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असहिष्णु नहीं है हिंदू धर्म

-पवन के वर्मा- क्रोध बहुत आसानी से सुलगने वाला मनोभाव है, लेकिन इस मनोभाव में बहुत देर तक ठहरने की ताकत नहीं होती है. कुछ परिस्थितियों में क्रोध के मेलोड्रामा की नहीं, बल्कि गंभीर चिंताओं के बरक्स सोची-समझी प्रतिक्रिया की आवश्यकता होती है. शिकागो विश्वविद्यालय की प्रोफेसर वेंडी डॉनिगर की किताब ‘द हिंदूज: एन ऑल्टरनेटिव […]

-पवन के वर्मा-

क्रोध बहुत आसानी से सुलगने वाला मनोभाव है, लेकिन इस मनोभाव में बहुत देर तक ठहरने की ताकत नहीं होती है. कुछ परिस्थितियों में क्रोध के मेलोड्रामा की नहीं, बल्कि गंभीर चिंताओं के बरक्स सोची-समझी प्रतिक्रिया की आवश्यकता होती है. शिकागो विश्वविद्यालय की प्रोफेसर वेंडी डॉनिगर की किताब ‘द हिंदूज: एन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री’ की प्रतियों को बाजार से वापस लेने और बची हुई प्रतियों की लुगदी बनाने के पेंगुइन इंडिया के निर्णय पर भी ऐसी ही प्रतिक्रिया की जरूरत है. पेंगुइन को यह निर्णय शिक्षा बचाओ आंदोलन के विरोध के कारण लेना पड़ा, जिसके विचार में वेंडी डॉनिगर हिंदुओं और हिंदू धर्म को अपमानित कर रही थीं.

यह बिलकुल सही बात है कि किसी को भी जानबूझकर या शरारत में किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई अधिकार नहीं है. लेकिन हम सभी को यह सवाल करने का अधिकार है कि यह ठेस होता क्या है. ठेस किसी के इस दंभपूर्ण दावे के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता है कि सिर्फ वही जानता है कि हिंदू धर्म क्या है. यह उनके कट्टर मत से भी परिभाषित नहीं हो सकता, जो लोग उस हर बात को लेकर असहिष्णु हैं, जो उनकी संकीर्ण व्याख्याओं से थोड़ा-सा भी भिन्न हो या उसकी आलोचना जैसा लगता हो. यह किसी के अल्पज्ञान या भक्ति के छद्म में छिपे अज्ञान के आधार पर भी परिभाषित नहीं हो सकता है.

हिंदू धर्म में मत-भिन्नता के सह-अस्तित्व की गौरवपूर्ण विरासत रही है. वेदों और उपनिषदों में इसकी संवाद-धर्मिता, प्रश्न करने और बहस करने की चिर-परंपरा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है. बिना किसी एक चर्च, एक धर्मशास्त्र और एक पोप का यह धर्म, हिंदू धर्म एक जीवन पद्धति है और यह कभी बिना सोचे-विचारे माने जानेवाले कट्टर मान्यताओं का नाजुक संग्रहण नहीं रहा है.

आठवीं सदी में हिंदू धर्म को पुनस्र्थापित करनेवाले महान दार्शनिक शंकराचार्य ने काव्य के माध्यम से उस समय चलन में रहे हिंदू धर्म की आलोचना की. अपनी अमर रचना निर्वाण शतकम् में दैवीय उन्मुक्तता से वे कहते हैं- न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ, मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:, न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष:, चिदानंद रूप: शिवोùहम् शिवोùहम्. शंकराचार्य कहते हैं, धर्म, अर्थ, काम और यहां तक कि मोक्ष का भी कोई मतलब नहीं है. जिस चीज का अर्थ है, वह है चिदानंद रूप- आनंद और सजगता, और एक बार आप इसे प्राप्त कर लें, तो आप स्वयं शिव हो जाते हैं. ऐसी बात बहुत सारे धर्मो में सबसे बड़ा धर्मद्रोह, सबसे बड़ी ईश-निंदा है.

हिंदू तत्वमीमांसा में सिर्फ एक नहीं, छह पद्धतियां हैं. चार्वाक मत घोषित तौर पर नास्तिक है और ईश्वर की अवधारणा का उपहास करता है. पूजा की एक शक्तिशाली रहस्यात्मक तांत्रिक परंपरा है, जिसके अनेक तौर-तरीके रूढ़िवादियों को नि:संदेह अपरंपरागत प्रतीत होंगे. हिंदू देव-समूह में हजारों देवी-देवता हैं, जिनमें पत्थर और पेड़ भी शामिल हैं. दूसरी ओर, उपनिषद् देवत्व को कोई संज्ञा देने से इंकार करते हुए कहते हैं- नेति, नेति- यह भी नहीं, यह भी नहीं, क्योंकि यह देवत्व के असीम विस्तार का संकुचन कर देगा.

रामानुज और शंकराचार्य ने देवत्व की अवधारणा- सरूप सगुण या नि:रूप निगरुण रूप- पर लंबी बौद्धिक लड़ाई लड़ी. हमारे ऋषियों ने सभ्यता के प्रारंभ में ही यह गूढ़ सूत्र दिया था- एकम् सत् विप्रा: बहुधा वदंति- सत्य एक है, ज्ञानी उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं. मत-भिन्नता का यही स्वीकार हिंदू धर्म के एक महान आदर्श में अभिव्यक्त हुआ है- आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:- विश्व के हर कोने से शुभ विचार हमारी ओर आयें. पुरी के जगन्नाथ मंदिर में ऐसे आयोजन होते हैं, जब भक्तों को भगवान कृष्ण को प्रार्थनाएं न सुनने के लिए भरपूर गाली देने की स्वतंत्रता होती है. वे ऐसा इसलिए करते हैं कि ईश्वर उनका है और वे इस निकटता के अधिकारी हैं.

भक्ति आंदोलन के हमारे संतों ने, हमारे बाऊलों ने ईश्वर को बिलकुल अपरंपरागत तरीकों से गाया है. यह शिक्षा बचाओ आंदोलन की धृष्टता है कि वे दावा कर रहे हैं कि अकेले वे ही इस महान धर्म का मर्म जानते हैं. इस आंदोलन की एक आपत्ति यह है कि डॉनिगर हिंदू धर्म को ‘सेक्सुअल अप्रोच’ से देखती हैं. हिंदू धर्म के बारे में यह शुचितावाद इतनी बड़ी अपढ़ता है कि यह आपत्तिजनक है. औपनिवेशिक दौर में अंगरेज हिंदू धर्म में काम के स्वीकार को देखकर अचंभित रह गये थे. उन्होंने ईसाईयत की पवित्रता को स्थापित करने के इरादे से हिंदुओं पर पतित होने का आरोप लगाया. हिंदू इस बात से हमेशा से परिचित थे कि संतुलित जीवन के हिस्से के रूप में काम या शारीरिकता हिंदू धर्म के चार पुरुषार्थो या लक्ष्यों में से एक है और ऐंद्रिकता देवत्व का एक प्रतिबिंब है. शिक्षित भारतीयों ने औपनिवेशिक दौर में और दुर्भाग्य से, उसके बाद भी इस ब्रिटिश आलोचना को स्वीकार कर लिया तथा उसी हिसाब से धर्म की शुद्धता की कोशिश करने लगे.

इन ‘सुधारकों’ को याद करना चाहिए कि हिंदू धर्म में राम नहीं, बल्कि कृष्ण पूर्णावतार, पूर्ण ईश्वर माने जाते हैं. राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे. कहा जाता है कि उनके पास पूर्ण ईश्वर होने के लिए आवश्यक 16 गुणों में 13 गुण थे. कृष्ण के पास सभी 16 गुण थे, जिनमें अतिरिक्त तीन श्रृंगार रस, ऐंद्रिक चित्त वृति से संबद्ध हैं. राधा और कृष्ण का वर्णन करती जयदेव, बिहारी, चंडीदास, गोविंददास आदि के कोमल और कामुक काव्य अद्भुत रूप से इस चित्त वृति को अभिव्यक्त करते हैं. हमारे सभी देवताओं की स्त्री संगिनियां हैं. वे उनके बिना अधूरे हैं. हमारी पौराणिकता इस ऐंद्रिकता के वृहत उत्सव से भरी है, भले ही वह देवत्व की खोज में शारीरिकता की अनुपस्थिति के मार्ग को भी पूरा स्वीकार करती हो. इसीलिए कोणार्क और खजुराहो के मंदिरों में आधार की श्रृंखलाओं में कामोत्तेजक चित्र हैं, मध्य में देवता अपनी संगिनियों के साथ हैं और शिखर पर सिर्फ त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु और महादेव की छवियां हैं.

असली चिंता की बात यह है कि कट्टरपंथी संगठन अपने संकीर्ण, अज्ञानी और धर्माध अवधारणाओं के अनुरूप हिंदू धर्म को हथियाने के लिए खुद में गंभीरता से जहर भर रहे हैं. अगर उदार भारत इस हमले के सामने इतनी आसानी से झुक जायेगा, तो इससे दूसरों की भी हिम्मत बढ़ेगी. हर तरह के लम्पट तत्व ऊंचे आसान पर बैठ हमें धर्म का ‘सही’ तरीका और विचार बतायेंगे. नैतिक चौकीदार पूरी ताकत से बाहर निकलकर बिना किसी डर के तोड़-फोड़ और हिंसा करेंगे.

पेंगुइन इंडिया का निर्णय और वेंडी डॉनिगर की किताब इस बड़े खतरे के सामने फुटनोट बन कर रह जायेंगे. क्या हम सब इस तरह का भारत चाहते हैं?

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