‘मेरा वोट तालिबान की धमकियों का करारा जवाब है’- एक समाचार एजेंसी को दिया गया अफगानी गृहिणी लैला नियाजी का यह बयान वहां की जनता की मनोदशा का प्रतीक है. नये राष्ट्रपति और क्षेत्रीय परिषदों के चुनाव के लिए शनिवार को हुए मतदान में तालिबान की धमकियों के बावजूद करीब 58 फीसदी मतदाताओं ने भागीदारी की.
देश के पहले स्वतंत्र व लोकतांत्रिक चुनावों के बाद जो भी व्यक्ति राष्ट्रपति करजई की जगह लेगा, उसे बिना अमेरिकी मदद के तालिबानियों से निपटना होगा. अफगानिस्तान में तैनात अमेरीकी सेना इस साल के आखिर तक वहां से हट जायेगी. राष्ट्रपति पद की दौड़ में आठ प्रत्याशी हैं, लेकिन जानकारों के आकलन में, मुकाबला पूर्व मंत्रियों अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह, जलमई रसूल तथा अशरफ गनी के बीच है.
चुनावों में भारी मतदान और विभिन्न राजनीतिक व जातीय समूहों की भागीदारी विश्व-समुदाय, विशेषकर दक्षिणी एशिया के लिए उत्साहवर्धक है. अफगानी राजनीति के अगले कुछ महीने न सिर्फ हिंसा और आर्थिक संकट से त्रस्त इस देश के लिए, बल्कि पड़ोसी मुल्कों- पाकिस्तान और हिंदुस्तान- के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण होंगे. अमेरिकी सेना के जाने और घटती अंतरराष्ट्रीय दिलचस्पी की स्थिति में पिछले एक दशक में वहां स्थिरता के लिए हो रहे प्रयासों और इनकी उपलब्धियों को सुदृढ़ करना इन दोनों देशों की बड़ी जिम्मेवारी होगी. इसके लिए भारत व पाकिस्तान को सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में साझी रणनीति बनानी होगी. भारत ने सकारात्मक रुख दिखाते हुए यह संकेत दिया है कि वह पाकिस्तान के साथ विदेश-सचिव स्तर की वार्ता के दौरान अफगानिस्तान के संबंध में व्यापक बातचीत के लिए तैयार है.
भारत व अफगानिस्तान की ओर से पहले भी यह कहा जाता रहा है कि वे पाकिस्तान के उचित हितों को समायोजित करने के लिए तैयार हैं. यह एक अच्छी स्थिति है कि भारत में भी अगले महीने नयी सरकार का गठन हो जायेगा और पाकिस्तान में पिछले साल नयी सरकार बनी है. उम्मीद है कि ये सरकारें खुले मन और अच्छे इरादों के साथ अफगानिस्तान की नयी सरकार के साथ सहयोग करेंगी और देश में राजनीतिक स्थिरता बहाल करने में अग्रणी भूमिका निभायेंगी.