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इमरजेंसी-फॉर द नेशन, डेमोक्रेसी-फॉर द पीपल

-पुष्यमित्र- खबर है कि इमरजेंसी के दौर पर दो फिल्में इसी साल रिलीज होने वाली है. एक मधुर भंडारकर की ‘इंदू सरकार’ तो दूसरी मिलन लुथारिया की ‘बादशाओ.’ इस महीने की 25 तारीख को भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास की इकलौती इमरजेंसी सरकार को 42 साल पूरे हो जायेंगे. दिलचस्प बात यह है कि महज 22 दिनों […]

-पुष्यमित्र-

खबर है कि इमरजेंसी के दौर पर दो फिल्में इसी साल रिलीज होने वाली है. एक मधुर भंडारकर की ‘इंदू सरकार’ तो दूसरी मिलन लुथारिया की ‘बादशाओ.’ इस महीने की 25 तारीख को भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास की इकलौती इमरजेंसी सरकार को 42 साल पूरे हो जायेंगे. दिलचस्प बात यह है कि महज 22 दिनों के बाद इन पंक्तियों का लेखक भी 42 साल का हो जायेगा, जिसका जन्म इमरजेंसी की घोषणा के ठीक अगले महीने में हुआ था. इस तरह से देखा जाये तो यह लेखक इमरजेंसी का गवाह है भी और नहीं भी है. 1977 के 21 मार्च को जब इमरजेंसी समाप्ति की घोषणा हुई थी, तो लेखक की उम्र दो साल की भी नहीं थी.

मगर इमरजेंसी, जेपी आंदोलन और गैर कांग्रेसवादी की जो बहस थी, जिसने उस दौर में आकार लिया था, उससे आज तक भारतीय मानस मुक्त नहीं हो पाया है. आज भी मौजूदा सरकार कांग्रेस मुक्त भारत की बात करती है, तो जाहिर सी बात है कि इसके बीज कहीं न कहीं उसी दौर में अंकुरित हुए होंगे, जब भारतीय जनता पार्टी की पुरानी पार्टी जन संघ दूसरे समाजवादी दलों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इमरजेंसी को चुनौती देने में जुटी थी.

बहरहाल, कई बार यह सवाल पूछा जाता है कि इमरजेंसी, जिसे हम भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला अध्याय कहते हैं, के विषय पर इतनी कम फिल्में क्यों बनती हैं. 42 साल में दस फिल्में भी इस विषय पर नहीं बनीं. ‘किस्सा कुरसी का’ जो इस विषय पर बनी संभवतः सबसे सशक्त फिल्म थी, उसके प्रिंट जला दिये गये, आंधी एक राजनीतिक फिल्म थी, वह इमरजेंसी के मसले को ज्यादा छूती नहीं थी, फिर भी उसे प्रतिबंधित कर दिया गया. बाद में आइएस जौहर ने संभवतः जनता सरकार के दौर में नसबंदी के नाम से एक हास्य फिल्म का निर्माण किया. हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म खूबसूरत में उस रूपक को इस्तेमाल किया गया और कुछ फिल्में बांग्ला में बनीं. फिर एक लंबा अंतराल रहा, जब कांग्रेस लगातार राज करती रही और फिल्मकारों ने इस विषय को छूना मुफीद नहीं समझा. फिर 2005 में आयी सुधीर मिश्रा की फिल्म ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसीं’ और अब 12 साल बाद दो फिल्में आ रही हैं.

जहां तक ‘बादशाओ’ फिल्म का सवाल है, उसके बारे में अब तक मिली जानकारी के मुताबिक फिल्म में इमरजेंसी एक पृष्ठभूमि की तरह है, मगर है वह एक एक्शन मूवी. हां, मधुर भंडारकर की फिल्म ‘इंदू सरकार’ खालिस राजनीतिक फिल्म है. इस फिल्म का टैग लाइन है, अगेंस्ट द सिस्टम… फॉर द नेशन. यानी इंदू सरकार या इमरजेंसी सिस्टम के खिलाफ जरूर थी, मगर वह मुल्क के लिए थी. बहुत मुमकिन है कि यह फिल्म इमरजेंसी के सकारात्मक पहलुओं के बारे में बातें करती हों.

इमरजेंसी को लेकर भारतीय समाज में दो तरह के डिस्कोर्स चलते हैं और आपने भले ही उस दौर को नहीं देखा हो, मगर दोनों से आपका साबका पड़ता है. जब आप छोटे होते हैं तो पारिवारिक चर्चाओं में कई बार लोग कह बैठते हैं कि इमरजेंसी ठीक ही थी, कई मौके पर तो लोग अतिरेक में चले जाते हैं और कहते हैं कि इस मुल्क में बीच-बीच में इमरजेंसी लगती ही रहनी चाहिये. क्यों… क्योंकि इमरजेंसी के दौर में हमारे देश का सरकारी सिस्टम ठीक-ठाक काम करने लगा था. ट्रेनें समय से चलने लगी थीं, सरकारी दफ्तरों में बिना रिश्वत लिये काम होने लगा था, बाबू आम लोगों की बात सुनने लगे थे, सारी व्यवस्था चकाचक हो गयी थी. लोगों को ये चीजें पसंद आयीं.

लेकिन जब आप पोलिटिकल डिस्कोर्स को समझने लगते हैं तो पता चलता है कि भले ही सिस्टम ठीक हो गया था, मगर तानाशाही की नौबत आ गयी थी. इंदिरा और संजय ये दोनों मां-बेटे ही सरकार थे. जो चाहते थे, वही होता था. कोई सुनवाई नहीं. मीडिया का मुंह बंद कर दिया गया, विरोधियों को जेल में डाल दिया गया और सवाल पूछने पर रोक लगा दिया गया. दिलचस्प बात यह है कि उन हालात को पारिभाषित करने के लिए जो सबसे सटीक कविता आज हमारे पास है, हस्तक्षेप… जिसकी पंक्तियां कहती हैं, कोई छींकता तक नहीं इस डर से कि छींकने से मगध की शांति न भंग हो जाये… इन पंक्तियों के लेखक श्रीकांत वर्मा इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के सलाहकार थे.

इमरजेंसी के बाद जेपी आंदोलन की वजह से जो लुंज-पुंज जनता सरकार अस्तित्व में आयी और दो-ढाई साल में फेल हो गयी और इमरजेंसी विरोधी आंदोलनों से जिस तरह के भ्रष्ट और परिवारवादी नेता मजबूत हुए, जैसे लालू-मुलायम-रामविलास… इस अनुभव ने भी कई लोगों के मन में इस भाव को मजबूत किया कि इमरजेंसी गलत नहीं थी. एक मजबूत तानाशाह जो चीजों को लोगों के मुताबिक कर दे, देश को आगे ले जाये… गाहे-बगाहे हमें आकर्षित करता है, संभवतः मधुर भंडारकर इसी बात को अपनी फिल्म में सामने ला रहे हैं.

हमने जिस इमरजेंसी को महज पौने दो साल झेला है, ऐसी इमरजेंसी और मार्शल लॉ को हमारा एक पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान कई दफा झेल चुका है और दूसरे पड़ोसी मुल्क चीन में लगातार ऐसी ही स्थिति बनी रही, क्योंकि वहां जो शासन पद्धति है वह ऑथोरिटेरियन ही है. हमारे मुल्क जैसा मनमौजी लोकतंत्र नहीं. एक मुल्क के तौर पर हम पाकिस्तान से अधिक सफल हैं और चीन के मुकाबले पिछड़े हुए हैं. हो सकता है, अपने मुल्क में इमरजेंसी होती तो हम चीन जैसे सफल होते या पाकिस्तान की तरह बरबाद ही हो गये होते.

मगर क्या मुल्क की सफलता ही सब कुछ है? लोगों की आजादी कुछ भी नहीं… क्या हमें एक ऐसा सफल मुल्क चाहिए, जहां मुल्क तो सफल हो, मगर लोगों की हैसियत कैदियों जैसी हो… या फिर हम अपने लिए ऐसा मुल्क चाहते हैं जो थोड़ा कम सफल हो, कम व्यवस्थित हो, मगर हमें मनमौजी जीवन जीने की आजादी हो. सोच अपनी-अपनी और अलग-अलग हो सकती है… बहरहाल अच्छी बात यह है कि हम आज उस दौर में जी रहे हैं कि इमरजेंसी के मसले पर अपनी राय रखते हुए फिल्में भी बना पा रहे हैं…

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