गांवों में एक कहावत है कि ‘गूलर का फूल’ मिल जाये तो आदमी राजा हो जाये. लेकिन दिक्कत यह है कि गूलर का फूल किसी को दिखे तब तो हाथ में आये. आंदोलनी राह पर चल कर राजनीतिक मुद्दा बना कालाधन भी एक तरह से गूलर के फूल की हैसियत प्राप्त कर चुका है. बाबा रामदेव ने कालाधन के सवाल पर आंदोलन किया, तो यह बात चल निकली कि इस गरीब देश के कुछ लोगों ने इतना ज्यादा कालाधन विदेशी बैंकों में छुपाया है कि एक साथ हासिल हो जाये तो देश की बदहाली छूमंतर हो जायेगी.
पर, गूलर के फूल की तरह मुश्किल यह है कि कालाधन दिखे तब तो वापस मिले. और दिखेगा कैसे? ‘काला’ होने के कारण उसे बड़े जतन से छिपाया जो जाता है! इतना ही नहीं, एक तरफ विदेशी जमीन पर कायम बैंक कालाधन जमा करनेवालों के नाम गुप्त रखने की गारंटी देते हैं, तो दूसरी तरफ हमारी सरकार भी इस मुद्दे को गोपनीयता की चादर से ढंक कर रखना चाहती है. इसी कारण कालेधन के परिमाण के बारे में सटीक आकलन मौजूद नहीं है. इस मामले में जनहित याचिका डालनेवाले राम जेठमलानी ने कालेधन का परिमाण 70 लाख करोड़ बताया था, तो पूर्व सीबीआइ डायरेक्टर के मुताबिक यह 500 अरब डॉलर के बराबर है, जबकि लंदन के अर्थशास्त्री इसकी मात्र देश की जीडीपी (1.8 ट्रिलियन डॉलर) की आधी मानते हैं. सरकार प्रयास करती तो कालेधन के आकलन पर ऐसा घटाटोप नहीं होता.
इसी कारण सरकार की खिंचाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आजादी के बाद से अब तक विदेशी बैंकों में जमा कालेधन को वापस लाने के लिए उसने कभी पुरजोर प्रयास नहीं किया, वरना सरकारी प्रयासों की निगरानी के लिए एसआइटी गठन का आदेश नहीं देना पड़ता. एसआइटी की अगुवाई सुप्रीम कोर्ट के दो रिटायर्ड जज कर रहे हैं. सो कायदे से सरकार को उनके काम में सहयोग देना चाहिए था, लेकिन उसने एसआइटी के गठन के विरोध में ही कोर्ट में दलील दी. अदालत से लेकर सड़क तक जारी सक्रियता के बावजूद कालेधन की वापसी के मुद्दे पर विशेष कुछ होता नहीं जान पड़ता, इसलिए शंका तो यह भी होती है कि कहीं कालेधन के अस्तित्व और विस्तार को बनाये रखने से ही व्यवस्था चलानेवालों के हित तो जुड़े नहीं हैं!