काठमांडू : नेपाली कांग्रेस के अनुभवी नेता और 1960 में शाही अधिग्रहण के बाद भारत में 16 वर्ष का राजनीतिक बनवास गुजारने वाले सुशील कुमार कोइराला को सोमवार को सीपीएन-यूएमएल के समर्थन से नेपाल का प्रधानमंत्री चुना गया. इसके साथ ही देश में पिछले वर्ष चुनाव में खंडित जनादेश के बाद से चल रहे राजनीतिक संकट का अंत हो गया.
नेपाल में जनतंत्र की नयी उम्मीद
।। सुशील कोइराला ।।
नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष सुशील कोइराला को नेपाली संसद ने नयी सरकार का प्रधानमंत्री चुन लिया है. संविधान सभा के चुनाव के बाद करीब दो महीने की जद्दोजहद से निकला यह एक ऐसा नतीजा है, जो उम्मीद जगाता है कि नेपाल अब जनतंत्र की राह पर मजबूती से आगे बढ़ सकता है. समय के साथ नेपाल के राजनीतिक परिदृश्य में आये बदलावों पर नजर डाल रहा है यह विशेष.
नेपाली संसद ने नयी सरकार के प्रधानमंत्री पद के लिए 10 फरवरी को चुनाव आयोजित किया, जिसमें नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष सुशील कोइराला निर्वाचित हुए. संसद में कुल 601 सीटें हैं. मतदान में 553 सदस्यों ने मतदान में भाग लिया और सुशील कोइराला को एकमात्र उम्मीदवार के रूप में कुल 405 मत प्राप्त हुए.
75 वर्षीय सुशील एक वरिष्ठ राजनयिक अधिकारी हैं. वर्ष 1954 में वे नेपाली कांग्रेस के सदस्य बने और पार्टी में कई प्रमुख पदों पर रहे. वर्ष 2010 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने. सुशील के परिजन नेपाल की राजनयिक प्रक्रिया में कई बार महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं. इससे पहले उनके परिवार में तीन व्यक्ति नेपाल के प्रधानमंत्री बन चुके हैं. सुशील ने कहा कि हमें आशा है कि इस वर्ष संविधान का मसौदा तैयार करने का कार्य पूरा होगा. मैं अन्य पार्टियों के साथ सहयोग कर इस ऐतिहासिक कर्तव्य को पूरा करूंगा.
सुशील कोइराला का जन्म 1939 में हुआ था. एक नेपाली वेबसाइट के मुताबिक, कोइराला का जन्म बीरगंज में हुआ था. हालांकि इनके जन्मस्थान को लेकर भी अलग-अलग स्थान बताये जाते हैं.फिलहाल उनका स्थायी निवास नेपालगंज है. इनके पिता बोध प्रसाद कोइराला थे. श्री कोइराला अविवाहित हैं और सादा जीवन व्यतीत करते हैं. नेपाली कांग्रेस की विचारधारा से प्रभावित होते हुए उन्होंने यह पार्टी ज्वाइन की थी. वर्ष 1960 में नेपाल में राजशाही के प्रभुत्व के दिनों में इन्हें राजनीतिक निर्वासन झेलना पड़ा. भारत को अपना दूसरा घर माननेवाले कोइराला ने उस दौरान तकरीबन 16 वर्ष भारत में बिताये थे.
निर्वासन के दौरान कोइराला ने पार्टी के आधिकारिक पत्र ‘तरुण’ का संपादन किया. 1979 से वे पार्टी की केंद्रीय कार्य समिति के सदस्य रहे हैं और 1996 में इन्हें पार्टी का महासचिव और 1998 में उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया. 2008 में गिरिजा प्रसाद कोइराला ने इन्हें पार्टी का कार्यवाहक अध्यक्ष नियुक्त किया था. 22 सितंबर, 2010 को नेपाली कांग्रेस के 12वें जनरल कन्वोकेशन में इन्हें पार्टी अध्यक्ष चुना गया. 2013 में हुए संविधान सभा चुनावों में सुशील कोइराला के नेतृत्व में नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. संविधान सभा चुनावों के दौरान कोइराला दो क्षेत्रों (बांके -3 और चितवन-4) से चुनाव लड़े थे और दोनों ही जगहों से विजयी रहे. बाद में उन्होंने चितवन-4 सीट छोड़ दी और बांके -3 क्षेत्र का वे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. प्रधानमंत्री खिल राज रेग्मी से पदभार ग्रहण करनेवाले सुशील कोइराला देश के 37वें प्रधानमंत्री हैं, जबकि 2008 में आयोजित संविधान सभा के पहले चुनाव के बाद से ये देश के छठे प्रधानमंत्री हैं.
नेपाल के प्रमुख मीडिया ग्रुप इकांतिपुर डॉट कॉम की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि नेपाली कांग्रेस के समर्पित सदस्य होने के चलते 1960 के बाद भारत में निर्वासन के दौरान इन्हें तीन वर्ष भारत की एक जेल में भी कैद करके रखा गया था. कुल मिला कर संविधान सभा के चुनाव के दो महीने बाद नेपाल में नयी सरकार के गठन की दिशा में हुई प्रगति एक ऐसी घटना है, जो भारत के लिए भी आश्वस्त करनेवाली है.
सन् 1968 में मैं पहली बार काठमांडू गया था. बाहर से सुंदरी जल जेल भी देखा, जिसमें नेपाल के जनतांत्रिक ढंग से चुने हुए पहले प्रधानमंत्री बीपी कोइराला कैद थे. छोटा, लेकिन नेपाली स्थापत्य में रचा बसा उपत्यका का यह शहर उस वक्त भारत, चीन, पाकिस्तान के त्रिकोणीय धुंध की गिरफ्त में था. राजा महेंद्र ने सन् 1962 में दल हीन जनतंत्र की तर्ज पर पंचायती राज कायम कर दिया था, जो मूलत: राजतंत्र के एकाधिकारी शासन का सबसे मौजू हथियार बन गया था.
पाकिस्तानी सैनिक शासक अय्यूब खां ने भी पार्टी लेस डेमोक्रेसी (दल विहीन लोकतंत्र) को तीसरी दुनिया के लिए एक मौजू हथियार मान लिया था. इसी समय काठमांडू के न्यू रोड पर करीब आठ चीनी अधिकारियों को गुजरते हुए मैंने देखा, सभी गलाबंद माओ कोट में थे और सभी के हाथों में माओ की ‘रेड बुक’ थी, वे सड़क पर सहज ढंग से न चल कर मार्च करते हुए चले जा रहे थे. काठमांडू की सबसे बड़ी डिपार्टमेंटल स्टोर चीन सरकार के द्वारा संचालित होती थी, साथ ही शहर में बीजिंग से आयातित ट्रॉली बसें (ट्राम की तरह बिजली के तार के सहारे चलनेवाली बस) भी चीनी सरकार अपने इंजीनियरों के सहारे संचालित करती थी. न्यू रोड के बीचोबीच एक बड़ा साइन बोर्ड पाकिस्तान एअरलाइंस का लगा हुआ था. भारत से जानेवाले अखबार शाम में न्यू रोड पर एक पीपल के पेड़ के नीचे बिकते थे. काठमांडू के अखबारों पर राजतंत्र का कड़ा नियंत्रण था. रक्सौल-बीरगंज रास्ते में मैं हिटौड़ा में रातभर के लिए रुका था.
उस कस्बाई शहर में किताब की एक ही बड़ी दुकान थी और वह माओ की संकलित रचनाएं और चीनी साहित्य बेचती थी. हर दुकान में राजा महेंद्र और महारानी रत्ना का चित्र रखना जरूरी था. यहां तक कि निजी घरांे में भी. राजा महेंद्र के चित्र को इस प्रकार टांगा जाता था, जिससे गश्ती करनेवाले सिपाही की नजर उस पर पड़ जाये. यह थी विश्व के आखिरी हिंदू राज-राष्ट्र की तसवीर.
राजा महेंद्र के भारत विरोध के पीछे एक इतिहास है. भारत और खास तौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर से लेकर वाराणसी तक और बिहार में पूर्णिया, कटिहार से लेकर पटना तक नेपाली कांग्रेस के कार्यकर्ता छिटके हुए थे, जो नेपाल में जनतांत्रिक परिवर्तन चाहते थे. राजा महेंद्र के पिता राजा त्रिभुवन को जनतांत्रिक पाले में लाने का श्रेय भारत सरकार और खास कर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जाता है. नेहरू की देख-रेख में उनके द्वारा नामित नेपाल में राजदूत सीपीएन सिन्हा ने तत्कालीन सामंती राज, जो नेपाल के सामंत राजाओं द्वारा संचालित होता था- जिसके तहत 100 साल तक राणा राज में राजा को अपने राज प्रासाद में एक बंदी के रूप में रहना पड़ता था- ऐसे माहौल में राणाशाही के खिलाफ विद्रोह के लिए पूरी पृष्ठभूमि बनायी थी. पर राजा त्रिभुवन की असामयिक मृत्यु ने पूरे परिवेश को बदल दिया और उनके उत्तराधिकारी राजा महेंद्र ने जनतंत्र, जो अभी नवजात शिशु था, को पूरी तरह कुचल दिया.
अब एक बदला हुआ नेपाल
2013-14 में परिस्थिति बेहद बदल चुकी है. काठमांडू के अखबार हिंदुस्तानी अखबारों से कहीं कमतर नहीं हैं, बल्कि हमारे हिंदुस्तानी अखबारांे की अपेक्षा नेपाली अखबारों में चीन के भीतर चल रही कशमकश, पाकिस्तान, बांग्लादेश के बारे में भी काफी सूचना मिलती है. नेपाली भाषा के अखबार काफी प्रौढ़ दिखे. पिछली संविधान सभा चार वर्ष के पश्चात 2013 में संविधान बनाये बिना ही विसर्जित हो गयी. इस संविधान सभा में शुरुआती दौर में माओवादियों का वर्चस्व रहा. पर संविधान नहीं बन पाया. संविधान बनने में बाधा मूल रूप से दो विचारधाराओं की टक्कर थी- पर साथ ही राजसत्ता पर कायम रहने की बलवती इच्छा ने भी संविधान सभा की कार्यवाही को गौण बना दिया था, संविधान सभा ही सरकार का काम करती थी. नतीजतन राजनीतिक रस्साकसी मुख्य मुद्दा बन गया था.
परंतु, चार वर्षो के बाद माओवादियों को भी इन्कलाबी रुमानियत की असलियत का पता चल गया है. माओवादियों को संभवत: भ्रम रहा होगा कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल में माओवादी विद्रोह का समर्थन करेगी. वस्तुत: चीन का असली उद्देश्य नेपाल को भारत के मुकाबले अपने पाले में रखना है. उनका दूसरा उद्देश्य नेपाल में स्थायित्व का निर्माण करना है, भले ही ऐसा स्थायित्व सामंती राजपाट दें, या माओवादी इन्कलाबी दें या लोकतंत्रवादी नेपाली राजनीतिक दल दें.
भारत की महत्वपूर्ण भूमिका
नेपाली कांग्रेस पर भारतीय राजनीतिक दलों, नेताओं, सरकारों का लंबा असर रहा है. इसमें दो राय नहीं कि जनतंत्र की वापसी में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है और यही कारण है कि नेपाली कांग्रेस के नेताओं का भारत से अधिकांशत: मित्रवत रिश्ता रहा है. दरअसल यूपीए एक के आखिरी दिनों में मनमोहन सिंह की सरकार की विदेश नीति में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया. भारत की पारंपरिक गुट निरपेक्ष नीति से रुखसत लेकर अमेरिका और पश्चिमी दुनिया से नजदीकी बनाना ही मनमोहन सिंह की विदेश नीति की मुख्य धुरी बन गयी. स्वाभाविक रूप से नयी दिल्ली का रुख नेपाल की ओर लगभग वही हो गया, जो अन्य विदेशी सरकारों का था.
स्वाभाविक है कि नेहरू से लेकर इंद्र कुमार गुजराल की सरकार तक मोटे तौर पर नेपाल में जनतंत्र और स्थायित्व कायम करने के लिए साउथ ब्लाक लगातार सक्रिय रहा. इसका कारण था भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की जनतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता, जो इंदिरा शासन के वक्त में काफी क्षीण हो गयी थी, पर इस दौर में भी नेपाल के राजतंत्र का भारत भरोसेमंद मित्र नहीं बन पाया.
इस मायने में नेपाली इतिहास में पहली बार एक ऐसी परिस्थिति बनी है, जहां बाहरी शक्तियों का वर्चस्व घटा है. बल्कि चीन जैसी ताकतवर सरकार तो अब सभी राजनीतिक दलों का दरवाजा खटखटा रही है. हालांकि कुछ नेपाली राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि विदेशी शक्तियों का हस्तक्षेप बढ़ा है, पर तथ्यगत रूप से देखा जाये तो नेपाल आज अपेक्षाकृत स्वायत्त और अपनी संप्रभुता पर अधिक मजबूती से टिका है. एक राष्ट्रीय सरकार, जिसमें नेपाली कांग्रेस और एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी दल शामिल हों, का ढांचा बन चुका है. इस मायने में यह भारतीय संसदीय लोकतंत्र में आज के दौर में चलनेवाली संसदीय प्रतिद्वंद्विता और चीन में एकल पार्टी अधिकनायकवाद की तुलना में कहीं अधिक स्वस्थ और देश निर्माण के लिए अत्यंत उपयोगी प्रक्रिया है.
गौरतलब है कि भारतीय संविधान सभा में विरोध पक्ष लगभग नहीं के बराबर था, इसीलिए 26 जनवरी, 1950 को संविधान सभा बिना किसी बाधा के एक संविधान पेश कर पायी, पर यदि नेपाल की तरह संविधानसभा तीन दलों में विभक्त रहती तो संविधान बनाना इतना सरल नहीं होता. नेपाल में संसदीय माओवादियों और अलकलाबी माओवादियों की बड़ी जमात के कारण चीनी शैली में जनवादी गणराज्य बनाने की जिच और माओवादियों के लाल दस्तों को सशस्त्र संग्राम के रास्ते से संसदीय रास्ते पर लाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी, लेकिन दुनिया के सबसे न्यूनतम विकसित देशांे में शुमार होने के बावजूद नेपाल में एक खास किस्म की प्रौढ़ता भी है, जिसके तहत राष्ट्रीय सरकार जैसे विकल्प वहां मान्य हो गये हैं.
संविधान सभा के सम्मुख प्रश्न राष्ट्रीय सर्वदलीय सरकारें पहले भी नेपाल में बन चुकी हैं.
संविधान सभा में तीन महत्वपूर्ण प्रश्न, फेडरलिज्म, भारतीय और ब्रितानी संसदीय व्यवस्था की जगह राष्ट्रीय चुनाव के माध्यम से चुना हुआ प्रधानमंत्री केंद्रित जनतंत्र और अमेरिकी व कुछ हद तक फ्रेंच शैली में राष्ट्रपति का जनता द्वारा सीधा चुनाव, नये संविधान सभा के सम्मुख विचारणीय प्रश्न हैं.
नेपाली कांग्रेस के सभापति सुशील कोइराला ने कहा कि इन तीनों प्रश्नों पर वे एमाले और माओवादियों से बातचीत कर रहे हैं. अगर ये मुद्दे हाई लेवल पोलिटिकल कमिटी में नहीं सुलझते हैं तो इनका निराकरण संविधान सभा जनतांत्रिक ढंग से करेगी. नेपाली कांग्रेस के महामंत्री प्रकाशमान सिंह का कहना था कि चूंकि जनता ने नेपाली कांग्रेस को बहुमत दिया है, इसलिए इन प्रश्नों को सुलझा लिया जायेगा. नेपाली कांग्रेस के सांसद प्रदीप गिरी का भी मानना था कि एक वर्ष में संविधान बन जायेगा.
एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी (एमाले) 175 सांसदों को जिता कर दूसरा बड़ा दल बना है. एमाले की राय नेपाली कांग्रेस के साथ सरकार बनाने की है और पार्टी में इस प्रश्न पर कोई विवाद नहीं है. फिर भी उस दल में एक मुहिम नये राष्ट्रपति चुनने की भी चल रही है, जिसका दावा एक संयुक्त मोरचे की सरकार में एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी दल (एमाले) कर सकती है, पर नेपाली कांग्रेस राष्ट्रपति बदलने के प्रश्न पर कोई समझौता फिलहाल नहीं करने के पक्ष में है.
नेपाल में पिछले चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में माओवादी उभरे थे. पर जनतंत्र के मूल्यों से नावाकिफ होने के कारण, खासतौर पर लगातार हड़ताल, बंदी, छोटी हैसियत वाले व्यापारियों और जनता पर दबाव की राजनीति ने इस दल को अलोकप्रिय बना दिया. पश्चिमी नेपाल के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में माओवादियों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता बना ली थी, पर काठमांडू उपत्यका, पूर्वी नेपाल, तराई इलाके में सामाजिक संरचना भिन्न है और वहां पश्चिम नेपाल की पहाड़ियों पर बने ‘लाल क्षेत्र’ की राजनीति को दुहराया नहीं जा सकता था. फिलहाल माओवादियों के अंदर दो धड़े बन गये हैं. एक ओर पार्टी के अध्यक्ष प्रचण्ड हैं, तो दूसरी ओर भट्टराई हैं. पर भट्टराई खेमा के पास पार्टी के अंदर बहुत कम समर्थन है. प्रचण्ड इस दौर में संयुक्त साझा सरकार के पक्ष में हैं.
धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न भी नेपाल में पूरी तरह से सुलझाया नहीं जा सका है. पर आम तौर पर बहुमत नेपाली जनता धर्मनिरपेक्ष नेपाल की पक्षधर है. संघ परिवार शैली की हिंदुत्व राजनीति के लिए नेपाल में बहुत ही कम जगह है. दूसरा प्रश्न कुछ नेपाली बुद्धिजीवी उठाते हंै, कि क्या आधुनिक राष्ट्र निर्माण का कार्य समाप्त हो गया है. दरअसल, नेपाल के धूर सामंतवादी राणाशाही और राजतंत्रवादी ढांचे, जिसका औपचारिक मुखौटा हिंदू राज्य का था, को आधुनिक राष्ट्र में बदलने की प्रक्रिया 50 के दशक से ही शुरू हो गयी थी. पर आधुनिक राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया नेपाल में एक साथ चल रही है.
नेपाल में एक आधुनिक दृष्टि संपन्न राष्ट्र में बदलने की प्रक्रिया भारत की अपेक्षा अधिक बलवती है. चूंकि नेपाल में हिंदू जाति व्यवस्था ऊपर से लादी गयी थी. धार्मिक आधार पर हिंदू-बौद्ध सम्मिश्रण से नेपाल में स्वाभाविक रूप से एक उदार सामाजिक व्यवस्था बनी हुई है. नेपाली जनता और खास तौर पर उनका उभरता मध्यमवर्ग भारत की अपेक्षा कहीं अधिक आधुनिक समाज के मूल्यों को आत्मसात करने में सक्षम है. यह मध्यमवर्ग न तो जाति व्यवस्था के जकड़ से ग्रस्त है और उसे हिमालय के दोनों तरफ भारत-चीन और यूरोपीय-अमेरिकी दुनिया से नयी शैली, मूल्यों को लेने में कोई कोताही नहीं है. ‘कास्मोपोलिटन’ दृष्टि का यह मध्यमवर्ग नेपाल के लिए एक वरदान है.
नेपाल में एक आधुनिक जनतांत्रिक राज्य अभी एजेंडे पर है. जनतंत्र के मूल्यबोध बनाने में भी लंबा समय लगता है. जनतांत्रिक संस्थाएं तो मिनटों में घोषित की जा सकती है, पर जनतांत्रिक मूल्यों के बनने में लंबा समय लगता है. इससे पहले कि राज्य के जनतांत्रिक ढांचे की हम चरचा करें, पार्टियां जनतांत्रिक मूल्यों से लवरेज होनी चाहिए, पर स्टेट तो समाज के आधार को लांघ कर बनाया जा सकता है, पर पार्टियां खासतौर पर जनतंत्र में सामाजिक व्यवस्था और आधार पर पूर्णरूपेण आधारित हो जाती है. यही कारण है कि भारत में एक अत्याधुनिक स्टेट की मौजूदगी के बावजूद जात-पात आधारित चुनाव और सांप्रदायिकता यथार्थ के धरातल में दिखायी पड़ती है.
नेपाली समाज मूलत: एक हिंदू-बौद्ध सम्मिश्रण का धनी और उदार समाज है, इसलिए आशा की जा सकती है कि नेपाल में जनतांत्रिक परंपरा भी संभवत: भारत की अपेक्षा कम ही समय में स्थापित हो जायेगी. मौजूदा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य नेपाल में एक ‘नया जनतांत्रिक आधुनिक राष्ट्र’ बनाने के लिए उपयुक्त समय है. नेपाली राजनीतिक नेतृत्व, चाहे सुशील कोइराला हों या झालानाथ खनल या प्रचण्ड और बाबूराम भट्टराई हों, आज के दौर में लोकतंत्रीकरण की जरूरत को महसूस कर एक साथ कदम उठाने की जद्दोजहद कर रहे हैं. यह नये नेपाल की लंबी दूरी तय करनेवाली नये नेतृत्व की पहचान है. सुशील कोइराला चूंकि बहुमत नेपाली कांग्रेस के आला नेता हंै, इसलिए उनकी भूमिका इस दौर में संभवत: सबसे अधिक होगी. आम जनता के साथ जुड़ाव और एक उदार व लोचदार दृष्टि के धनी सुशील संभवत: नये लोकतांत्रिक नेपाल को बनाने में सर्वाधिक भूमिका निभा पायेंगे, यदि परिस्थितियां पूरी तरह से विषम नहीं हो जाती है. यानी नेपाल में 1950 के दशक में जनतंत्र का जो बीज बोया गया था, अब संभवत: उस फसल को काटने का वक्त अब आ गया है.