चंदवा के एक गांव में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं की उग्रवादियों ने उस समय पिटाई कर दी, जब वे सभा कर रहे थे. यह छोटी घटना नहीं है. चुनाव का वक्त है. हर दल के प्रत्याशी चुनाव प्रचार के लिए निकल रहे हैं. उन्हें दूरदराज के गांवों में भी जाना पड़ता है.
इस प्रकार अगर कार्यकर्ताओं पर हमले होने लगे, तो कोई चुनाव प्रचार कैसे करेगा? हो सकता है कि कहीं पर उग्रवादियों ने, नक्सलियों ने चुनाव बहिष्कार की घोषणा की हो और जब कोई प्रत्याशी या उसका समर्थक चुनाव प्रचार के लिए जाता है तो यह बात उन्हें नागवार लगी हो और मारपीट का यही कारण भी हो. यह भी संभव है कि मारपीट करनेवाले उग्रवादी या नक्सली न हों और उनकी आड़ लेकर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने ऐसा किया हो. जो भी हो, लेकिन यह सत्य है कि मारपीट हुई है. भय के माहौल में निष्पक्ष चुनाव कैसे हो सकता है?
लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत तो मतदान ही है. अगर कहीं भय का माहौल बन गया तो चुनाव प्रचार के लिए प्रत्याशी वहां नहीं जायेंगे. हो सकता है कि वहां के ग्रामीण भी वोट देने से डरें. ऐसे में चुनाव में उनकी भागीदारी नहीं होगी. जो भी प्रत्याशी जीतेगा, उस पर यह सवाल उठेगा कि क्या वह वास्तव में पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है. लोकसभा क्षेत्र बड़ा होता है. आजकल प्रत्याशियों की संख्या भी कम नहीं होती.
ऐसे में सभी प्रत्याशियों या उनके कार्यकर्ताओं को पुख्ता सुरक्षा देना किसी भी व्यवस्था के लिए संभव नहीं होता. प्रयास जरूर होना चाहिए. चुनाव के दौरान प्रत्याशियों की सुरक्षा की व्यवस्था तो शासन करता है, लेकिन कई ऐसी जगहें होती हैं जहां प्रत्याशी की जगह उनके कार्यकर्ता जाते हैं. परेशानी यहीं होती है. राज्य सरकार को चाहिए कि जितना संभव हो, सुरक्षा दे. राजनीतिक दलों को भी यह देखना होगा कि वे चुनाव में जीत के लिए असामाजिक तत्वों का सहारा न लें, अनैतिक कार्यो को बढ़ावा न दें. जो गलत हो रहा है, उसकी निंदा करें. ऐसा करने से ही गलत लोगों का मनोबल टूटेगा. वे अकेले पड़ेंगे और लोग भयमुक्त होकर मतदान करेंगे. वोट का बहिष्कार करनेवालों को यह सोचना चाहिए कि चुनाव में भाग लेकर अपने अधिकार का प्रयोग कर ही वे व्यवस्था की गड़बड़ियों को दूर कर सकते हैं, उसमें सुधार ला सकते हैं.