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विश्व राजनीति के दावं-पेच में चित हुआ कच्‍चा तेल

भारत गंभीर आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा है. रुपये में कमजोरी लगातार बनी हुई है. इसकी बड़ी वजह यह है कि व्यापार घाटा काबू में नहीं आ रहा है. शुक्र है कि कच्चे तेल की कीमतों में बड़ी गिरावट आ चुकी है, अन्यथा भारत के लिए वित्तीय संकट और गहरा हो जाता. भारत दुनिया के […]

भारत गंभीर आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा है. रुपये में कमजोरी लगातार बनी हुई है. इसकी बड़ी वजह यह है कि व्यापार घाटा काबू में नहीं आ रहा है. शुक्र है कि कच्चे तेल की कीमतों में बड़ी गिरावट आ चुकी है, अन्यथा भारत के लिए वित्तीय संकट और गहरा हो जाता. भारत दुनिया के सबसे बड़े तेल आयातकों में शामिल है. वह अपनी जरूरत का 85 फीसदी कच्च तेल आयात करता है. वित्तीय वर्ष 2013-14 में भारत ने 95 अरब डॉलर का तेल आयात किया, जो उसके कुल आयात बिल का 21 फीसदी और व्यापार घाटे का 64 फीसदी रहा. एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय बैंक, डायचे बैंक का अनुमान है कि कच्चे तेल में प्रति बैरल 10 डॉलर की गिरावट आने पर भारत के तेल आयात बिल में 10 अरब डॉलर और तेल सब्सिडी में 5.6 अरब डॉलर की कमी आती है. आर्थिक विश्लेषकों का दावा है कि कच्चे तेल के भाव में 25 डॉलर की गिरावट भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए 10 अरब डॉलर के प्रोत्साहन पैकेज के बराबर है. कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट मोदी सरकार के लिए एक सुनहरा मौका है. वित्तीय संकट के दलदल में फंसी अर्थव्यवस्था की गाड़ी बाहर निकालने का. महंगाई की मार ङोल रही जनता को राहत पहुंचाने का. मोदी सरकार इसमें कितना सफल या विफल होती है, यह चर्चा बाद में कभी. अभी हम बात करेंगे कि आखिर कच्च तेल लगातार नीचे क्यों जा रहा है. इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय राजनीति क्या है.

सेंट्रल डेस्क

आज दुनिया कई खित्तों में बड़ी टकराहटों और तनावों से गुजर रही है. मध्य-पूर्व में बड़े पैमाने पर उथल-पुथल चल रही है. सीरिया, इराक में चरमपंथी संगठनों के साथ वहां की सरकारों और अन्य जातीय समुदायों का भीषण संघर्ष छिड़ा हुआ है. ईरान और सऊदी अरब अलग-अलग पैंतरों से एक-दूसरे को चित करने में लगे हैं. यूक्रेन को लेकर रूस का टकराव पूरी पश्चिमी दुनिया के साथ बढ़ चुका है. यकीनन, ये तनाव और टकराहटें दुनिया में अमन-चैन के लिए खतरा हैं. लेकिन, इन सबका एक सकारात्मक पहलू भी सामने आया है, खास कर भारत के लिए. यह है, कच्चे तेल की कीमतों में बड़ी गिरावट. जून में कच्च तेल 115 डॉलर प्रति बैरल था, जो अब 60 डॉलर तक पहुंच गया है. लेकिन इसने कई देशों के नेताओं के माथे पर बल भी डाल दिये हैं.

कई तेल निर्यातक देशों की परेशानी बढ़ी

तेल निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) के अहम सदस्य सऊदी अरब ने साफ संकेत कर दिया है कि वह अभी तेल की गिरती कीमतों को थामने का प्रयास नहीं करेगा. इससे ईरान, रूस, वेनेजुएला, लीबिया और नाइजीरिया खासे परेशान हैं, क्योंकि इनकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह पेट्रोलियम निर्यात पर टिकी हुई है. तेल निर्यात के बूते नाइजीरिया ने सन 2008 में 20 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार बना लिया था. अब यह घट कर सिर्फ 4 अरब डॉलर रह गया है.

फरवरी, 2015 में नाइजीरिया में चुनाव होने वाले हैं. तेल की वजह से पैदा हुआ आर्थिक संकट राष्ट्रपति गुडलक जोनाथन को परेशानी में डाल सकता है. वेनेजुएला भी दिक्कत में है. तेल में कीमतों में इसी तरह गिरावट बनी रही, तो वहां विरोध प्रदर्शनों और दंगों-फसाद के कारण राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो सकती है. अगर एक साल पहले की बात होती, तो उसे मास्को से मदद मिल सकती थी. लेकिन पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें गिरने से रूस खुद परेशानी में हैं. उसके बैंक संकट से जूझ रहे हैं. लोग महंगाई बढ़ने से नाराज हैं. पिछले दिनों जी-20 की बैठक में जाने से पहले रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा था कि सस्ता तेल रूस की अर्थव्यवस्था के लिए मुसीबत बन गया है. पिछले कुछ समय में उसको 30 अरब डॉलर का घाटा हो चुका है. अभी वेनेजुएला तेल से ही क्यूबा की भी मदद करता है. लेकिन अब उसके लिए यह कर पाना मुश्किल होता जायेगा.

सऊदी अरब सस्ते तेल के पक्ष में क्यों?

पिछले दिनों वियना में हुई ओपेक की बैठक में सऊदी अरब ने साफ कर दिया कि वह फिलहाल तेल उत्पादन में कटौती करने को तैयार नहीं है. कीमतें गिरें तो गिरें. सवाल है कि सऊदी अरब ऐसा कर क्यों रहा है. 1970 के दशक से ओपेक का दबदबा रहा है. तेल की कीमतें उनके हिसाब से चलती रही हैं. तेल की ऊंची कीमतों ने सऊदी अरब व कई अन्य खाड़ी देशों को निवेशकों के लिए काफी आकर्षक बना दिया. तेल के चलते ही अमेरिका इस इलाके में काफी दखल देने लगा.

दुनिया का लगभग आधा तेल उत्पादित करनेवाला ओपेक अब बिखरता दिख रहा है. तेल उद्योग से जुड़े लोगों का मानना है कि सऊदी अरब तेल की कीमतें इसलिए गिरने दे रहा है, ताकि अमेरिका के लिए ‘शेल गैस’ की खोज और उत्पादन एक महंगा सौदा हो जाये. सऊदी अरब में तेल की प्रति बैरल लागत 25 डॉलर से भी कम है. वहीं अमेरिका में यह प्रति बैरल कम से कम 50 डॉलर है. सऊदी अरब का प्रयास कहीं न कहीं तेल की कीमत को 60 डॉलर प्रति बैरल रखने का है, जिससे ‘शेल-क्रांति’ धराशायी हो जाये. तेल की गिरती कीमतों का एक कारण चीनी की धीमी पड़ी आर्थिक वृद्धि को भी बताया जा रहा है. 2010 में चीन की मांग में 12 फीसदी की बढ़त हुई थी, जबकि इस साल चीन की मांग में कोई बढ़त नहीं हुई है. जापान की आर्थिक वृद्धि में आयी कमी का असर भी तेल की मांग पर पड़ा है. मांग में कमी के बावजूद ओपेक तेल उत्पादन में कटौती नहीं कर रहा है.

अन्य तेल उत्पादक देशों के उलट, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), कतर और कुवैत इस हालत में हैं कि वे अमेरिकी शेल गैस के उत्पादन को रोकने के लिए तेल की कीमतें गिरने दें. क्योंकि इन देशों में तेल निकालना सस्ता है और इनके पास अब भी भारी मात्र में वित्तीय भंडार मौजूद है. सऊदी अरब के पास 741 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है और पिछले वित्तीय वर्ष में उसे 15 अरब डॉलर की कमाई हुई. सऊदी अरब अगले कुछ सालों तक, तेल की कम कीमतों की वजह से उत्पन्न बजट घाटे की भरपाई करने में सक्षम है. लीबिया को अपने देश का बजट संभालने के लिए तेल का भाव 184 डॉलर प्रति बैरल चाहिए, ईरान को 130 डॉलर, लेकिन कुवैत का काम सिर्फ 54 डॉलर से चल सकता है. सऊदी अरब, कुवैत वगैरह के पास यह जो गुंजाइश है, वह अब एक बड़े राजनीतिक खेल का हिस्सा बन चुकी है.

कम कीमतों के जरिये ईरान को बनाया जा रहा निशाना

सऊदी अरब पिछले एक साल से इस बात को लेकर खिन्न है कि अमेरिका उसे उचित तवज्जो नहीं दे रहा. पश्चिम एशिया में वही अमेरिका का सबसे अहम सहयोगी होने की हैसियत रखता है, यह बात वह तेल के जरिये अमेरिका को दिखाना चाहता है. 70 के दशक में सऊदी तेल मंत्री, शेख अहमद यमनी ने शेखी बघारते हुए कहा था, ‘‘दुनिया हमारे इशारे पर नाचती है.’’ तब ओपेक ऊंची कीमतों से ताकतवर बना था. अब सऊदिये तेल की कम कीमतों के जरिये अपने चिर-प्रतिद्वंद्वी ईरान को काबू में लाने की कोशिश कर रहे हैं. वे तेहरान को अपने परमाणु कार्यक्रम में कमी लाने को राजी करने के लिए मजबूर कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि आर्थिक रूप से कमजोर ईरान पश्चिम के सामने घुटने टेक देगा और परमाणु संधि पर हस्ताक्षर कर परमाणु हथियार बनाने की अपनी जिद छोड़ देगा. इस बिंदु पर सऊदी अरब और अमेरिका में एका हो सकता है. इसके अलावा, तेल की कीमतें गिरने से रूस व वेनेजुएला पर जो दबाव बढ़ रहा है, वह भी अमेरिका को भा रहा होगा.

सऊदी अरब और ईरान में लाग-डांट का आलम यह है कि क्षेत्रीय चिंताओं से जुड़े हर मुद्दे पर ईरान के फायदे को सऊदी अरब के नुकसान के तौर पर देखा जाता है और शाही घराने में हड़कंप मच जाता है. सऊदी अरब को लगता है कि ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी उस निजाम का चेहरा हैं, जो मध्य-पूर्व में अपना असर मजबूत करना चाहता है और जो दुनिया की स्वीकार्यता हासिल करने के लिए बुरी तरह से बेकरार है. ईरान के परमाणु कार्यक्रम के अलावा सऊदी अरब मध्य-पूर्व के देशों तक उसकी पहुंच को लेकर अधिक परेशान है. इन सबके मद्देनजर ईरान से सीधे उलझने की बजाय उसकी जेब पर हमला करना सऊदी अरब को ज्यादा आसान लगा. ईरान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से पेट्रोलियम पर निर्भर है. 2013 में उसकी जीडीपी में 25 फीसदी योगदान तेल निर्यात से आया था. इसके अलावा, सीरिया और इराक में ईरान बड़ी रकम खर्च कर रहा है, ताकि उसके घर के भीतर शांति रहे.

काले बाजार में आइएसआइएस बेच रहा है तेल

तेल क्षेत्र से जुड़े जानकारों के एक अनुमान के मुताबिक, इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आइएआइएस) के आतंकवादी काले बाजार में कच्च तेल बेच कर एक दिन में 30 लाख डॉलर कमा रहे हैं (इराक सरकार का अनुमान 20 लाख डॉलर का है). ये तेल उन कुओं का है, जिन पर उन्होंने इराक और सीरिया में कई महीनों से कब्जा किया हुआ है. यह तेल औने-पौने दामों पर बेचा जा रहा है.

विश्लेषकों का मानना है कि आइएसआइएस अपने नियंत्रणवाले इलाकों का तेल अंतरराष्ट्रीय कीमतों के आधे से भी कम में बेच रहा है. माना जा रहा है कि वह तेल 25 डॉलर से लेकर 60 डॉलर प्रति बैरल तक के भाव पर बेच रहा है. आइएसआइएस जो ‘खिलाफत’ चला रहा है, उसकी वित्तीय जरूरतों का एक बड़ा हिस्सा तेल बेच कर पूरा हो रहा है. आइएसआइएस के आतंकवादियों ने जून में उत्तर इराक की तरफ बढ़ते हुए चार तेल-क्षेत्रों पर कब्जा किया था और अब उसका सीरिया के तेल-समृद्ध दैर अल-जोर प्रांत पर कब्जा हो चुका है. आइएसआइएस जॉर्डन, तुर्की, सीरिया और ईरान के खरीदारों के जरिये अपना तेल बेच रहा है. उसने तेल खरीद-बिक्री के रास्तों पर नियंत्रण कर लिया है.

आयातित तेल पर घट रही अमेरिका की निर्भरता

अमेरिका काफी हद तक ऊर्जा के मामले में स्वतंत्र हो चुका है. आयातित तेल पर उसकी निर्भरता अब महत 50 फीसदी रह गयी है. इसकी सबसे बड़ी वजह अमेरिका में हुई शेल तेल और शेल गैस क्रांति है. हजारों लोग इस क्रांति में शामिल हैं, जो छोटे किसान या छोटे उद्योगपति हैं. अमेरिका में जमीन का मालिक ही जमीन के नीचे की खनिज संपदा का मालिक होता है, जबकि यूरोप और भारत में जमीन के नीचे की संपदा सरकार की होती है. जब वहां के किसानों को मालूम चला कि उनकी जमीन के नीचे तेल-संपदा है, तो उन्होंने इसे निकालने के लिए निवेश किया और फिर उत्पादन शुरू कर वे छोटे तेल कारोबारी बन गये. अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के भाव 60 डॉलर प्रति बैरल या उससे कम बने रहे, तो अमेरिका सरकार की चिंता बढ़ सकती है और वह इसमें दखल देने का प्रयास करेगा. 60 डॉलर का भाव चलने से शेल गैस व तेल का उत्पादन प्रभावित हो सकता है. यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए ठीक नहीं होगा. क्योंकि अमेरिका की अर्थव्यवस्था में जो हरियाली लौट रही है, उसमें काफी बड़ा योगदान सस्ते तेल का भी है, जो शेल क्रांति की वजह से संभव हुआ. अमेरिका नहीं चाहेगा कि इस शेल क्रांति पर कोई असर पड़े. इसके लिए वह सऊदी अरब पर दबाव बढ़ाने से लेकर आइएसआइएस पर नियंत्रण जैसे कदम उठा सकता है.

तेल के उत्पादन में किसकी कितनी हिस्सेदारी

कच्चे तेल के वैश्विक उत्पादन में ओपेक देशों की 40 फीसदी, उत्तरी अमेरिका की 17 फीसदी, रूस की 13 फीसदी, चीन की 5 फीसदी, दक्षिण अमेरिका की 5 फीसदी और अन्य की 20 फीसदी हिस्सेदारी है. ओपेक देशों के कच्च तेल उत्पादन में सऊदी अरब की 32 फीसदी, ईरान और इराक की 19 फीसदी, कुवैत की 8 फीसदी, यूएई और वेनेजुएला की 16 फीसदी और अन्य की 25 फीसदी हिस्सेदारी है. भारत अपने कच्च तेल आयात का 20.2 फीसदी सऊदी अरब से, 13 फीसदी इराक से, 10.8 फीसदी कुवैत से, 8.6 फीसदी नाइजीरिया से, 7.4 फीसदी यूएई से, 5.8 फीसदी ईरान से और 34.2 फीसदी अन्य से हासिल करता है.

भारत को फायदा

कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से भारत, चीन और जापान जैसे देशों को फायदा है. सस्ते कच्चे तेल से भारत की महंगाई दर में कमी आयेगी. चालू खाता घाटा कम होगा. देश के आयात बिल में कमी आयेगी और सरकार पर सब्सिडी का बोझ भी कम होगा. इसी मौके का फायदा उठा कर सरकार ने डीजल को भी नियंत्रण-मुक्त कर दिया है. यानी अब डीजल पर सब्सिडी का कोई खर्च नहीं रह गया है. उल्टे सरकार को अपनी कमाई बढ़ाने का मौका मिल गया है. पिछले दिनों सरकार ने डीजल-पेट्रोल पर उत्पाद कर बढ़ा कर यह काम किया है. तेल सस्ता रहने से गाड़ियों की बिक्री को भी बढ़ावा मिलेगा, जिससे विनिर्माण उद्योग को गति मिलेगी. इसके अलावा पेट्रोलियम आधारित उद्योगों जैसे पेंट, प्लास्टिक, रासायनिक खाद बनानेवाली कंपनियों और जहाजरानी कंपनियों को फायदा होगा.

कब पलटेंगे समीकरण

इस बारे में ठीक -ठीक अनुमान कोई नहीं लगा सकता. लेकिन दो-तीन सालों में ओपेक देश खास कर सऊदी अरब भी सस्ता तेल बेचते-बेचते हांफ जायेगा. इस बीच ईरान परमाणु कार्यक्रम को लेकर और रूस यूक्रेन को लेकर नरम पड़ सकता है. उधर तेल की कीमतों और पश्चिम एशिया की राजनीति के मसले पर सऊदी अरब और अमेरिका आपसी तालमेल बेहतर कर सकते हैं. नतीजतन, एक बार फिर तेल की कीमतें ऊंचाई की ओर जा सकती हैं.

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