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मंदी की आहट! : संकट चीन में, लेकिन : चिंता भारत में भी

चीन के शेयर बाजार में जून से जारी गिरावट और इसे थामने की विफल होती कोशिशों का असर बीते सोमवार को पूरी दुनिया के शेयर बाजारों में ऐतिहासिक गिरावट के रूप में दिखा.हालांकि बीते दो दिनों से भारत सहित कई देशों के शेयर बाजारों में गिरावट का सिलसिला थमा है, लेकिन 2008 की तरह की […]

चीन के शेयर बाजार में जून से जारी गिरावट और इसे थामने की विफल होती कोशिशों का असर बीते सोमवार को पूरी दुनिया के शेयर बाजारों में ऐतिहासिक गिरावट के रूप में दिखा.हालांकि बीते दो दिनों से भारत सहित कई देशों के शेयर बाजारों में गिरावट का सिलसिला थमा है, लेकिन 2008 की तरह की वैश्विक मंदी की संभावना पर अर्थशास्त्रियों के बीच बहस तेज हो गयी है. मंदी की इस आहट के बीच भारत के लिए सबक और चुनौतियों पर नजर डाल रहा है यह विशेष.

चीन की मंदी में भारत के लिए कई सबक

शंकर अय्यर

(आर्थिक मामलों के जानकार)

चीन की अर्थव्यवस्था में गिरावट के संकेतों के बीच वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी कई ऐसे मुद्दे हैं, जो विकास को प्रभावित कर रहे हैं. अक्सर देखा गया है कि जब अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं होती है, तब निवेशक खतरा मोल लेने की बजाय पैसा सुरक्षित जगह पर लगाना चाहते हैं.

आज चीन में न सिर्फ विकास दर कम हो रही है, बल्कि आर्थिक मोरचे के अन्य पहलुओं पर पर भी उसकी स्थिति अच्छी नहीं दिख रही है. चीन के औद्योगिक उत्पादन में गिरावट आने के साथ ही निवेश और आयात पर असर पड़ा है.

इस कारण चीन के शेयर बाजार में गिरावट देखी जा रही है. अमेरिका में 2008 में आयी आर्थिक मंदी का प्रमुख कारक हाउसिंग क्षेत्र था. मौजूदा समय में चीन के हाउसिंग सेक्टर के हालात भी वैसे ही है.

आज चीन की अर्थव्यवस्था मंदी का शिकार होती दिख रही है. चीनी सरकार द्वारा अपनी मुद्रा के अवमूल्यन के बावजूद शेयर बाजार में आ रही गिरावट से साफ जाहिर होता है कि विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का संकट अनुमान से अधिक गंभीर है. चीनी सरकार की विकास दर बढ़ाने की नीति रोजगार पैदा करने पर आधारित रही है. चीन सार्वजनिक खर्च को बढ़ा कर इस लक्ष्य को हासिल करता रहा है.

लेकिन, आज वहां बहुत से प्रोजेक्ट की हालत दयनीय है, क्योंकि उसके उत्पाद का खरीदार नहीं मिल रहा है. इससे मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर के शेयरों में भारी गिरावट आयी है.

भारत की तुलना में शेयर बाजार में चीन के लोगों की हिस्सेदारी काफी अधिक है. ऐसे में शेयर बाजार में गिरावट से वहां बड़े पैमाने पर लोगों की आय पर असर पड़ा है. भारत को चीन की इस गलती से सबक लेते हुए विनिर्माण क्षेत्र के असंतुलित विकास से बचने की कोशिश करनी चाहिए.

भारत में भी रियल्टी सेक्टर की स्थिति अच्छी नहीं है. इस क्षेत्र के विकास से रोजगार के अवसर तो पैदा होंगे, लेकिन अगर इस क्षेत्र में मंदी आती है तो सिर्फ रोजगार पर ही नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों पर भी इसका असर होता है.

दूसरा, चीन पिछले दशकों में निर्यात को बढ़ा कर उच्च विकास दर हासिल करने में सफल रहा है. चीन ने अपने सस्ते श्रम बाजार का फायदा उठा कर, विश्व को वर्कफोर्स मुहैया करानेवाला सबसे बड़ा देश बन गया. ऐसे में जब वैश्विक बाजार में मांग कम होने लगी, तो इसका सीधा असर वहां की अर्थव्यवस्था पर पड़ा.

जाहिर है, भारत को अगर विकास के रास्ते पर आगे बढ़ना है तो सिर्फ निर्यात को बढ़ावा देने से काम नहीं बननेवाला है, बल्कि घरेलू आर्थिक स्थिति को मजबूत कर विकास करना होगा. इसके लिए शहरीकरण को बढ़ावा देने के साथ ही रोजगार सृजन और बाजार की भूमिका को भी सशक्त करना होगा.

चीन में आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिए वहां के बैंकों ने बड़े पैमाने पर कर्ज दिया. अब मांग कम होने के कारण बैंकों का एनपीए काफी बढ़ गया है. इससे चीन की अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ गया है. भारत में भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए काफी अधिक है.

चीन से सबक लेते हुए भारत को बैंकों के एनपीए को कम करने के उपाय करने चाहिए. बैंकों को वैसी ही योजनाओं के लिए कर्ज देना चाहिए, जो जरूरी और विकास के को आगे ले जाने वाले हों.

वर्ष 2008 में आयी वैश्विक मंदी के दौरान देखा गया कि डॉलर की कीमत काफी कम हो गयी. लेकिन आज मंदी की आहट के बीच डॉलर मजबूत स्थिति में हैं.

जब डॉलर मजबूत होता है, तो कमोडिटी की कीमतें कम हो जाती है. चीन बहुत बड़ा उपभोक्ता देश है, लेकिन आर्थिक विकास दर में कमी के कारण कच्चे तेल से लेकर तांबा और लौह अयस्क के मांग में कमी आयी है.

कच्चे तेल की कम होती कीमतों से भारत को फायदा होगा. लेकिन चीन में मंदी की आहट ऐसे समय आयी है, जब ग्रीस का संकट खत्म नहीं हुआ है और अमेरिका का फेडरल रिजर्व ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी करने वाला है.

फिलहाल भारत के लिए अच्छी बात है कि चीन संकट से निवेशक भारत की ओर रुख करेंगे, क्योंकि भारत की आंतरिक अर्थव्यवस्था की स्थिति मजबूत है और यहां इंफ्रास्ट्रर से लेकर निर्माण क्षेत्र में विकास की काफी संभावना है. अगर भारत में मॉनसून अच्छा रहा तो ग्रामीण क्षेत्र में मांग में तेजी आना तय है.

इसके लिए आर्थिक सुधार की गति को तेज करना होगा. निवेश को आकर्षित करने के लिए सरकार को आर्थिक सुधार के साथ ही नीतियों के क्रियान्वयन में तेजी लानी होगी. अगर जीएसटी विधेयक को समय पर लागू कर दिया जाये, तो आर्थिक विकास को गति मिलना तय है.

इसलिए जीएसटी सहित आर्थिक सुधार के अन्य कदमों पर होनेवाली राजनीति से आगे बढ़ते हुए सरकार को आम सहमति बनानी होगी. भूमि अधिग्रहण भी देश में एक जटिल और राजनीतिक मुद्दा है.

इन सबके बावजूद अगर देश में विकास की दर और रोजगार को बढ़ाना है, तो इसके रास्ते भी तलाशने ही होंगे.

(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)

चीन न होने की खुशी!

अरुण कुमार त्रिपाठी

(वरिष्ठ पत्रकार एवं वैकल्पिक आर्थिक सव्रे समूह से जुड़े हैं)

जो भारतीय नेता, नीतिकार और उद्योगपति इस बात से चिंतित थे कि काश! हम चीन हो पाते, या हम चीन नहीं हुए, वे आज इस बात से खुश हैं कि अच्छा हुआ हम चीन नहीं हुए.

भारतीय मीडिया उसी तरह अपनी स्थिति को मजबूत बताने में लगा है, जिस तरह किसी तानाशाह देश का मीडिया सदैव अपनी सरकार को लोकप्रिय और जनसमर्थक बताता रहता है. एक प्रकार से अपनी स्थिति को मजबूत बताने के लिए आंकड़ों, ग्राफिक्स और विेषणों और बयानों की बारिश हो रही है.

जबकि हकीकत यह है कि चीन के शेयर बाजार में आयी जबरदस्त गिरावट का पूरी दुनिया पर असर पड़ा है और विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ भारत भी उससे अछूता नहीं है. जिसे राहत और खुशी की बात बताया जा रहा है, वह यह है कि भारत को उतना नुकसान नहीं हुआ है जितना दुनिया के अन्य देशों को हुआ है.

आंकड़े बता रहे हैं कि चीन के संकट के कारण दुनिया के शेयर बाजार को 12 खरब डालर का नुकसान हुआ है जिसमें चीन का हिस्सा 41 प्रतिशत, अमेरिका का हिस्सा 21 प्रतिशत, हांगकांग का 14 प्रतिशत, जबकि भारत का महज 3.7 प्रतिशत है. हालांकि भारत के अपने पूंजी बाजार का यह नुकसान 16 फीसदी है.

भारत का शेयर बाजार 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की भारी जीत के साथ तेजी से उठा और इसकी गणना दुनिया के दस बड़े शेयर बाजारों में होने लगी.

लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था की उम्मीद सिर्फ नरेंद्र मोदी जैसे मजबूत नेतृत्व और स्थिर सरकार के उभरने से नहीं बनी है, वह इस बात से भी बनी है कि भारत दुनिया के अन्य देशों के साथ चीन से भी घनिष्ठ व्यापारिक रिश्ते बना रहा है.

यह रिश्ते बाजार और उद्यमियों के स्तर पर तो लंबे समय बन रहे हैं, लेकिन सरकार के स्तर पर इसमें नरेंद्र मोदी के आने से तेजी आयी है. इसलिए चीन के इस संकट का हम पर कितना असर पड़ेगा, इसके बारे में किसी भी झूठे और एकतरफा आकलन से बचने की जरूरत है.

चीन के संकट पर दो नजरिया

चीन की स्थितियों के बारे में दो विश्लेषण चल रहे हैं. एक विेषण तो साफ तौर पर कह रहा है कि यह संकट 2007-2008 के संकट जैसा ही है और इसका असर जब पूरी दुनिया पर पड़ेगा तो भारत भी बच नहीं पायेगा. अगर चीन की विकास दर 8-10 प्रतिशत से घट कर 3 से 5 प्रतिशत के बीच आती है, तो भारत कैसे 8 प्रतिशत से ऊपर की विकास दर हासिल कर सकता है, उसके भी तीन से चार प्रतिशत तक आने की आशंका है.

यह बात जरूर है कि भारत में राजनीतिक स्थिरता और मुद्रास्फीति के एक हद तक काबू में होने के कारण वह उसी प्रकार किसी बड़े संकट को ङोल लेगा जैसे 2008-2010 के दौरान ङोल लिया गया था. चीन के इस आसन्न संकट के बारे में कई विशेषज्ञ पहले से ही भविष्यवाणी कर रहे थे. उनका यह भी कहना था कि विकास की जिस ऊंची दर को चीन लेकर चल रहा है उसे कायम रख पाने का कोई आर्थिक इतिहास है नहीं. इसलिए उस दर का पतन तो होना ही है.

चीन के संकट के बारे में दूसरी बात जो कही जा रही है, वह यह है कि वास्तव में चीन में कोई बड़ा आर्थिक संकट आया ही नहीं है. वहां बाजार में जो कुछ हो रहा है वह एक प्रकार का संशोधन या संयोजन है.

चीन का बाजार बहुत ज्यादा चढ़ा हुआ था, इसलिए उसे नीचे तो आना ही था. इसी प्रकार जायदाद के दाम भी बहुत चढ़े हुए थे, उन्हें भी नीचे आना था.

इसके अलावा चीन ने अपनी मुद्रा के अवमूल्यन के माध्यम से निर्यात की जो धूम मचा रखी थी, वह तभी तक चल सकती थी जब तक दुनिया में उसके माल की मांग बनी रहे. अंतरराष्ट्रीय बाजार में मांग घटने के साथ चीन को अपनी ज्यादा गर्म हो चुकी अर्थव्यवस्था को थोड़ा विराम भी देना था. ऐसे में मौजूदा परिवर्तन कोई अचानक आया हुआ परिवर्तन नहीं है, बल्कि चीन की सरकार और उसके आर्थिक विशेषज्ञों को इसका अनुमान पहले से था.

बल्कि बाजार के विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि शेयर जो भी गिरे हैं वे कोर सेक्टर के नहीं, बल्कि वित्तीय क्षेत्र और बैंकिंग क्षेत्र के गिरे हैं. इसका मतलब है कि चीन के बुनियादी क्षेत्रों की सेहत अब भी ठीक है.

इसके अलावा यह विश्वास भी बना हुआ है कि जब तक डॉलर की स्थिति मजबूत है, तब तक चीन क्या, पूरी दुनिया में मुद्रा का बड़ा संकट नहीं बननेवाला है.

भारत के लिए चुनौती भी हैं और अवसर भी

यह स्थितियां भारत के लिए चुनौती भी हैं और अवसर भी. चुनौती इसलिए कि भारत जिस चीन के विकास को आदर्श मान कर, उसकी आलोचना करते हुए भी, उसे अपनाने में लगा हुआ था, उसे भी इसका झटका ङोलना पड़ेगा और अपनी दिशा बदलनी होगी.

हालांकि भारत पर चीन की तरह जीडीपी के 300 फीसद तक कर्ज नहीं हैं और न ही वह अपनी मुद्रा के साथ फर्जी अवमूल्यन का वैसा खेल खेल रहा है जैसा चीन खेलता है. भारत के आंकड़े उस प्रकार से दिखावटी और फर्जी नहीं हैं, जिस प्रकार चीन के अधिनायकवादी शासन में तैयार किये जाते हैं.

भारत के सामने अवसर इस लिहाज से भी है कि फिलहाल चीन और भारत ही दो देश ऐसे हैं, जहां पर वैश्वीकरण का न तो भयानक पतन हुआ है, न ही उसके दुष्परिणाम सामने आये हैं.

इन देशों में न तो दक्षिण पूर्व एशियाई देशों जैसा नब्बे के दशक के मध्य का संकट आया और न ही लातिन अमेरिकी देशों जैसी दिक्कत. यहां अमेरिका, यूरोप, विशेषकर स्पेन, ब्रिटेन या यूनान, जैसा संकट भी नहीं आया.

चीन ने तो राज्य समर्थिक निवेश के माध्यम से शेयर बाजार को संभाल लिया और ढांचागत क्षेत्रों में निवेश करके आर्थिक गति को बनाये रखा.

आज शेयर बाजार में जो कुछ हो रहा है, वह उसी अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप का परिणाम है. देखना है कि चीन उसे पहले वाले तरीके से कायम रखता है या उसे उसकी स्वाभाविक गति पर छोड़ देता है.

उसी तरह भारत में भी यूपीए की सरकार को इस बात का श्रेय जाता है कि उसका दूसरा कार्यकाल वैश्विक मंदी के ही दौर में शुरू हुआ और उसने कोई बड़ी बदहाली नहीं आने दी. शायद इसकी वजह भारत के वित्तीय क्षेत्र को यूरोप और अमेरिका जैसी छूट न होने और केंद्रीय बैंक की विश्वसनीय भूमिका भी रही है.

इस लिहाज से चीन के लड़खड़ाने के साथ भारत पर वैश्वीकरण को कायम रखने और सफल होते दिखाने का दारोमदार है. भारत को निर्यात आधारित वृद्धि और संपत्ति तथा पूंजी बाजार को फर्जी प्रकार से बढ़ाने से बचते हुए, अपनी बैंकिंग से लेकर दूसरी वित्तीय और औद्योगिक संस्थाओं को दुरुस्त करना होगा. लेकिन, यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि चीन का संकट फर्जी और तात्कालिक है या दीर्घकालिक? अहम सवाल यह भी है कि क्या उस संकट का असर चीन की राजनीतिक स्थिरता पर भी पड़ेगा या वहां चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की पहले जैसी पकड़ कायम रहेगी? क्या 1989 के थियेनआन मन चौक के राजनीतिक संकट को ङोल लेनेवाला चीन फिर वैसे किसी संकट का सामना करेगा या वैसा कुछ नहीं होगा?

भारत के पक्ष में तथ्य

1. चीन की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर धीमी हो रही है जबकि भारत की बढ़ रही है. 2014 में चीन की वृद्धि दर 7.4 फीसदी थी, तो भारत की 7.3 फीसदी. 2015 में चीन की विकास दर 6.8 और भारत की 7.5 फीसदी, जबकि 2016 में चीन की 6.3 तो भारत की 7.5 फीसदी संभावित है. (स्नेत : अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष)

2.सन् 2007 से 2014 के बीच चीन के कर्ज में 101 फीसदी की वृद्धि हुई है, तो भारत के कर्ज में महज 5 फीसदी की. इसका मतलब है कि भारत को अपनी वृद्धि दर को तेज करने के लिए कर्ज लेने की काफी गुंजाइश है, जबकि चीन ने वह गुंजाइश घटा दी है.

3.चीन में अतिरिक्त निवेश का प्रवाह भारत से ज्यादा है, इसलिए वह सरकारी निवेश को और ज्यादा बढ़ा नहीं सकता. सन् 2010 से 2014 के बीच चीन ने अपने जीडीपी का 47.2 से 46 प्रतिशत अतिरिक्त निवेश किया. जबकि भारत में यह प्रतिशत 36.5 से 31.6 के बीच है.

4.चीन में कामकाजी आबादी का औसत गिर रहा है. पंद्रह वर्ष से 59 वर्ष के बीच की यह आबादी, जो 2015 में चीन की रीढ़ मानी जाती है, 2050 तक भारत से पीछे छूट जायेगी और तब चीन में सस्ता श्रम मिलना कठिन होगा और उसकी उत्पादन क्षमता घटेगी.

5.चीन में घरेलू उपभोग का प्रतिशत भारत से कम है. चीन में जीडीपी पर यह 49.6 फीसदी है, तो भारत में 70.4 फीसदी है. यह खपत एक आर्थिक झटके को ङोलने का काम करती है.

6.चीन में जायदाद के दाम तेजी से गिरे हैं. जायदाद के दाम बढ़ने की दर शून्य से नीचे -5 से -6 फीसदी तक चली गयी है. भारत में भी जायदाद के दाम गिरे हैं, लेकिन फिलहाल चीन जैसी चिंता की स्थिति नहीं है.

7.चीन में अपस्फीति का खतरा मंडरा रहा है. वहां चीजों के दाम गिर रहे हैं और यह उनके उत्पादन को प्रभावित कर सकता है.

जबकि भारत अभी मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में लगा है और उसके स्थिर होने के साथ वह ब्याज दरें घटा कर अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करेगा.

भारतीय शेयर बाजार पर संभावित असर

– सोमवार को शेयर बाजार में हुई ऐतिहासिक गिरावट के बाद, अगले ही दिन से इसमें सुधार के संकेत मिलने लगे हैं. गुरुवार को दिन के कारोबार में मुंबई स्टॉक एक्सचेंज का सेंसेक्स 26 हजार के पार और निफ्टी सूचकांक आठ हजार के करीब पहुंच गया. रुपये में भी सुधार के सकारात्मक रुख है. विश्लेषकों की मानें, तो आगे भी यह सुधार जारी रहेगा, भले ही उसकी गति धीमी हो.

– वैश्विक वित्तीय चिंताओं के मद्देनजर अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा सितंबर में ब्याज दरों को बढ़ाने की संभावना कम होने के एक उच्चाधिकारी के बयान ने भारतीय निवेशकों में यह उम्मीद जतायी है कि रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कटौती कर सकता है. इस संभावना ने शेयर बाजार में उत्साह का संचरण किया है. रिजर्व बैंक 29 सितंबर को नीतिगत समीक्षा बैठक करेगा.

– अगर अमेरिकी फेडरल रिजर्व ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर देता है, तो उभरते हुए बाजारों से, जिनमें भारत भी शामिल है, निवेश निकलना शुरू हो जायेगा. इस स्थिति में वैश्विक वित्तीय बाजारों का संकट और गहरा हो जायेगा.

– संकट की स्थिति में भले ही मुद्रा भंडार के इस्तेमाल की बात रिजर्व बैंक के गवर्नर ने खी है, पर ब्याज दरों में कटौती के लिए पहले ही उन्होंने मुद्रास्फीति में कमी की शर्त रख दी है. उन्होंने यहां तक कह दिया है कि कुछ लोगों द्वारा सार्वजनिक रूप से मांग भर करने से दरों में कटौती नहीं की जा सकती है. ऐसे में शेयरों में मजबूती धीमी रह सकती है.

– मंगलवार को चीन द्वारा उठाये गये नीतिगत पहलों के फलस्वरूप चीनी बाजार में भी सुधार के लक्षण हैं, जिनसे भारत समेत अन्य बाजारों को राहत मिली है.

परंतु, शेयर बाजार में स्थिरता के लिए सबसे जरूरी है कि विदेशी निवेशक अपने स्टॉक बेचने की गति कम रखें. बंबई स्टॉक एक्सचेंज की बड़ी 200 कंपनियों में करीब 25 फीसदी निवेश विदेशी संस्थागत निवेशकों का है.

भारतीय रुपये और मुद्रा भंडार पर असर

– वैश्विक आर्थिक विकास का शिथिल होना मूल समस्या है. चीन की वृद्धि दर कम हो रही है और इसके झटके दुनियाभर के बाजारों में देखे जा रहे हैं. अमेरिका में स्थिरता है, पर अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं अच्छी स्थिति में नहीं हैं.

ऐसे में चीनी मुद्रा युआन का अवमूल्यन वैश्विक स्तर पर नकारात्मक असर डाल रहा है और आगे भी डालेगा. इसका असर रुपया पर भी पड़ेगा.

– अनेक जानकारों का मानना है कि इस समय स्थिति अगस्त, 2013 की तुलना में अधिक बुरी दशा में है. तब रुपये की कीमत 68.85 रुपये प्रति डॉलर तक पहुंच गयी थी.

लेकिन, इस समय चीन सबसे बड़ा मुद्दा है. साथ ही, भारतीय अर्थव्यवस्था बेहतर दशा में है. ऐसे में रुपये में बहुत गिरावट होने की संभावना नहीं है. इसमें मई के महीने से अब तक 13 फीसदी की गिरावट पहले ही हो चुकी है.

– विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री और भारत सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु के अनुसार भारत का 354 बिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार गंभीर संकट की स्थिति में पर्याप्त नहीं है.

उल्लेखनीय है कि चीन के पास चार ट्रिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है. सोमवार को स्टॉक मार्केट में भारी गिरावट के बाद रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था कि 355 बिलियन डॉलर (अंतिम गिनती तक) और बिक्रियों से हासिल 25 बिलियन डॉलर के भंडार का उपयोग जरूरी होने पर किया जा सकता है.

लेकिन, कौशिक बसु का मानना है कि अभी प्रतिस्पर्धात्मक स्तर पर मुद्रा के अवमूल्यन का समय नहीं है और हमारा ध्यान अधिक मुद्रा भंडारण पर केंद्रित होना चाहिए.

दूसरी ओर, बाजार के कुछ जानकारों की राय है कि कुछ मात्र में ही सही, अब डॉलर बेचने का समय आ गया है. रुपये और डॉलर के संबंध सुधरेंगे और रुपये की कीमत मौजूदा स्तर से बेहतर होगी. इसमें लगातार गिरावट नहीं हो सकती है और एक उच्च स्तर तक जाकर यह स्थिर होगा.

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