।।डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
भारतीय अर्थव्यवस्था के मेरुदंड को इस्पात का बनाने के लिए मित्र देश सोवियत संघ की सहायता से जिन पांच इस्पात संयंत्रों को स्थापित किया गया था, उनमें बोकारो अन्यतम है. प्रारंभ में इसे चलाने के लिए पर्याप्त रूसी इंजीनियर यहां रहते थे. उनके अलावा विभिन्न राज्यों के योग्य जन यहां जुटे. उनके साथ उनका परिवार और उनके रीति-रिवाज, आचार-विचार मिल कर एक सांस्कृतिक संगम का निर्माण करने लगे और ‘यत्र विश्वं भवत्येक नीडम्’ का वैदिक उद्घोष शांति निकेतन के बाद यहीं आकार लेने लगा था. अरसे बाद पिछले दिनों विश्वग्राम बोकारो के भ्रमण का मौका मिला. धनबाद में मेरे पुराने मित्र हैं प्रशांत करण, जो एसएसपी होकर भी संवेदनशील कवि हैं. उनका आग्रह था चासनाला आने का. पहले धनबाद गौशाला के कवि सम्मेलन में मैं बहुत आता-जाता था. 1972 से मेरे गीत ‘धर्मयुग’ में छपने लगे थे. उसी आधार पर गौशाला के काव्यमर्मज्ञ संयोजक सत्य नारायण अग्रवाल ने पहली बार मुङो बुलाया था. स्टेशन पर जब मैं उतरा, तो अग्रवाल जी कुर्ते पर बैज लगा कर खड़े थे. उन्होंने पूछा-आप मिश्रजी हैं? मैंने कहा-जी हां. उन्होंने पूछा-मगर आपके पिताजी कहां रह गये? मैंने कहा-वे यहां क्यों आयेंगे? अग्रवाल जी हैरान हो गये- तो क्या आप ही बुद्धिनाथ मिश्र हैं? मैंने कहा-जी हां. अग्रवाल जी ने कहा-क्षमा कीजियेगा. आपका नाम बुजुर्ग जैसा है और आपकी ख्याति भी आपकी उम्र से बहुत ज्यादा है. इसलिए मुङो लगा कि आप पिताजी के साथ आये हैं. उस दिन जब प्रशांत जी धनबाद स्टेशन पर लेने आये, तो वह घटना याद आ गयी.
बोकारो में केवल इस्पात का ही उत्पादन नहीं होता है, बल्कि वहां भरपूर साहित्य-सृजन भी होता है. मेरी बनारस की साहित्यिक बहन, सुप्रसिद्ध कथाकार प्रतिमा वर्मा की पुत्री भावना अपनी मां के संस्कार लेकर यहां अप्रतिम प्रकाशन के माध्यम से बहुत काम कर रही है. उसके साथ कई रचनाकार जुड़ कर कुछ नया लिखने का प्रयास कर रहे हैं. मेरे मना करने पर भी भावना और उसके प्रेमी पति अतनु सरकार स्वयं कार लेकर धनबाद आ गये थे. भावना के घर पर नये-पुराने रचनाकारों की जमघट, उनका उत्साह और उनके सकारात्मक कार्यो ने मुङो बहुत प्रभावित किया. अपनी कहानियों को अपने मामाजी को सुनाने का उसका भावुकतापूर्ण आग्रह देख कर मैं मुग्ध था.
हर गांव में पहले एक रामचबूतरा हुआ करता था, जिसकी चहल-पहल गांव के जाग्रत होने की पहचान थी. यदि बोकारो विश्वग्राम है, तो उसका रामचबूतरा भी होना चाहिए. यह भूमिका वहां के वरिष्ठतम रचनाकार पंडित विद्यानंद झा निभा रहे हैं. उनसे मेरी पहली भेंट रायपुर में एक आयोजन में हुई थी. उन्होंने जिस वत्सल भाव से मुङो अजस्र स्नेह दिया कि मेरे लिए वे पिता की भांति श्रद्धेय हो गये. 75 साल के झा जी 15 साल पहले बिहार सरकार के संयुक्त सचिव पद से सेवा-निवृत्त हुए थे, मगर उनकी लेखनी आज भी दिन-रात चल रही है. पिछले दिनों उनका विशद ग्रंथ ‘भारत का संविधान-एक विेषण’ छप कर आया है. इससे पूर्व मिथिला, मिथिलांचल के लोकगीत, भदुली की भद्रकाली, सांख्य दर्शन, कपिल मुनि के दर्शन आदि विषयों पर लिखित उनके ग्रंथ विद्वत समाज में समादृत हुए हैं. वे भारत सरकार के संस्कृति मंत्रलय में हिंदी और मैथिली के भाषा विशेषज्ञ हैं. इसके अलावा केंद्रीय साहित्य अकादमी और भाषा संस्थान, मैसूर से भी जुड़े हैं. उन्होंने अपने अधिकार का प्रयोग हमेशा दूसरों के हित के लिए ही किया. बोकारो जाने का एक आकर्षण उनसे मिलना भी था. उस समय वे थोड़े अस्वस्थ थे, मगर मुङो देख कर वे भावावेश में उठ बैठे. सरकारी सेवा में आने के बाद से वे अधिकतर झारखंड के इसी क्षेत्र में रहे. इसलिए सेवा-निवृत्ति के बाद मिथिलांचल स्थित अपने गांव न जाकर रहने लगे. बेटी ममता उनके लिए बुढ़ापे की छड़ी है. (मुहावरा तो ‘बुढ़ापे की लाठी’ है, मगर उस दुबली-पतली को मैं किस मुंह से लाठी कहूं!) वैसे वह पेशे से एडवोकेट है और दामाद डीआइजी पुलिस हैं. झा जी के घर के बाहर फूस का एक बड़ा-सा बैठकखाना है. उनका लिखना-पढ़ना और प्रकृति के साथ संलाप वहीं होता है. ममता के सौजन्य से मैंने उनकी अधिकतर किताबें प्राप्त कर लीं. यह परिवार हमेशा बाहर रह कर भी मधुबनी के विष्णुपुर (अड़ेर) गांव के संस्कारों को नहीं भूला. उनके पिता पंडित बलभद्र झा स्वयं काशी के धौत परीक्षोत्तीर्ण प्रख्यात विद्वान थे.
बातों-बातों में ही भदुली की भद्रकाली की चरचा चली. अपनी सहज आस्तिकता के कारण झा जी ने इस क्षेत्र का पर्याप्त भ्रमण और शोध किया है. उन्होंने बताया कि दुर्गा सप्तशती में वर्णित राजा सुरथ और वैश्य समाधि ने यहीं भदुली में सुमेधा ऋषि के आश्रम में तपस्या की थी. यह आश्रम गुरुकुल की परंपरा के अनुसार वेदाध्ययन का प्रमुख केंद्र रहा, मगर आज यहां एक संस्कृत विद्यालय तक नहीं है. यहां से बारह कोस पर कोल्हुआ पहाड़ है, जहां राजा सुरथ के किले के अवशेष आज भी विद्यमान हैं. किले के सम्मुख पहाड़ पर अति प्राचीन सरोवर है, जिसमें कमल खिले रहते हैं. यह स्थान सनातन धर्म के अलावा बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायियों के लिए भी तीर्थ-स्थल है. पास में निरंजना नदी बहती है, जो गया जाकर पुनपुन कहलाती है. झा जी जब 1968 में इटखोरी के प्रखंड विकास अधिकारी बने, तो सबसे पहले भदुली में भद्रकाली के दर्शन करने गये और उस कच्चे मंदिर में महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी की अद्भुत प्रतिमा देख कर इतने अभिभूत हुए कि प्रतिदिन वहां जाकर पूजा करने लगे. इस अद्वितीय प्राचीन मूर्ति को इनके समय में तीन बार मूर्तिचोरों ने चुराने की कोशिश की, मगर किसी न किसी प्रकार मूर्ति वापस आ गयी. तीसरी बार तो इस मूर्ति को चोर कलकत्ता ले जाकर एक सेठ को बेच आये, मगर झा जी ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर तत्परता से स्वयं इसे उस सेठ से बरामद किया. उसके बाद इन्होंने स्थानीय लोगों की कारसेवा से एक भव्य मंदिर बनवा कर सभी मूर्तियों को विधिवत मंत्रोच्चार के साथ पुनस्र्थापित किया. उस दिन से इस क्षेत्र के लोग इन्हें देवदूत मानने लगे, क्योंकि कोई प्रशासनिक अधिकारी अपने समाज की आस्था को इतनी गहराई से स्पर्श नहीं करता. झा जी को खेद है कि देश के प्रमुख शक्तिपीठ के रूप में भदुली का जैसा विकास होना चाहिए, नहीं हुआ. जब वे उपायुक्त (परिवहन) थे, तब उन्होंने भदुली के लिए बस चलवायी थी. वह भी आज बंद है. ऐसे में बाहर के लोग आखिर कैसे वहां पहुंचें!