, उनकी मर्जी होते ही सहजता से मिल जाती है.

मेरे जैसे आम आदमी को हर जरूरी चीज जरूरत से कम मिलती है, वह भी समय और सहजता से नहीं. मुझे मालूम है कि संसाधनों और इंफ्रास्ट्रक्चर पर आबादी का दबाव बहुत अधिक है, इसलिए हर चीज के लिए आपाधापी मची है और शायद इसी की वजह से भ्रष्टाचार भी बढ़ा है. लेकिन मैं चाहता हूं कि उपलब्ध संसाधनों, सुविधाओं और अवसरों का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित करने का कोई सिस्टम हो, ताकि मेरे हिस्से की चीज मेरी जरूरत के समय सहजता से मुझे मिल सके. जब तक ऐसा नहीं होता, लोकतंत्र सबसे बड़ा झूठ है.

सुबोध राणावत, रांची

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