।। संजय कुमार।।
(डायरेक्टर, सीएसडीएस)
बिहार में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के साथ भारतीय जनता पार्टी का गंठबंधन दलित मतदाताओं को रिझाने की भाजपा की एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा लगता है. हालांकि इस वक्त यह केवल कयास ही लगाया जा सकता है कि इस गंठबंधन के कारण पार्टी बिहार में दलित मतदाताओं को रिझाने में कामयाब होगी या नहीं? महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि पिछले कुछ चुनावों में कुर्मी और कोयरी जातियों के मतदाताओं का भरपूर समर्थन हासिल करनेवाली भाजपा जदयू से गंठबंधन टूटने के बाद इस नुकसान की भरपाई कर पायेगी या नहीं? पिछले कुछ चुनावों के दौरान भाजपा इन दोनों जातियों के मतदाताओं के ज्यादातर मत इसलिए हासिल कर पायी थी, क्योंकि इन मतदाताओं के बीच जदयू की गहरी पैठ है और तब बिहार में जदयू के साथ भाजपा का गंठबंधन था. इसलिए यह आशंका गैरवाजिब नहीं है कि जदयू से नाता टूटने के कारण भाजपा को राज्य की दो प्रमुख उच्च पिछड़ी जातियों के मतों का नुकसान उठाना पड़े सकता है. लोजपा के साथ गंठबंधन से इस नुकसान की कितनी भरपाई होगी, इसका सही उत्तर तो चुनावी नतीजे के बाद ही मिल सकेगा, लेकिन फिलहाल इस गंठबंधन के जरिये भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर यह बड़ा संदेश देने में सफल रही है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में वह दूसरी पार्टियों के लिए ‘अछूत’ नहीं होगी, जैसा कि उसके कुछ आलोचक बता रहे थे.
लोजपा के साथ गंठबंधन के बाद भाजपा विभिन्न राज्यों में कुछ और क्षेत्रीय पार्टियों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब रही है. मसलन, यूपी में अपना दल, हरियाणा में जनहित कांग्रेस, महाराष्ट्र में आरपीआइ (अठावले) व स्वाभिमान पक्ष, तमिलनाडु में एमडीएमके, डीएमडीके, पीएमके, केएमडीके और आइजेके आदि. इनके अलावा कई पार्टियां ऐसी भी हैं, जो चुनाव से पहले भाजपा के साथ गंठबंधन के लिए बहुत इच्छुक भले न हों, चुनाव के बाद एनडीए यदि बहुमत के आंकड़े से थोड़ा पीछे रहा, तो वे सरकार का साथ देने के लिए तैयार हो जाएंगी.
हमारे यहां राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता है. हमने अकसर पार्टियों को गंठबंधन और नेताओं को पार्टी बदलते देखा है. दलबदल के इस खेल का पूरा ड्रामा हम पिछले कुछ हफ्तों के दौरान बिहार में भी देख चुके हैं. लेकिन यहां महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या बिहार में भाजपा के लिए दलित वोटों की इतनी ज्यादा अहमियत है, कि वह अश्विनी चौबे, गिरिराज सिंह, सीपी ठाकुर जैसे अपने कई वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी और विरोध के बावजूद रामविलास पासवान के साथ गंठबंधन करने के लिए आगे बढ़ी?
बिहार की राजनीति में दलित वोटों की अहमियत इसलिए है, क्योंकि राज्य के कुल मतदाताओं में दलितों की हिस्सेदारी 16 फीसदी है. यहां के कई चुनाव क्षेत्रों में वे नतीजा तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं. राज्य के सात लोकसभा क्षेत्रों में कुल मतों में दलितों की हिस्सेदारी 20 फीसदी से अधिक, जबकि अन्य 23 क्षेत्रों में 15 फीसदी से अधिक है. बिहार जिस तरह से भाजपा-लोजपा, कांग्रेस-राजद और जदयू के बीच त्रिकोणीय मुकाबले की ओर बढ़ रहा है, मतों का मामूली प्रतिशत भी इधर-उधर होने से किसी पार्टी या गंठबंधन के नतीजों पर बड़ा असर पड़ सकता है. इसीलिए दलित मतदाताओं को लुभा कर कुछ अतिरिक्त मतों का जुगाड़ करने की रणनीति के तहत भाजपा अपने कई वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी के बावजूद लोजपा के साथ गंठबंधन के लिए आगे बढ़ी.
राज्य में उच्च जातियों के मतदाताओं के बीच भाजपा की मजबूत पैठ है. आकलन के मुताबिक जदयू के साथ गंठबंधन के दौर में हुए चुनावों में उच्च जातियों के 55 से 60 फीसदी तक मत भाजपा के खाते में जाते रहे हैं. सीएसडीएस के हालिया जनमत सव्रेक्षण संकेत देते हैं कि पिछले कुछ महीनों में उच्च जातियों के मतदाताओं का भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ है. सव्रे में शामिल उच्च जातियों के करीब 75 फीसदी लोगों ने कहा कि आम चुनाव में भाजपा उसकी पहली पसंद है. उधर, अति पिछड़ी जातियों के मतदाताओं ने भी पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवारों के पक्ष में अच्छी-खासी संख्या में मतदान किया था और जय नारायण प्रसाद निषाद के भाजपा में आने के बाद उम्मीद जतायी जा रही है कि आम चुनाव में भी इन जातियों के काफी मतदाता भाजपा को वोट देंगे. सीएसडीएस के हालिया सव्रे इस रुझान की पुष्टि करते हैं. यहां तक कि सव्रे में शामिल यादव, कुर्मी और कोयरी जाति के बहुत से मतदाताओं ने भी कहा कि वे आम चुनाव में भाजपा के पक्ष में मतदान करेंगे. सव्रे में शामिल 25 फीसदी यादव मतदाताओं ने कहा कि लोकसभा चुनाव में भाजपा उनकी पहली पसंद होगी. यह रुझान भाजपा में हाल में शामिल हुए रामकृपाल यादव और उपेंद्र प्रसाद कुशवाहा जैसे नेताओं के प्रभाव और भाजपा द्वारा नंद किशोर यादव को विपक्ष का नेता मनोनीत किये जाने जैसे फैसले का नतीजा हो सकता है.
अब जबकि भाजपा उच्च पिछड़ी जातियों के साथ अति पिछड़ी जातियों में भी एक हद तक पैठ बनाने में सफल होती दिख रही है, उसके लिए जरूरी था कि वह दलित मतदाताओं के बीच पैठ बनाने के लिए भी कोई बड़ा कदम उठाये. जदयू के साथ गंठबंधन से पहले राज्य में दलित मतदाताओं के बीच भाजपा कभी लोकप्रिय नहीं रही, लेकिन गंठबंधन के बाद हुए चुनावों में पार्टी को दलित मतदाताओं के काफी मत मिले थे. पिछले कुछ लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों के दौरान राज्य के करीब 30 फीसदी दलित मतदाताओं ने भाजपा-जदयू गंठबंधन के पक्ष में मतदान किया है. वैसे, राज्य सरकार की महादलित संबंधी नीतियों के बाद दलित मतों का विभाजन हुआ. इनमें जहां पासवान जाति के वोटरों ने बड़ी संख्या में लोजपा के पक्ष में मतदान किया, वहीं दूसरी दलित जातियों के मतदाताओं का जदयू-भाजपा गंठबंधन के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ है. 2010 के विधानसभा चुनाव के दौरान पासवान जाति के करीब 55 फीसदी मतदाताओं ने राजद-लोजपा गंठबंधन के पक्ष में, जबकि करीब 21 फीसदी ने जदयू-भाजपा गंठबंधन को वोट दिया था.
भाजपा को डर था कि आगामी आम चुनाव में दलित मतदाता उसके चुनावी गणित में शामिल नहीं होंगे. जाहिर है, अपने नेताओं के विरोध के बावजूद पासवान के साथ गंठबंधन के पीछे उसका यही डर काम कर रहा था, न कि पार्टी का दलित प्रेम. लोजपा के समर्थन आधार में चुनाव-दर-चुनाव कमी के बावजूद खासकर पासवान जाति के मतदाताओं में रामविलास की लोकप्रियता बरकरार है. ऐसे में जिन संसदीय क्षेत्रों में दलित मतदाताओं और खासकर पासवान मतदाताओं की ठीक-ठाक संख्या है, वहां भाजपा को इसका लाभ मिल सकता है. हालांकि इस गंठबंधन से उच्च जातियों के मतदाताओं में नाराजगी का कयास कितना सही होगा, यह जानने के लिए हमें नतीजों का इंतजार करना होगा.