23.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

2014 की नयी राजनीतिक उम्मीद

-पुण्य प्रसून वाजपेयी- 15 अगस्त 1947 की आधी रात जब जवाहरलाल नेहरू गुलामी की जंजीरों से भारत की मुक्ति का ऐलान दिल्ली में संसद के भीतर कर रहे थे, उस वक्त देश की आजादी के नायक महात्मा गांधी दिल्ली से डेढ़ हजार किमी दूर कोलकाता के बेलीघाट में अंधेरे में समाये एक घर में बैठे […]

-पुण्य प्रसून वाजपेयी-

15 अगस्त 1947 की आधी रात जब जवाहरलाल नेहरू गुलामी की जंजीरों से भारत की मुक्ति का ऐलान दिल्ली में संसद के भीतर कर रहे थे, उस वक्त देश की आजादी के नायक महात्मा गांधी दिल्ली से डेढ़ हजार किमी दूर कोलकाता के बेलीघाट में अंधेरे में समाये एक घर में बैठे थे. शायद तभी सार्वजनिक तौर पर संसद और सामाजिक सरोकार के बीच पहली लकीर खिंची थी. आजादी के जश्न को गांधी आजादी के बाद की त्रसदी के इतर नहीं देख रहे थे. बीते 62 बरस की संसदीय राजनीति ने गांधी की खींची लकीर को कहीं ज्यादा गहरा और मोटा बनाया है. आज असल दर्द यह है कि आजादी के बाद अब तक इसी त्रसदी को लोकतंत्र मान लिया गया और अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ कर देश की सभी संवैधानिक संस्थाएं उसी लोकतंत्र के सुर में सुर मिलाने लगीं. देश के 80 फीसदी लोगों को लगने लगा कि भारत के नागरिक होकर भी भारत उनके लिए नहीं. मौलिक अधिकारों पर भी उनका हक नहीं. संसद की नीतियां उनके लिये नहीं. पीने का पानी हो, दो जून की रोटी, शिक्षा, इलाज या महज एक छत. यह सब पाने के लिए जेब भरी होनी चाहिए और अगर जेब खाली है, तो बिना सियासी घूंघट डाले कुछ नसीब हो नहीं सकता.

यह रास्ता नेहरू के पहले मंत्रिमंडल की नीतियों से ही बनना शुरू हुआ था और 1991 के बाद सबकुछ बाजार के हवाले करने की नीति ने इसे इतनी हवा दे दी कि झटके में देश का सोशल इंडेक्स ही उड़नछू हो गया. यानी समाज को लेकर न कोई जिम्मेवारी सरकार की, न ही बाजार की. सरकार को बाजार से कमीशन चाहिए और बाजार को समाज से मुनाफा. तो आम आदमी के खून को निचोड़ने से लेकर देश को लूटने का अधिकार पाने के लिए सरकार में आने का खेल एक तरफ और सरकार के साथ मिल कर मुनाफा बनाने-कमाने का खेल दूसरी तरफ. इस खेल में हर कोई जिम्मेवारी मुक्त. इस रास्ते को बदले कौन और बदलने का रास्ता हो कैसा?

ध्यान दें तो बीते 62 बरस की सियासत में कभी यह सवाल नहीं उभरा कि राजनीतिक विचारधाराएं बेमानी लगने लगी हैं. संविधान के सामाजिक सरोकार नहीं हैं. सत्ता सरकार और ताकतवर की अंटी में बंधी पड़ी है. पहली बार 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव से बनी सत्ता ने महात्मा गांधी की उस लकीर पर ध्यान देने को मजबूर किया, जो 15 अगस्त 1947 को नेहरू का ऐतिहासिक भाषण सुनने की जगह बंद अंधेरे कमरे में बैठ कर खुद महात्मा गांधी ने ही खींची थी.

तो क्या समूची राजनीतिक व्यवस्था को सिरे से उलटने का वक्त आ गया है. या फिर देश की अवाम अब प्रतिनिधित्व की जगह सीधी भागीदारी के लिए तैयार है! पानी, बिजली, खाना, शिक्षा, इलाज, घर और स्थायी रोजगार. ध्यान दें तो बीते 62 बरस की सियासत के यही आधार रहे. और 1952 में पहले चुनाव से लेकर 2014 के लिए बज रही तुरही में भी सियासी गूंज इन्हीं मुद्दों की है. तो क्या बीते 62 बरस से देश वहीं का वहीं है? हर किसी को लग सकता है कि देश बहुत बदला है. देश ने काफी तरक्की की है. लेकिन बारीकी से देश के संसदीय खांचे में सियासी तिकड़म को समङों, तो हालात 1952 से भी बदतर नजर आ सकते हैं. फिर 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से होनेवाले असर को समझना आसान होगा. देश के पहले आम चुनाव 1952 में कुल वोटर 17 करोड़ 32 लाख थे. इनमें से 10 करोड़ 58 लाख ने वोट डाले थे और जिस कांग्रेस को चुना उसे 4 करोड़ 76 लाख लोगों ने वोट डाले. वहीं 2009 में कुल 70 करोड़ वोटर थे. इनमें से सिर्फ 29 करोड़ ने वोट डाले और जो कांग्रेस सत्ता में आयी उसे महज 11 करोड़ ने वोट दिये. जबकि 1952 के वक्त का चार भारत 2009 में जनसंख्या के लिहाज से है. तो पहला सवाल जिस तादाद में 1952 में पानी, शिक्षा, बिजली, खाना, इलाज, घर या रोजगार को लेकर तरस रहे थे, 2013 में उससे कही ज्यादा भारतीय नागरिक उन्हीं न्यूनतम मुद्दों को लेकर तरस रहे हैं. तो फिर संसदीय राजनीतिक सत्ता कैसे और किस रूप में आम आदमी के हक में रही?

1977 में ही जिस आपातकाल के बाद पहली बार देश में कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ हवा बही, उस वक्त भी देश के कुल 32 करोड़ वोटरों में से सिर्फ 7 करोड़ 80 लाख वोटरों ने ही जेपी के हक में मोरारजी देसाई को पीएम बनाया. और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर जो वीपी सिंह 1989 प्रधानमंत्री बने, उन्हें उस वक्त 1957 की तुलना में भी सत्ताधारी से कम वोट मिले थे. सिर्फ 5 करोड़ 35 लाख. दरअसल यह आंकड़े इसलिए, क्योकि लोकतंत्र और आजादी का मतलब होता क्या है या फिर किसी भी देश में आम आदमी की हैसियत सत्ता के कटघरे में कितनी कमजोर होती है इसका एहसास पढ़नेवाले को हो जाये.

उसके बाद जिन दो सवालों को 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से बनी सत्ता ने जन्म दिया है, उस पर लौटें तो आम आदमी पार्टी ने पहली बार आम आदमी को इसका अहसास कराया कि वोट का महत्व होता क्या है और हर रईस और गरीब वोट देने के अधिकार के दायरे में अगर बराबर है तो फिर सत्ता संभालने के लिए आम आदमी की शिरकत क्या रंग दिखा सकती है. और प्रतिनिधित्व की जगह सीधे सत्ता में भागेदारी क्यों नहीं हो सकती? और अगर सीधी भागेदारी हो सकती है तो फिर जिंदगी जीने से जुड़ी न्यूनतम जरूरत के मुद्दे पूरे क्यों नहीं हो सकते हैं और सियासी अर्थव्यवस्था को सिरे से उलटा क्यों नहीं जा सकता है?

अगर नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के तहत आनेवाले सुविधाभोगी नागरिकों की तुलना में देश के तमाम नागरिकों के हालात को परखें तो सरकारी आंकड़े ही यह बताने के लिए काफी होंगे कि देश के 13 फीसदी लोग देश के 65 फीसदी लोगों के बराबर संसाधनों का उपभोग कर लेते हैं. सिर्फ देश के ढाई फीसदी लोगों के पास उपभोग की जो वस्तुएं बाजार भाव से मौजूद हैं, उस तुलना में 52 फीसदी लोग भोगते हैं. तो इतनी असमानतावाले समाज में सत्ताधारी होने का मतलब क्या-क्या हो सकता है और सत्ता बनाने बिगाड़ने या सत्ता को चलानेवाली ताकतें जो भी होगीं उनके लिए भारत जन्नत से कम कैसे हो सकता है और जो ताकत नहीं होंगे वह कैसे नरक सा जीवन जीने को मजबूर होंगे, यह किसी से छुपा रह नहीं सकता है. इसी लकीर को अगर 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम की सीख के तौर पर परखें तो वे आधे दर्जन मुद्दे, जो न्यूनतम जरूरत पानी और बिजली से शुरू होते हैं, इलाज और भोजन पर रुकते हैं, रोजगार से लेकर एक अदद छत पाने को ही सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं, उससे कैसे सियासी सत्ता की आड़ में 62 बरस से खिलवाड़ होता रहा, यह सब सामने आ सकता है.

2014 के लिए यह सोचना कल्पना हो सकता है कि 21 मई, 2014 को जब देश में नयी सरकार शपथ ले तो वह वाकई आम आदमी के मैनिफेस्टो पर बनी सरकार हो, जहां राजनीतिक विचारधारा मायने न रखे, जहां वामपंथी या दक्षिणपंथी धारा मायने न रखे, जहां जातीय राजनीति या धर्म की राजनीति बेमानी साबित हो. हर वोटर को जैसे वोट डालने का बराबर अधिकार है, वैसे ही न्यूनतम जरूरत से जुड़े मुद्दो पर भी बराबर का अधिकार होगा. तो पानी हो या बिजली या फिर इलाज या शिक्षा, रोजगार या छत, देश में मौजूदा अर्थव्यवस्था के दायरे में अगर वाकई प्रति व्यक्ति आय 25 से 30 हजार रुपये सालाना हो चुकी है, तो फिर उसी आय के मुताबिक ही सार्वजनिक वितरण नीति काम करेगी. सरकार के आंकड़े कहते है कि देश में प्रति व्यक्ति आय हर महीने ढाई हजार रुपये पार कर चुकी है तो फिर इस दायरे में हर परिवार को उतनी सुविधा यूं ही मिल जानी चाहिए, जो सब्सिडी या राजनीतिक पैकेज के नाम पर सियासी अर्थव्यवस्था करती है. यह सीख 2013 से निकल कर 2014 के लिए इसलिए दस्तक दे रही है, क्योकि दिल्ली चुनाव में जो जीते हैं वे पहली बार सरकार चलाने के लिए सत्ता तक नहीं पहुंचे, बल्कि समाज में जो वंचित हैं उन्हे उनके अधिकारों को पहुंचाने की शपथ लेकर पहुंचे हैं. पारंपरिक राजनीति के लिए यह सोच इसलिए खतरनाक है क्योंकि यह परिणाम हर अगले चुनाव में कहीं ज्यादा मजबूत होकर उभर सकते हैं. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने कोई राजनीतिक विचारधारा खींच कर खुद पर सत्ता को नहीं टिकाया है, बल्कि देश के सामने सिर्फ एक राह बनायी है कि कैसे आम आदमी सत्ता पलट कर खुद सत्ताधारी बन सकता है. दिल्ली ने एक उम्मीद पैदा की है कि आम आदमी अगर चुनाव को आंदोलन की तर्ज पर ले, तो सिर्फ वोट के आसरे 62 बरस पुरानी असमानता की लकीर को मिटाने की दिशा में बतौर सरकार पहली पहल कर सकता है!

अब नहीं थमेगा आकांक्षाओं का ज्वार
पुष्पेश पंत

वरिष्ठ स्तंभकार

कोई भी दौर स्थायी नहीं होता. जैसे साल बीत जाता है, वैसे ही बुरा वक्त भी बीत जाता है. 2013 विदा होते-होते बदलाव की यही उम्मीद जगा गया है. 2014 का पहला सूरज अपने साथ नयी आस लेकर आया है. यह निजाम बदलने का साल है और 2013 हमें यह सीख दे गया है कि अगर जनता जागरूक हो, तो बड़ा से बड़ा बदलाव भी मुमकिन है. राजनीति समेत विभिन्न क्षेत्रों के जानकार ले रहे हैं जायजा 2014 की चुनौतियों और उम्मीदों का.

चुनौतियां

कांग्रेस के विकल्प के तौर पर जनमे क्षेत्रीय दल रूढ़िवादी दकियानूसी सामंती सोच को पनपाने की कोशिश कर तथा सांप्रदायिक द्वेष को विस्फोटक बना कर ही अपने अस्तित्व को बचाने में लगे हैं. देशव्यापी शांति और सुव्यवस्था, एकता और अखंडता के लिए यह बेहद चिंताजनक है.

जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है शासकवर्ग एक ही बिरादरी का लगता है.

उम्मीदें

संसद से दागी सजायाफ्ता सदस्यों के निष्कासन और उच्चतर न्यायपालिका की सक्रियता ने आकांक्षाओं के जिस ज्वार को जन्म दिया है वह एकाएक थमनेवाला नहीं. अब तक ‘माई-बाप’ सरकार के आगे हाथ फैलाने वाले हम-आप अब राजनीति में प्रत्यक्ष भागीदारी का स्वाद चख चुके हैं.

2013 में जो अशुभ संकेत सामने आये हैं, उनकी अनदेखी करना 2014 के स्वागत की उतावली में हमारे लिए आत्मघातकजोखिम ही पैदा कर सकता है. भलाई इसमें है कि हम इन चुनौतियों का सामना एकजुट हो करने के संकल्प के साथ नये साल की पारंपरिक शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करें और आशा भरी नयी सुबह की अगवानी की तैयारी करें.

सबसे बडी और जटिल चुनौती देश की एकता और अखंडता की रक्षा की है. सरकार की स्थिरता के बारे में चिंतातुर राजनीतिक दलों को यह सोचने की फुर्सत नहींरही है कि जिस कीमत पर चुनावी जीत हासिल की जाती रही है उसने जनादेश को खंडित ही नहीं किया है, जनमत को भी बहुत बुरी तरह विभाजित कर दिया है. भाजपा का यूपीए पर जोरदार हमला दैत्याकार भ्रष्टाचार, दिशाहीन लकवाग्रस्त प्रशासन के साथ-साथ कुनबापरस्ती एवं व्यक्तिपूजा पर रहा है. यह आक्रामक तेवर नाजायज नहीं.

राहुल गांधी के करिश्माई व्यक्तित्व के जादू को जगाने में जुटी कांग्रेस बारंबार अपना फजीता करवाने के बावजूद जमीनी हकीकत को नकारने में लगी है. उसे लगता है उसके पास एक नहीं दो ब्रह्मास्त्र हैं- धर्मनिरपेक्षता और आरक्षण. इनके सहारे वह भाजपा को ध्वस्त करने का भरम पाले है. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों के कट्टरपंथी स्वयंभू नेताओं के तुष्टीकरण की नीतियों और लोकलुभावन नारों की कलई अब तक खुल चुकी है अत: भाजपाके प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी के राक्षसीकरण का ही आसरा बचा है. मोदी नृशंस हैं, फासीवादी तानाशाह हैं, गुजरात की तरक्की के झूठे दावे करते हैं, पूंजीवादियों के मोहरे हैं जैसे आरोप जब उनकी दिल्ली की तरफ रथयात्र की राह में रोड़े नहीं बन सके तब फर्जी मुठभेडों में उनके नायब अमितशाह को आरोपी बनाने का प्रयास सीबीआइ के जरिये किया गया. हाल ही में एक युवती के टेलीफोन को अवैध रूप से टैप करवाने का गंभीर आरोप भी उन पर लगा है. विडंबना यह है कि मनमोहन सरकार की विश्वसनीयता इतनी कम है कि यह सब अभियोग कांग्रेस के पक्षमें जनमत तैयार करने में अब तक विफल रहे हैं.

यह सच है कि भाजपा देश के सभी राज्यों में मौजूद नहीं पर क्या यही बात कांग्रेस के बारे में भी लागू नहीं होती? पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, राजस्थान, गुजरात, गोवा, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, तमिलनाडु में कहां उसका नामोनिशान बचा है? जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, झारखंड में वह बैसाखी पर टिकी है तो आंध्र प्रदेश में अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार चुकी है. असम, मिजोरम, मेघालय, हरियाणा, हिमाचल और उत्तराखंड में फिलहाल वह अपनी सरकारों को ले कर चाहे जितना हुलस ले लोकसभा चुनावों में जीत की संभावना नगण्य है.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नाटकीय उदय एवं सरकार गठन के बाद ‘तीसरे विकल्प’ का नारा बुलंद करने वाले महत्वाकांक्षी महारथी भी इस घडी मौन हैं. नीतीश के कुछ सहयोगी ‘आप’ का रुख कर चुके हैं और जमानत के बाद उनके लिए लालू की चुनौती एक अप्रत्याशित सिरदर्द है. मुलायम जाने किस दुनिया में खोये हैं, जिन्हें मुजफ्फरनगर के दंगापीड़ितों के शिविरों में रहने को मजबूर सारे लोग भाजपा और कांग्रेस के षड्यंत्रकारी एजेंट लगते हैं. जब यह पाले में ठिठुर रहे होते हैं, तो वह सुपुत्र सहित सैफई महोत्सव में आइटम नंबरी परंपरा का निर्वाह करते दिखलाई देते हैं. यह भरम पालना असंभव है कि उत्तर प्रदेश का मतदाता उनको भावी प्रधानमंत्री बनाने का सपना देखते हुए सपा को जितायेगा. सपा की बड़बोली धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद प्रेम कुल मिलाकर दबंग जातीयता तक सिमट चुके हैं. आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध मायावती के आत्मविश्वास में फिलहाल कोई गिरावट नहीं दिखती, परंतु यह साफ है कि अस्मिता की राजनीति की सीमाएं उनके राजनीतिक भविष्य को भी प्रभावित कर रही हैं. उत्तर प्रदेश के बाहर उनका असर नहीं है, न ही देशभर के दलित उन्हें अपना एकमात्र नेता स्वीकार करते हैं. कांग्रेस को अपना समर्थन बाहर से दे कर उन्होंने मनमोहन सिंह की सरकार की जान बचायी इसका आभार कांग्रेसी मानें या न मानें जनसाधारण की नजर में वह यूपीए के भ्रष्टाचार और निकम्मेपन में हाथ बंटा जनता का अहित ही करती हैं. सार संक्षेप यह है कि देश के मर्म स्थल- हिंदी पट्टी नाम से बदनाम बीमारू इलाके में जहां लोकसभा की लगभग आधी सीटों का हिसाब होता है कांग्रेस ही नहीं, सत्तारूढ़ सपा तथा प्रमुख विपक्षी दल बसपा; जेडीयू आदि 2014 में निर्णायक भूमिका निभाने की हालत में नहीं है. हां, रूढ़िवादी दकियानूसी सामंती सोच को पनपाने की कोशिश कर तथा सांप्रदायिक द्वेष को विस्फोटक बना कर ही ये दल अपने अस्तित्व को बचाने में लगे हैं. देशव्यापी शांति और सुव्यवस्था, एकता और अखंडता के लिए यह बेहद चिंताजनक है.

यहां क्षेत्रीयता के खतरे का जिक्र जरूरी है. इस अलगाववादी हिंसक असहिष्णु प्रवृत्ति को भड़काने की जिम्मेवारी भी कांग्रेस की ही है. तामिलनाडु में डीएमके के हाथों राष्ट्रहित को आंख मूंद कर बंधक रखने की यूपीए तथा कांग्रेस की नादानी का खामियाजा देश देर तक भरता रहेगा. इसका नुकसान मात्र श्रीलंका के साथ संबंधों में नहीं हुआ है, उत्तर भारत और हिंदीवालों को वैरी के रूप में देखने की बीमारी फिर से फैलने लगी है. महाराष्ट्र में ‘मराठी मानुस’ के बहाने जिन यूपी बिहारवालों को ठिकाने लगाने की आपराधिक हरकतें होती रही हैं उनकी तरफ कांग्रेस तथा एनसीपी नें आंखें मूंद रखी हैं क्योंकि शिवसेना और राज ठाकरे के कलह का लाभ उठा ही वह अपनी साझा सरकार को अक्षत निरापद रख सकते हैं. आगामी लोकसभा चुनावों में इस राज्य में हार-जीत तय करनेवाले यही असहिष्णु, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय न्यस्त स्वार्थ होंेगे ऐसा अन्यत्र धर्म निरपेक्ष बिरादरी का मानना है. कड़वा सच यह है कि आदर्श घोटाले के भांडाफोड़ ने यह बात जगजाहिर कर दी है कि जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है शासकवर्ग एक ही बिरादरी का है, जहां दलगत वैमनस्य या सैद्धांतिक विरोध की बात करना बेकार है! तेलंगाना की स्थापना पर दरजनों कलाबाजियां खाने के बाद कांग्रेस ने जो ‘फैसला’ लिया उसके लागू किये जाने के पहले ही यह बात सामने आ गयी है कि भाषाई या क्षेत्रीय टकराव उत्तर और दक्षिण या पूरब और पश्चिम के बीच ही नहीं है. यह दरार भाषाई आधार पर गठित सूबों में भी है. जम्मू-कश्मीर राज्य हो या पूर्वोत्तरी प्रदेश यहां व्याप्त सांप्रदायिकता के बारे में मुंह खोलना देशद्रोह जैसा जघन्य अपराध करार दिया जाता है. पंजाब में अकाली दल की सरकार द्वारा खालिस्तानी दहशदगर्दो का शहीदों के रूप में महिमामंडन हो या तमिलनाडु में राजीव के हत्यारों को क्षमादान की मांग ऐसे उदाहरण हैं जिनके बारे में मौन रहना ही प्रगतिशील उदार तबके में ‘राजनीतिक समझदारी’ बन गया है. कश्मीर की घाटी में हिंदू पंडितों के वंशनाशक उत्पीड़न को मानव अधिकारों का हनन कहनेवाला भी आज दुस्साहसी ही कहलाएगा. असम में बोडो तथा नाजायज विदेशी मुसलमान घुसपैठियों के बीच मुठभेड़ों को ‘सांप्रदायिक’ बता कर देश में अन्यत्र हिंसा भड़का राजनीतिक लाभ उठाने का लोभ धर्मनिरपेक्ष नेता नहीं छोड़ पा रहे. इन सबके बावजूद हम 2014 के बारे में निराश-हताश नहीं. हमारा मानना है कि इस देश में संघीय ढांचे के बारे में जो सार्वजनिक बहस शुरू हुई है वह अब जल्दी ठंडी पड़नेवाली नहीं. मीडिया की सनसनीखेज सक्रियता हो या कुशासन से त्रस्त नौजवान नागरिकों का सिविल नाफरमानी वाले जुझारू तेवरों के साथ सड़क पर उतरना अब कोई भी सरकार इन पर लगाम नहीं लगा सकती. संसद से दागी सजायाफ्ता सदस्यों के निष्कासन और उच्चतर न्यायपालिका की सक्रियता ने आकांक्षाओं के जिस ज्वार को जन्म दिया है वह एकाएक थमने वाला नहीं. अब तक ‘माई-बाप’ सरकार के आगे हाथ फैलाने वाले हम-आप अब राजनीति में प्रत्यक्ष भागीदारी का स्वाद चख चुके हैं. देश की एकता और अखंडता नहीं, तख्तनशीनों के न्यस्त स्वार्थ ही इस उथल-पुथल से संकटग्रस्त हैं.

आंतरिक सुरक्षा के लिए सुशासन जरूरी

एन मनोहरन

आंतरिक सुरक्षा मामलों के जानकार

बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण लोगों के बीच गहरा असंतोष पैदा हो गया है . इसने देश की आंतरिक सुरक्षा के समक्ष चुनौती खड़ी की है. आंतरिक सुरक्षा के दृष्टिकोण से नये वर्ष के संदर्भ में यही कहा जा सकता है सुशासन और नवीनतम तकनीक के इस्तेमाल से ही हम इस दौड़ में जीत सकते हैं. सुशासन से ही लोगों के गुस्से को शांत किया जा सकता है और शांति कायम की जा सकती है.

गवर्नेस और आंतरिक सुरक्षा आपस में गहराई से जुड़े हुए मसले हैं. गुड गवर्नेस यानी सुशासन का आशय पूर्ण जवाबदेही, ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ भागीदारी, उत्तरदायी, भेदभाव रहित और जिम्मेवार प्रशासन से है. इसके माध्यम से ही समग्र विकास (शिक्षा, आर्थिक और ढांचागत विकास, रोजगार के अवसर, प्राकृतिक संसाधनों आदि) का सपना साकार किया जा सकता है. इतना ही नहीं सुशासन के तहत शिक्षा के प्रचार-प्रसार से लोगों के नैतिक चरित्र में सुधार भी लाया

Undefined
2014 की नयी राजनीतिक उम्मीद 4

जा सकता है ताकि उनमें सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, पारस्परिकता और असहमति के स्तर पर सुधार हो सके. संक्षेप में कहें तो सुशासन की पहचान वैधता, भागीदारी और वितरण से होती है. सुशासन के लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक, आर्थिक, कार्यकारी और न्यायिक प्राधिकारी लोग इस तरह अपने दायित्वों का निर्वहन करें कि आम लोग अपने अधिकारों और विवादों को कानून के दायरे में रह कर हल कर सकें.

बदहाल आंतरिक सुरक्षा की स्थिति में सुशासन की कल्पना नहीं की जा सकती. अगर शासन अक्षम और भ्रष्ट प्रशासन द्वारा संचालित हो, तो आंतरिक सुरक्षा की बात करना बेमानी है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है, ‘भ्रष्टाचार सुशासन की जड़ पर आघात है. यह तेज विकास की राह में अवरोधक है. यह समग्र विकास की कोशिशों में सबसे बड़ा नकारात्मक सवाल है. यह न सिर्फ हमारी छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धूमिल करता है, बल्कि अपने लोगों के बीच भी शर्मिदगी का सबब बनता है.’ बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण लोगों के बीच गहरा असंतोष पैदा हो गया है और देश की आंतरिक सुरक्षा के समक्ष चुनौती खड़ी हो रही है. राजनीतिज्ञों, अपराधियों और नौकरशाहों के बीच गंठजोड़ बढ़ रहा है.

देश की मौजूदा स्थिति के कारण आर्थिक विकास की राह प्रभावित हो रही है. वस्तुओं और सेवाओं की लागत में बढ़ोतरी के कारण अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में भी हम पिछड़ते नजर आ रहे हैं. जबरन उगाही, सुरक्षा प्रदान करने के नाम पर लेवी वसूली, कार्ययोजनाओं को पूरा करने में विलंब और इंफ्रास्ट्रर निर्माण की लागत में बढ़ोतरी के कारण देशी-विदेशी निवेशकों में असुरक्षा की भावना है. आर्थिक प्रगति की सुस्त रफ्तार भी सुरक्षा के दृष्टिकोण से खतरा पैदा करता है.

अराजक तत्व सुशासन की इन्हीं कमजोरियों का लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं. देश के भीतर जहां कहीं भी संभव हो, अलगाववादी और उग्रवादी समानांतर शासन चलाने की कोशिश कर रहे हैं. नक्सली जन-अदालत लगा कर त्वरित और भयावह न्याय कर रहे हैं. कई इलाकों में यह स्थानीय स्तर पर शिकायतों के निपटारे का तरीका बन गया है. इसका मतलब क्या है? ऐसे उदाहरण न्यायिक व्यवस्था की हालत को प्रदर्शित कर रहे हैं. दूर-दराज के इलाके तक सुशासन का नहीं पहुंच पाना ऐसे हालात के लिए जवाबदेह है. ऐसी परिस्थिति के कारण ही नक्सली या अलगाववादी खुद को बेहतर विकल्प के तौर पर पेश कर रहे हैं.

भारत की आतंरिक सुरक्षा को कई मोरचे से चुनौती मिल रही है. केंद्र व राज्यों के बीच समन्वय में कमी के कारण संघीय सुरक्षा प्रभावित हो रही है. गृह मंत्रलय हिंसा को बढ़ानेवाले 30 से ज्यादा संगठनों पर पाबंदी लगा चुका है. लेकिन इसके बावजूद ऐसे संगठन फल-फूल रहे हैं. आतंकी और साइबर हमले जारी हैं. आतंकी संगठनों ने नये नामों से देश के कई छोटे-बड़े शहरों में अपनी इकाइयां स्थापित कर ली हैं. पैर पसारते आतंकी संगठनों से निबटने के लिहाज से देश की तैयारी अभी भी निपुण देशों के स्तर तक नहीं पहुंच सकी है. 2013 में आतंकवाद ने पिछले कई दशकों की तुलना में नया स्वरूप धारण किया है और ऐसा अगले वर्ष भी जारी रहने की आशंका है. आतंकी जिन तकनीकों व शस्त्रों का इस्तेमाल कर रहे हैं, उनमें कई तो हमारे सुरक्षा एजेंसियों के पास भी मौजूद नहीं हैं. पूर्व में 26/11 की घटना का उदाहरण हमारे सामने है.

नयी उभरती चुनौतियों के मद्देनजर भारत को सुरक्षा-सुशासन की ओर ध्यान देना होगा. सरकार को बदलती परिस्थितियों के अनुसार न सिर्फ रणनीति में बदलाव लाना होगा, बल्कि नये संसाधनों का भी इस्तेमाल करना होगा. अगर बात सीमा सुरक्षा की करें तो कारगिल युद्ध के बाद इस दिशा में सुधार के कई नये मानदंड तय किये गये. लेकिन गुजरे वर्ष में जिस तरहे से पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ की कोशिशें सामने आयीं, वह तय मानदंड को पूरा न करने का उदाहरण है. बोधगया, पटना जैसे शहरों तक आंतकी वारदातों ने आंतरिक सुरक्षा को और भी कठिन बना दिया है. आतंकवाद का खतरा बढ़ता जा रहा है. आतंकवादियों के पास केमिकल, बॉयोलॉजिकल, रेडियोलॉजिकल और परमाणविक बमों का खतरा बढ़ता दिख रहा है.

ओड़िशा में आये तूफान का सामना तो हमने बेहतर तरीके से किया, लेकिन किसी बड़े आतंकी घटनाओं से निबटने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण न ही राष्ट्रीय स्तर पर, न ही राज्य, जिला या दूर-दराज के इलाकों में पूरी तरह तैयार दिखता है. नक्सलवादियों से लेकर आतंकियों तक विस्फोट के लिए आइइडी का इस्तेमाल कर रहे हैं. आइडी में उर्वरकों में इस्तेमाल होने वाले रसायन अमोनियम नाइट्रेट एक मुख्य घटक है. सरकार को इसके सप्लाई चेन पर विशेष निगरानी करने की जरूरत है.

आकाश, जमीन और समुद्र से आनेवाले खतरों के बाद एक बहुत बड़ी चुनौती साइबर हमले से बचाव की भी है. मौजूदा समय में यह आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण मसला है. पिछले वर्ष कई सरकारी व गैर सरकारी सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण वेबसाइटों को हैक करने की कोशिशें हुईं. इंडियन कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम ने विश्लेषण के आधार पर सुरक्षात्मक उपाय बताये हैं, जिन्हें समय रहते अमल में लाना चाहिए.

गृह मंत्रलय की खुफिया डाटाबेस तैयार करने के लिए महत्वाकांक्षी नेटग्रिड योजना को जल्द से जल्द यथार्थ रूप देने की पहल होनी चाहिए. जहां कहीं भी केंद्र सरकार या राज्य सरकारों द्वारा सुरक्षा मुहैया कराने की बात हो, उसमें निजी क्षेत्र की साङोदारी बेहद कम या नाममात्र की है. आंतरिक सुरक्षा को अभेद्य बनाने के वास्ते तकनीक निर्माण के क्षेत्र में सहयोग के लिए निजी क्षेत्र को भागीदार बनाने की जरूरत है.

कुल मिलाकर, आंतरिक सुरक्षा के दृष्टिकोण से नये वर्ष के संदर्भ में यही कहा जा सकता है सुशासन और नवीनतम तकनीक के इस्तेमाल से ही हम इस दौड़ में जीत सकते हैं. सुशासन से ही लोगों के गुस्से को शांत किया जा सकता है और शांति कायम की जा सकती है. हालांकि सुशासन मात्र से ही आतंरिक सुरक्षा के हरेक मोरचे पर पूरी कामयाबी हासिल नहीं हो सकती, लेकिन इसके बगैर खतरा तेजी से बढ़ेगा.

अध्यात्म की ओर लौटने की जरूरत

सृष्टि के नियम के खिलाफ खिलवाड़ हो रहा है. प्रकृति के खिलाफ खिलवाड़ के कारण पर्यावरण का संकट खड़ा हो रहा है. यह मानवता पर संकट है. यह देसी से ज्यादा पश्चिमी देशों द्वारा प्रदत संकट है. पश्चिम का अंधाधुंध अनुसरण के कारण हमने खुद को संकट के बादल के नीचे ला खड़ा कर दिया है.

स्वामी अग्निवेश

सामाजिक कार्यकर्ता

वैश्विक स्तर पर आध्यात्मिक ता के अभाव के कारण सोच का संकट पैदा हो गया है. 21वीं शताब्दी में जहां मानव कल्याण और बेहतर समाज की स्थापना की बात प्रबल तरीके से होनी चाहिए, उसकी जगह युद्ध हो रहे हैं. एक देश की दूसरे देश के प्रति शत्रुता बढ़ती जा रही है. सीरिया, इस्नयल, मिस्र, सूडान और अरब देशों में हिंसा बढ़ती जा रही है. अन्य छोटी जगहों पर भी या तो युद्घ हो रहे हैं या वहां युद्ध की संभावना प्रबल होती दिख रही है. हम शांति स्थापित करने में असफल हुए

Undefined
2014 की नयी राजनीतिक उम्मीद 5

हैं. समाज के अंदर भी कुछ ऐसा ही भाव परिलक्षित हो रहा है. मनुष्य-मनुष्य के बीच वैमनस्यता की खाई गहरी होती जा रही है. और यह सब धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर हो रहा है. हम भूल चुके हैं कि हमारे विधाता एक ही हैं, चाहे हम उन्हें जिस भी नाम से पुकारें. मजहब के नाम पर हिंसा का दौर चल रहा है. यह बेहद पीड़ादायक है. वसुधैव कुटुंबकम यानी दुनिया ही मेरा कुटुंब या परिवार है. ऋग्वेद के एक श्लोक के माध्यम से यह शिक्षा प्राचीनकाल से ही दी जा रही है. लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया जा रहा है. संकीर्ण सोच के व्यक्ति ही ‘यह मेरा है, वह तेरा है या अपने-पराये’ की बात करते हैं. उत्तम चरित्र के व्यक्तियों के लिए तो पूरी दुनिया ही एक कुटुंब है. एक परिवार है.

सृष्टि के नियम के खिलाफ खिलवाड़ हो रहा है. प्रकृति के खिलाफ खिलवाड़ के कारण पर्यावरण का संकट खड़ा हो रहा है. यह मानवता पर संकट है. यह देसी से ज्यादा पश्चिमी देशों द्वारा प्रदत संकट है. पश्चिम का अंधाधुंध अनुसरण के कारण हमने खुद को संकट के बादल के नीचे ला खड़ा कर दिया है. केदारनाथ की त्रसदी इसी कारण हमने ङोली. अध्यात्म के नाम पर वैज्ञानिक सोच होनी चाहिए, लेकिन समाज में अंधश्रद्धा समाप्त होने के बजाय बढ़ती जा रही है. पाखंड का बोलबाला है. अध्यात्म को धार्मिक प्रतिष्ठानों ने हाइजैक कर लिया है. अध्यात्म के ज्ञान के लिए शुद्ध रूप में वेदों की ओर लौटना चाहिए. सामाजिक समस्याओं का निराकरण इसी में है. जन्मगत जात-पात की दीवारें पूरी तरह टूटी नहीं हैं. बथानी टोला नरसंहार में 50-60 लोग मारे गये थे. लचर सरकार व न्याय के अभाव में इसके दोषी आजाद घूम रहे हैं. इतने बड़े नरसंहार को अंजाम देनेवालों को पकड़ पाने में सरकार नाकाम रही. ऐसे में सामाजिक समरसता की बात कैसे की जा सकती है!

यौन हिंसा के खिलाफ कड़े कानून बन गये, लेकिन वारदात में कमी नहीं आयी. शराबखोरी और मांसाहार का सेवन बढ़ता जा रहा है. प्रतिदिन सौ करोड़ पशु-पक्षियों को मार कर लोग अपना भोजन बना रहे हैं. ऐसे में जानवरों से व्यवहार पर कैसे लगाम लग सकेगा? शिक्षा में नैतिक सदाचार का पाठ समाप्त हो गया है. बच्चों व युवाओं में नैतिक गुणों के लिए नैतिक शिक्षा बेहद जरूरी हो गयी है. हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ने के ये ही प्रमुख कारण हैं.

2014 में उम्मीद की कई नयी किरणों निकलती नजर आ रही हैं. दिल्ली चुनाव से आम आदमी को ताकत मिली है और यह आगे आनेवाले दिनों में भी मजबूती प्रदान करती दिख रही है. अब लगने लगा है कि आम आदमी बड़े-बड़े नेताओं व पार्टियों का मोहताज नहीं है. हालांकि अंतिम व्यक्ति तक ऐसी ताकत पहुंच चुकी है, यह कहना अभी मुनासिब नहीं होगा. लेकिन कम से कम मध्यमवर्गीय लोग अपने अधिकारों के प्रति सचेत जरूर हुए हैं. जातिवाद, धर्म-संप्रदाय, बाहुबल और पैसे के बोलबाले पर लगाम लगता दिख रहा है.

इसके साथ ही एक बड़ा मौलिक सवाल आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन से जुड़ा है. इस ओर भी उम्मीदें बलवती होती दिख रही हैं. आजादी के 65 साल के बाद आदिवासी समाज में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जगी है. उदाहरणस्वरूप, झारखंड, ओड़िशा राज्यों में सरकार ने कॉरपोरेट घरानों के साथ सैकड़ों एमओयू पर हस्ताक्षर किये, लेकिन जबरदस्त तरीके से विरोध के कारण अमल में नहीं आ सके. लेकिन यह डगर लंबा है और अभी भी लोगों में जागरूकता पूरी तरह से नहीं आ सकी है. सांस्कृतिक, सभ्यता की पहचान को बरकरार रख कर मजबूती से संगठित होना होगा.

बातचीत : कमलेश कुमार सिंह

इंडिया-भारत के बीच तनाव कम करना जरूरी

मोहन गुरुस्वामी

वरिष्ठ अर्थशास्त्री

भारत में वर्ष 2014 में सबसे बड़ी चुनौती चालू बचत घाटे को काबू में करने की है. दूसरी चुनौती मनी सप्लाई यानी मुद्रा छापने की आदत में बदलाव लाने की है. क्योंकि जब कभी पैसा कम हो जाता है, हम नोट छाप लेते हैं. इससे दाम बढ़ जाता है. नोट ज्यादा हो जाते हैं, जबकि समान उतना ही रहता है. महंगाई में जो बढ़ोतरी होती है, उसके दो कारण होते हैं. पहला कारण उत्पादन में गिरावट है, जबकि दूसरा कारण उत्पादन वही रहा, लेकिन उसके मुकाबले ज्यादा पैसा आ गया. ऐसी स्थिति में भी महंगाई बढ़ती है. भारत के 25 करोड़ परिवारों में से तीन करोड़ परिवार सरकारी मुलाजिम हैं. इनके पास ‘पे कमीशन’ से पैसा बढ़ता है. बड़ी कंपनियों में भी अनेकानेक सुविधाएं और महंगाई भत्ता मिलता है. इसलिए ऐसे परिवारों को कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है. इनके पास जब ज्यादा पैसा आता है, तो उनके आसपास रहनेवाले लोग भी दाम बढ़ा देते हैं. लेकिन दूसरी ओर नये सेक्टर यानी संगठित क्षेत्र, जो रेफ्रिजेरेटर या मोटर बनाते हैं, उनका दाम वही होता है. चाहे वह भारत में खरीदें या चीन में, दाम लगभग बराबर होता है. लेकिन यदि आप टमाटर या सब्जी खरीदें, तो उसका दाम अमेरिका में अलग, चीन में अलग और भारत के अलग-अलग शहरों में अलग होता है. किसान को देसी दाम पर अपने सामान को बेचने को कहा जाता है, जबकि किसान से खरीदे गये सामान को विदेशी दाम पर बेचा जाता है. यह न्यायोचित नहीं है. इसीलिए अभी इंडिया और भारत के बीच एक तनाव चल रहा है. और यह तनाव दाम को लेकर है.

इंडिया के लोग दूध, मक्खन, घी, चावल, गेहूं को कम दाम पर लेने के आदी हो चुके हैं. गांव में जो लोग रहते हैं, जो उत्पादन पर जीते हैं, उनको कम दाम देने का एक कंपल्शन हो चुका है. भारत के लोगों को जब दाम ज्यादा मिलता है या उनके उत्पादित सामानों का दाम बढ़ाने की चरचा भी होती है, तो इंडिया के लोग नाराज हो जाते हैं. देश को इस नये साल में यह तनाव दूर करने की जरूरत है. इंडिया के लोगों को यह समझना होगा कि उनके जेब में ज्यादा पैसा आ रहा है, तो भारत के लोगों द्वारा उत्पादित सामानों पर वह ज्यादा खर्च करें. आज से 20 साल पहले घरेलू आमदनी का 65 प्रतिशत खाने पर खर्च होता था, जो आज 35 फीसदी हो गया है. किसानों के उत्पादित सामान को कम दाम पर लेकर महंगे दामों पर बेच दिया जाता है. इस चक्रव्यूह से किसानों को निजात दिलाना सरकार के सामने चुनौती है. यदि सरकार इस चुनौती का मुकाबला करने में सक्षम होती है, तो आनेवाले समय में भारत के लिए बहुत बड़ी उम्मीद दिख सकती है. विडंबना यह है कि औद्योगिक संगठनों में किसानों के पक्ष में बोलनेवाला कोई नहीं है. तीसरी बड़ी चुनौती यह है कि गांव में उत्पादित वस्तुओं का वाजिब दाम मिलना चाहिए. दाम बढ़ेंगे तो उत्पादन बढ़ेगा. उत्पादन बढ़ेगा तो मार्केट बढ़ेंगे. भारत जिस चक्रव्यूह में फंसा है, उससे निकलने के लिए मार्केट को बढ़ाना होगा.

वर्ष 2014 में एक और चुनौती यह है कि इस साल लगभग एक करोड़ लोग वर्क फोर्स में आ रहे हैं, जिन्हें नौकरी चाहिए. उनके लिए नौकरियों की जरूरत होगी. आजकल उद्योग धंधे नहीं लग रहे हैं. जो हैं वे बंद हो रहे हैं या फिर बंदी के कगार पर पहुंच रहे हैं. खेत में कितने लोग काम करेंगे. अगर फैक्ट्री के लिए जमीन नहीं मिलती है, तो वह उसे कहां लगायेंगे. जमीन मिलती भी है, तो कारखाने लगाने में अन्य समस्याएं आ जाती हैं. इसीलिए इसकी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. इसके लिए कुछ नये कानून लाया जाना चाहिए. कारखाने लगाने में जोर देना चाहिए. भारत को उद्योग निर्भर देश बनाना चाहिए. यह बड़ा चुनौती है. जैसे ही फैकटरी लगायी जाती है, दूसरे दिन यूनियन के लोग पहुंच जाते हैं. उन्हें बंद कराने की कोशिश करने लगते हैं. वेतन बढ़ाने की मांग करने लगते हैं. पिछले साल छोटे, मंझोले और बड़े लाखों कारखाने बंद हुए हैं. जो देश की सेहत के लिए नुकसानदायक है. ऐसा बहुत दिनों तक नहीं चल सकता है. उपरोक्त चुनौतियों से निपटना बहुत जरूरी है.

दूसरी ओर आज जो सब्सिडी दी जा रही है, उसकी कोई जरूरत नहीं है. यह सब्सिडी उन लोगों को मिलती है, जो इसके हकदार नहीं हैं. कौन किसान गैस जलाता है? लेकिन सब्सिडी के नाम पर दूसरे लोग गैस की सब्सिडी उठा रहे हैं. डीजल पर सब्सिडी मिलती है, लेकिन उस सब्सिडी से शहर में बड़ी-बड़ी गाड़ियां चलायी जा रही हैं. जबकि इस सब्सिडी का आम आदमी से कोई ताल्लुक नहीं है. इस विषय में उन लोगों को भी सोचना चाहिए, जो बिना सब्सिडी के अपना घर-परिवार चला सकते हैं. आखिर दूसरे के नाम पर मिलनेवाली सब्सिडी का उपभोग आप कबतक करते रहेंगे? सब्सिडी का इस्तेमाल पाठशाला बनाने में, अस्पताल बनाने में, फैक्ट्री बनाने आदि में किया जाना चाहिए, जिससे गांव के आदमी का भला हो सके. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने पानी और बिजली माफ करने की बात कही, तो जनता ने उन पर आंख बंद कर भरोसा कर लिया. पानी पर सब्सिडी देने का ऐलान किया गया है. लेकिन दिल्ली में मात्र 50 फीसदी घरों में पानी का नल है. होना यह चाहिए कि जिन्हें पानी नहीं मिल रहा है, उन्हें पानी देने की व्यवस्था होनी चाहिए. कहने का मतलब यह है कि लोकलुभावन वायदों और नारों से परहेज किया जाना चाहिए. क्योंकि यह भी एक प्रकार की रिश्वत है. यदि आज कोई कह दे कि वह 12 हजार रुपये देश के प्रत्येक नागरिक को बिना कुछ किये देगा, तो जनता उसे ही वोट देगी. लेकिन इतने पैसे कहां से आयेंगे? इसलिए वर्ष 2014 में इन बातों पर राजनेताओं के साथ ही आम नागरिक को भी सोचना चाहिए.

हम नये वर्ष को भी पुराने वर्ष की तरह लेते हैं या फिर कुछ नया करने का जोखिम उठाते हैं, यह बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है. क्योंकि इन दिनों राजनीति में लोक-लुभावन चीजों का बोलबाला चल पड़ा है. आज भी गांव में सड़कें नहीं हैं. अस्पताल और स्कूल नहीं हैं. सरकार को उस पर ध्यान देना चाहिए. सब्सिडी के पैसे आम आदमी की जरूरत की चीजों पर खर्च करना चाहिए. गांव में यह सब न होने का एक बड़ा कारण यह है कि शहर के लोग गांव की सब्सिडी के पैसे को खा जा रहे हैं. आज सब्सिडी पर चार लाख करोड़ रुपये खर्च किया जा रहा है. यदि इसमें से दो लाख करोड़ भी गांव पर खर्च कर दिया जाये, तो गांवों की तसवीर बदल जायेगी. चार लाख करोड़ में सड़क, रेल, फैकटरी आदि क्या-क्या लगायी जा सकती है, जिससे आम आदमी का भला होगा. यह चुनौती है. इस पर सरकार को नये साल में विचार करना होगा. निश्चित तौर पर आज देश में एक नयी हवा चलती दिख रही है. लेकिन साथ-साथ लोकलुभावन वायदों और रिश्वतखोरी भी बढ़ती जा रही है. एक तरफ कांग्रेस परिवार को बढ़ावा दे रही है, तो दूसरी ओर भाजपा सारी समस्याओं के लिए मुसलमानों और पाकिस्तान को जिम्मेवार ठहराती है. क्षेत्रीय दलों की आकांक्षाएं अलग हैं. इसलिए इन सब चीजों पर सबको मिल कर विचार करना होगा.

भारत विविधताओं भरा देश है. हमलोग एक दूसरे से जुड़े हुए है. हमलोगों का जो इतिहास है, वह बहुत ही रोमांटिक है. इसमें शाहजहां, सिकंदर, अकबर, बुद्ध, महावीर, अशोकसब हमारे हैं. चाहे वे किसी भी देश या प्रांत से भारत आये हों. यही नयी राष्ट्रीयता भारत की है. हम ताजमहल को देख कर चकित होते हैं, उसी तरह से अजंता या एलोरा को देख कर भी. सभी को हम अपना मानते हैं. अपने-अपने राज्य में पार्टियां कुछ बोलती हैं, लेकिन जब दिल्ली आती हैं, तो यहां वे समझौता कर लेती हैं. इसलिए भारत के संघीय स्वरूप पर किसी तरह का कोई खतरा नहीं है. सौदा जरूर हो रहा है. लेकिन यह मुद्दों पर होना चाहिए, पॉलिसी पर होना चाहिए न कि मुद्रा पर. आज भारत जिस दौर से गुजर रहा है, उस दौर से तकरीबन सभी देश गुजरे हैं. लेकिन संतुलन के साथ हमें आगे निकलना है, तभी हम 2014 में एक सुखद, स्वस्थ और निर्भीक भारत का निर्माण कर पायेंगे.

बातचीत : अंजनी कुमार सिंह

मिला-जुला रहा 2013 बड़े बदलाव की नहीं है उम्मीद

भारतीय विदेश नीति के लिहाज से 2013 मिला-जुला साल रहा. देश के आर्थिक विकास और सुरक्षा में विदेश नीति का महत्वपूर्ण योगदान होता है. 2014 में अपने पड़ोसियों समेत पूरे विश्व के साथ हमारे संबंधों की दिशा का जायजा ले रहा है यह विशेष. साथ में है समाज और अर्थव्यवस्था पर विशेषज्ञों की राय.

चुनौतियां

ऐसी संभावना कम है कि एशिया के दो उभरते देशों- भारत और चीन के बीच 2014 में रिश्तों में कोई खास सुधार होगा. यह रिश्ता दीर्घावधि में सैन्य संघर्ष से परिभाषित होगा.

उम्मीदें

ईरान और अमेरिका के संबंधों में आ रहे सुधार के मद्देनजर भारत को ईरान से कूटनीतिक और आर्थिक संबंधों को बहाल करने के दबाव से मुक्ति मिलने की संभावना है.

डॉक्टर राज वर्मा

चीन के जिलीन यूनिवर्सिटी में विजिटिंग फेलो

चीन

नयी शताब्दी में भारत और चीन के बीच रिश्ते का आधार आर्थिक रहा है. रिश्तों की दिशा तय करने में राजनीति की बजाय आर्थिक सहयोग का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. हाल के वर्षो में दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ने का कारण सीमा विवाद रहे हैं. जानकारों के अनुसार लंबे समय से चला आ रहा सीमा विवाद रिश्तों की दशा और दिशा तय करने का सबसे महत्वपूर्ण कारक है. हालांकि, बड़े फलक पर रिश्तों में बदलाव आ रहा है. जैसा कि एशिया के सत्ता-संतुलन में बदलाव आ रहा है. भारत, चीन के उभार को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है. भारत के आंतरिक और बाह्य हालात दोनों देशों के रिश्तों को नयी दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे. ऐसी संभावना कम है कि एशिया के दो उभरते देशों- भारत और चीन के बीच 2014 में रिश्तों में कोई खास सुधार होगा. यह रिश्ता दीर्घावधि में सैन्य संघर्ष से परिभाषित होगा.

पाकिस्तान

भारत और पाकिस्तान के बीच दुश्मनी जगजाहिर है. कश्मीर संघर्ष और सीमा पार आतंकवाद दोनों देशों के बीच तनाव का कारण रहा. नियंत्रण रेखा के पास भारतीय सैनिकों का सिर काटने और लगातार युद्धविराम के उल्लंघन से 2013 में दोनों देशों के बीच तनाव आसमान पर रहा. लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर सुमांत्र बोस का कहना है कि सीमापार की घटनाओं के अलावा आतंकी वारदात दोनों देशों के बीच संघर्ष के गहरे ताने-बाने की ओर इशारा करते हैं. कश्मीर, दोनों देशों के बीच विवाद महत्वपूर्ण मुद्दा है और यह विवाद गहरी शत्रुता का केंद्र रहा है. सुरक्षा पर ध्यान देने से रिश्ते के दूसरे पहलू गौण हो जाते है. दोनों देशों द्वारा द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने पर जोर देना भी पीछे छूट जाता है. दोनों देशों में प्रतिकूल घरेलू राजनीतिक माहौल, कट्टरपंथी ताकतों का दबाव और पाकिस्तानी सेना के रवैये से कूटनीतिक प्रक्रिया प्रभावित हो रही है. उम्मीद है कि नये साल में भारत-पाक रिश्तों को बेहतर करने पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है.

अफगानिस्तान

Undefined
2014 की नयी राजनीतिक उम्मीद 6

ऐतिहासिक तौर पर भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते मित्रतापूर्ण रहे हैं. नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के सैंटी डीसूजा के अनुसार भारत-अफगानिस्तान के रिश्ते का महत्वपूर्ण पहलू रहा है संस्कृति और सभ्यता का लंबा इतिहास, पिछले एक दशक में अफगानिस्तान के विकास में भारत का सहयोग करना, क्षमता विकास और आर्थिक संभावनाओं को मजबूती देना. भारत और अफगानिस्तान के आर्थिक और सामरिक हित एक जैसे हैं. सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के प्रोफेसर भरत कर्नाड का कहना है कि मध्य एशिया के प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच के लिए भारत को ईरान के छाबर बंदरगाह की जरूरत है और खनिज संपदा वाला क्षेत्र हाजीगक खुफिया कार्यो के लिए बेस के तौर पर चाहिए, ताकि पाकिस्तान पर निगरानी रखी जा सके. काबुल को भारतीय पूंजी, तकनीकी सहायता, विकास राहत और सैन्य सहायता की जरूरत है. हालांकि आतंकवाद और क्षेत्रीय अस्थिरता दोनों देशों के बीच रिश्तों के लिए बड़ी चुनौती है. यह चुनौती अफगानिस्तान को दक्षिण और मध्य एशिया से जोड़ने, क्षेत्रीय व्यापार, पारगमन और संपर्क सुविधा को बेहतर करने के सामने भी है. अगर ऐसा हो जाता है, तो पाकिस्तान को काफी आर्थिक फायदा होगा.

अमेरिका

इस साल 27 सितंबर को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के राष्ट्रपति बराक ओबामा से मिलने से पहले मीडिया ने दोनों देशों के बीच रिश्तों में किसी प्रकार के बदलाव की उम्मीद नहीं करने की बात कही थी. ऐसा माना गया कि विश्व के दो बड़े लोकतंत्र के बीच रिश्तों में भटकाव आ रहा है. पाकिस्तान, अफगानिस्तान, संयुक्त राष्ट्र में सुधार, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का मामला और आर्थिक चुनौतियों पर दोनों देशों की राय भिन्न नहीं है. सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के प्रोफेसर ब्रह्माचेलानी का कहना है कि भारत-अमेरिका का सामरिक संबंध एकतरफा और असंतुलित है. यह भारत के संचरनात्मक और सामरिक सीमा के कारण है. आनेवाले समय में दिल्ली और वाशिंगटन को संबंधों को गति देने की चुनौती है, क्योंकि अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान से वापस जायेंगे और पाकिस्तानी सेना वहां अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करेगी. सामरिक महत्व को देखते हुए आनेवाले समय में दोनों देशों के बीच संबंधों में मजबूती आयेगी.

ईरान

भारत के लिए लंबे समय से ईरान और अमेरिका के साथ संबंधों को बनाये रखने में सावधानी बरतनी पड़ी है. हाल के वर्षो में भारतने अमेरिका और यूरोपीय संघ के प्रतिबंधों के साये में ईरान के साथ आर्थिक, ऊर्जा और राजनीतिक संबंधों को बनाये रखने में सफलता हासिल की है. लेकिन ईरान और अमेरिका के संबंधों में आ रहे सुधार के मद्देनजर भारत को ईरान से कूटनीतिक और आर्थिक संबंधों को बहाल करने के दबाव से मुक्ति मिलने की संभावना है. उम्मीद है कि राष्ट्रपति हसन रूहानी के नेतृत्व में ईरान-भारत के संबंधों को मजबूती मिलेगी. खासकर ऊर्जा, व्यापार और अफगानिस्तान के मामले में. अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर और छाबर बंदरगाह से दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ने की संभावना है. हालांकि द्विपक्षीय संबंधों के समक्ष चुनौतियां भी हैं. भारत के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि मध्य एशिया को लेकर हमारी विदेश नीति में स्पष्टता नहीं है. द्विपक्षीय संबंध के मोरचे पर भारत सीधे ईरान से बात नहीं करता. इसकी वजह है अमेरिकी दबाव, लेकिन सबसे बड़ी वजह है भारत की सामरिक अक्षमता. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत ने ईरान को सार्क देशों में शामिल करने के प्रति कभी गंभीरता नहीं दिखायी है.

श्रीलंका

भारत और श्रीलंका के बीच नयी शताब्दी में दोस्ताना संबंध रहे हैं. लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर राजेश वेणुगोपाल का कहना है कि भारत-श्रीलंका सबंधों में सुरक्षा, व्यापार और निवेश, चीन और तमिल मामले प्रमुख मुद्दे रहे हैं. गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद तमिलों के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन के मामले, तमिलों को मुख्यधारा में शामिल करने और उनके पुनर्वास के मामले ने दोनों देशों के बीच संबंधों में खटास पैदा की है. अगले साल भारत में आम चुनाव होने हैं और उम्मीद कम है कि अगले साल दोनों देशों के बीच संबंधों में कोई सुधार होगा. क्योंकि तमिलनाडु की अधिकांश पार्टियां चुनाव जीतने के लिए श्रीलंका पर दबाव बनाने का मुद्दा जोर-शोर से उठायेंगी. हालांकि दोनों देशों के बीच सैन्य संबंध पहले की तरह जारी रहेंगे.

बांग्लादेश

पांच साल पहले शेख हसीना की अवामी लीग पार्टी के सत्ता संभालने के बाद दोनों देशों के संबंध काफी अच्छे हुए हैं. इस बात को इनकार नहीं किया जा सकता कि शेख हसीना ने भारत की सुरक्षा चिंताओं पर गौर किया है और वहां भारत के खिलाफ आतंक फैलानेवाले तत्वों पर कड़ी कार्रवाई की. हालांकि दोनों देशों के बीच विवादित मसले जैसे नदियों के पानी का बंटवारा, जमीन कॉरीडोर, जो भारत पश्चिम बंगाल को उत्तर-पूर्व के राज्यों को जोड़ने के लिए चाहता है, पहले की तरह बना हुआ है. साथ ही अवैध घुसपैठ और अभी भी बांग्लादेश में भारत विरोधी तत्वों की मौजूदगी भी एक बड़ा मुद्दा है. दोनों देशों के बीच बड़ी सीमा रेखा और पूरी तरह भारत से घिरे होना भी तनाव की एक बड़ी वजह है.

नेपाल

हाल के वर्षो में नेपाल के घरेलू राजनीति पर माओवादियों के बढ़े प्रभाव के साथ ही चीन के साथ आर्थिक और राजनीतिक संबंधों को मजबूती देने के कारण भारत से संबंध पहले की तरह नहीं रह गये हैं. नेपाल आंतकवादियों की शरणस्थली बन गया है. हाल में अब्दुल करीम टुंडा और यासीन भटकल की गिरफ्तारी ने इसे पुख्ता किया है. भारत द्विपक्षीय प्रक्रिया के जरिये नेपाल से सीमा पर सुरक्षा पुख्ता करने के लिए कदम उठाने पर जोर देता रहा है. लेकिन घरेलू राजनीतिक अस्थिरता, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और संसाधनों की कमी के कारण वह भारत के साथ सहयोग नहीं कर पा रहा है. लेकिन 2014 में राजनीतिक स्थिरता से हालात बदलने की उम्मीद की जा सकती है.

म्यांमार

पिछले दो सालों में म्यांमार के घटनाक्रमों ने भारत-बर्मा के संबंधों में नया अध्याय खोला है. भारत की ‘लुक ईस्ट नीति’ में वियतनाम की तरह बर्मा का महत्वपूर्ण सहयोग है. बर्मा के आंतरिक राजनीतिक हालात दोनों देशों के संबंधों की दिशा तय करेंगे. बर्मा का तानाशाही से लोकतांत्रिक देश में बदलाव, सांप्रदायिक और जातीय संघर्ष और बड़े सुधार के फैसले भारत के लिए चुनौती भी हैं और संभावनाओं का द्वार भी खोलते हैं. चुनौतियों में लंबे समय से चला आ रहा सीमा विवाद, भारत का लोकतांत्रिक ताकतों को समर्थन देना, चीन का प्रभाव और वहां के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाना और उत्तर-पूर्व के अलगाववादियों को बर्मा से हथियारों की आपूर्ति होना है. व्यावसायिक मोरचे पर भारत बर्मा के तेल और गैस भंडार तक पहुंच बड़ी चुनौती है, क्योंकि इसके लिए उसे दूसरे देशों खासकर चीन से प्रतिस्पर्धा का सामना करना होगा. नौकरशाही के अड़चनों के कारण भारत के सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा निवेश का दायरा सीमित होने के कारण निजी क्षेत्रों द्वारा निवेश करने से दोनों देशों के संबंधों में मजबूती आ सकती है.

वियतनाम

हाल के वर्षो में भारत और वियतनाम के बीच संबंध काफी बेहतर हुए हैं. चीन के साथ कटुतापूर्ण रिश्तों के कारण भारत की लुक इस्ट नीति के लिए वियतनाम एक महत्वपूर्ण देश है. हालांकि दोनों देशों के बीच सुरक्षा और राजनीतिक संबंध मजबूत हुए हैं, लेकिन व्यावसायिक और आर्थिक संबंधों को और मजबूती देने की आवश्यकता है. दोनों देशों को ऊर्जा, स्टील, फार्मा आदि क्षेत्रों में निवेश को बढ़ाने के लिए सोचने की जरूरत है. यह संस्थागत प्रक्रिया को मजबूत कर हासिल किया जा सकता है. भारत और वियतनाम के बीच प्रगाढ़ होते संबंधों ने चीन की चिंता बढ़ा दी है और 2014 में इसका भारत-चीन संबंधों पर असर पड़ सकता है.

(साभार : लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के ब्लॉग से)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें