चुनाव को महापर्व की संज्ञा दी गयी है. आखिर पांच वर्षो में एक बार हमें अपना भाग्यविधाता चुनने का मौका मिलता है. आज शासन-प्रशासन, राजनैतिक, गैर-राजनैतिक एवं सामाजिक संगठन और मीडिया हाउस मतदाताओं को जागरूक करने हेतु तरह-तरह के उपक्रम कर रहे हैं. मतदान करने पर मतदाताओं को अनेक प्रकार की छूट या सुविधाएं देने की घोषणा की जा रही है. तरह-तरह के नारे दिये जा रहे हैं, मानो कि अगर अपना वोट अपने पास रख लिया तो लोकतंत्र कमजोर हो जायेगा. कुछ लोग कहते हैं, मैं कभी वोट देने नहीं जाता, इसलिए आज संसद में जो कुछ होता है, उसके लिए मैं कतई जिम्मवार नही हूं.
अब यह तो मैं नहीं जानता कि आज संसद में जो होता है, उसके लिए वोट देनेवाला जिम्मेवार है या वोट नहीं देनेवाला, पर मैं इतना जानता हूं कि ये तथाकथित राजनैतिक दलों के एजेंट हर चुनाव में यही कह कर हमसे मतदान करवा लेते हैं और हम अपने ही हाथों अपनी गुलामी पर मोहर लगा देते हैं. दुर्भाग्य से किसी भी चुनाव में लोकतंत्र बहस का मुद्दा बनता ही नहीं. हमें एक अच्छा शासक चाहिए या एक अच्छी व्यवस्था, हम व्यवस्था को मजबूत करना चाहते हैं या किसी व्यक्ति या पद को, इस पर बहस होती ही नहीं. हम लोकतंत्र चाहते है या गांधी का लोकस्वराज, यह कोई हमसे पूछता ही नहीं. इन सबके बावजूद हम इस चुनाव को ऐतिहासिक बना सकते हैं.
चुनाव आयोग ने हमें एक मौका दिया है, नोटा के साथ. चुनाव में कोई भी प्रत्याशी पसंद न आने पर एक विकल्प के रूप में यह सुविधा है. देश में 1951 के बाद अनेक चुनाव हुए हैं और दुर्भाग्य से हर बार देश की जनता ही हारती रही है. इस बार नोटा का ही बटन दबायें और जीत की दिशा में अपना पहला कदम बढ़ायें.
कृष्ण लाल रूंगटा, चिरकुंडा, धनबाद