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खुशी (सुख) की खोज !

-हरिवंश- सृष्टि के शुरू से ही शायद मनुष्य की सबसे बड़ी तलाश रही है, खुशी, सुख, प्रसन्नता की! फरवरी के दूसरे सप्ताह (वर्ष 2012) में एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे आया. इसी सुख और दुख को लेकर. इप्सोस ग्लोबल सर्वे. 24 देशों के 18000 लोगों से बातचीत कर. सर्वे के अनुसार, हंगरी, दक्षिण कोरिया, रूस, स्पेन और […]

-हरिवंश-

सृष्टि के शुरू से ही शायद मनुष्य की सबसे बड़ी तलाश रही है, खुशी, सुख, प्रसन्नता की! फरवरी के दूसरे सप्ताह (वर्ष 2012) में एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे आया. इसी सुख और दुख को लेकर. इप्सोस ग्लोबल सर्वे. 24 देशों के 18000 लोगों से बातचीत कर. सर्वे के अनुसार, हंगरी, दक्षिण कोरिया, रूस, स्पेन और इटली दुनिया के सबसे दुखी देश हैं. याद रखिए ये सभी विकसित देश हैं या कभी रहे हैं. संपन्न देश. गरीब देशों के मुकाबले आज भी इनके पास बेशुमार दौलत है. स्पेन, इटली अब आर्थिक मुसीबतों से घिरे हैं. पहले विकसित, शिक्षित और संपन्न रहे हैं. अब भी हैं.

सर्वे से पता चला है, दुनिया में पांच सबसे खुशहाल देश हैं, इंडोनेशिया, भारत, मैक्सिको, ब्राजील एवं तुर्की. गौर कीजिए, पांच सबसे दुखी देशों के मुकाबले आज भी ये मुल्क पीछे हैं. आर्थिक विकास के मौजूदा माडल के पैमाने के तहत.

शिक्षा, इंफ्रास्ट्रर, प्रति व्यक्ति आय, बिजली, सामाजिक सुरक्षा, जीडीपी के मापदंडों पर. सबसे दुखी देशों में इटली और स्पेन तो वर्ष-दो वर्ष से आर्थिक चुनौतियों से घिरे हैं. इनके आर्थिक-सामाजिक विकास का लंबा अतीत रहा है. दक्षिण कोरिया और रूस तो संपदा, तकनीक एवं आर्थिक विकास में दुनिया के श्रेष्ठ मुल्कों में से हैं. फिर भी सबसे दुखी हैं.

सर्वे की तीसरी श्रेणी भी है. वैसे देश भी हैं, जो जी रहे हैं, जहां न खुशी है, न गम. जीने में कोई रस नहीं, पर जीये जा रहे हैं. कहीं गहरा गम है. उदासी है. सूनापन है. ऐसे कौन मुल्क हैं? अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और दक्षिण अफ्रीका. अंतिम मुल्क दक्षिण अफ्रीका को छोड़ दें, तो अन्य चार देश (अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी) आज भी दुनिया के लिए अपने विकास, जीवन शैली, प्रगति के कारण रोल माडल हैं. ये नहीं होते, तो आज दुनिया यहां न होती.

इनका स्वर्णिम अतीत, आधुनिक संपन्नता, श्रेष्ठता (एक्सीलेंस), शासनकला आज भी दुनिया के अन्य देशों के लिए श्रेष्ठ मापदंड हैं. विकास-आधुनिकता प्रगति का पैमाना. जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में श्रेष्ठता मापने के पैमाने या मापदंड भी इन मुल्कों की व्यवस्था, जीवन या कार्यप्रणाली (सिस्टम) से ही उपजते-निकलते हैं. इन्होंने दुनिया को गुलामी दी, तो मानव समुदाय की स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की आवाज भी इनकी गलियों से ही गूंजे. आज भी इन देशों की संपन्नता, श्रेष्ठ जीवन शैली गरीब देशों के लिए ईर्ष्या के प्रसंग हैं.

इंद्रियभोग या भौतिक भोग की दुर्लभ चीजें तो इन्हीं मुल्कों की सरहदों में सीमित हैं. बेस्ट हेल्थ तकनीक, सर्वश्रेष्ठ नागरिक व्यवस्था, सुंदर, भव्य व साफ-सुथरे शहर. सृजन या शिक्षा में लगी दुनिया की सर्वश्रेष्ठ-बेहतरीन संस्थाएं. एक पंक्ति में कहें, तो आज दुनिया में स्वर्ग की जो भी कल्पना है, वह तो इन्हीं चार मुल्कों में है. फिर भी ये मुल्क खुश नहीं हैं. इसी सर्वे में गरीब भारत सबसे खुशहाल देशों में है. क्यों और कैसे?

दुनिया की सर्वाधिक मशहूर पत्रिका द इकनामिस्ट (25 फरवरी 2012) में खुशी मापने पर (मेजर्स आफ वेलबीइंग) पर टिप्पणी है. दुनिया में आर्थिक मंदी के बावजूद दुनिया खुशगवार हुई है. संसार में जो वित्तीय संकट हुआ, उसके बाद दुनिया खुश है. संकट के पहले की अपेक्षा. यानी साफ है कि आर्थिक कारण मनुष्य या समाज की खुशी पर निर्णायक असर नहीं डालते. यह तथ्य या निष्कर्ष सर्वे पर आधारित है. 24 देशों के 19 हजार वयस्क लोगों से हुई बातचीत के आधार पर. 2007 (विश्व आर्थिक संकट के ठीक पहले) में इसी सर्वे (इप्सोस सर्वे) में 74 फीसदी लोगों ने खुद को खुश बताया था. अब 77 (विश्व आर्थिक संकट के बाद) फीसदी लोग खुद को खुश बता रहे हैं.

अब समाज की खुशी मापने के अलग-अलग सर्वे विकसित हो गये हैं. वेलबीइंग (बेहतरी) या लाइफ सटिसफेक्शन (जीवन संतुष्टी) या द वर्ल्‍ड वैल्यूज सर्वे (दुनिया के मूल्य सर्वेक्षण) हो रहे हैं. पर इस ताजा सर्वे में खुशी में कमी (पहले सर्वे की तुलना में) सबसे अधिक उन देशों में हुई, जो आर्थिक रूप से सबल देश हैं. इंडोनेशिया, ब्राजील और लगातार दुखी रहनेवाला देश रूस में.

राजनीति विज्ञान की अवधारणा है कि समाज में जैसे-जैसे समृद्धि आती है, संपन्नता आती है, लोग खुशहाल होते हैं. यह भी माना जाता है कि किसी एक देश में प्रतिव्यक्ति आमद 2500 डालर प्रतिवर्ष की सीमा से बढ़ जाती है, तो वह खुशहाल हो जाता है.

इस अवधारण के तहत खुशहाल देश का मिजाज (द स्पिरिट लेवल) बेहतर होता है. 2009 में इस शीर्षक के तहत, द स्पिरिट लेवल चर्चित किताब भी आयी. इसके अनुसार पहले से संपन्न या औसत समृद्धि वाले लोगों के यहां अगर आमद कम भी बढ़ती है, तो वे खुश रहते हैं. अनेक विशेषज्ञ यह मानते हैं कि एक सीमा के बाद आर्थिक विकास या निजी जीवन में पैसे की आमद या समृद्धि अर्थहीन है.

दक्षिणपंथी राजनेता, जैसे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरान और फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने नये प्रोजेक्ट शुरू किये हैं ‘ग्रास नेशनल हैपीनेस’. समग्र राष्ट्रीय खुशी के अध्ययन के लिए. पर इप्सोस अध्ययन ने साबित किया है कि सबसे अधिक खुश समृद्ध देश नहीं है, जैसे सामान्य लोग मान लेते हैं. पर गरीबी और मध्य आय वाले देश अधिक खुशहाल हैं, जैसे इंडोनेशिया, भारत और मैक्सिको सबसे खुशहाल देश हैं, इस सर्वे के अनुसार.

इसी द इकानामिस्ट पत्रिका में (14 मई 2011) हैपीनेस (खुशी) पर एक और किताब की समीक्षा छपी. पुस्तक का नाम है, फ्लोरिश. इस किताब के लेखक मार्टिन सेलिगमैन, अमेरिकी साइकालाजिकल एसोसिएशन (अमेरिकी मनोवैानिक संघ) के पूर्व अध्यक्ष हैं. वह कहते हैं कि अब खुशी (हैपीनेस) की अवधारणा दुनिया की राजनीति के सार्वजनिक एजेंडा के बीच (सेंटर स्टेज) में है. यह सरकारों का काम है कि कि वे अपने नागरिकों को खुश रखें. पहले यह माना जाता था कि खुशी, निजी प्रसंग है.

इस मन:स्थिति का होना न होना, व्यक्ति सापेक्ष है. यह सामूहिक या सार्वजनिक एजेंडा नहीं हो सकता. राज्य सत्ता या सार्वजनिक जीवन का निजी खुशी से क्या लेना-देना? परहित सुखाय निजी जीवन हो सकता है, पर सरकार स्तर पर यह कैसे संभव है. यह अलग प्रसंग है कि इस सार्वजनिक खुशी के लिए हो. बौद्धिकों या विद्वानों की रूचि आर्थिक विकास दर में है. पर अब भूटान के आकर्षक अनुभव के बाद अनेक बौद्धिक भी ग्रास डोमेस्टिक हैपीनेस (समग्र घरेलू प्रसन्नता) का अध्ययन करने लगे हैं.

अपनी इस किताब के बारे में मार्टिन कहते हैं कि इसका पहला पेज ही सावधानी से वैज्ञानिक पद्धति के तहत विकसित है.

इस किताब को इस तरह तैयार किया गया है, जो डिप्रेशन (अवसाद) और एंक्जाइटी (चिंता) को घटाएं और आत्मअनुशासन बढ़ाए. इस किताब में चर्चा है कि एक सप्ताह तक लगातार डायरी लिखें कि आज क्या अच्छा हुआ और क्यों? (वाट वेंट वेल टुडे एंड ह्वाइ). फिर खुद आत्ममूल्यांकन करें, इससे जीवन में बड़ा फर्क आयेगा.

पुस्तक में उल्लेख है कि संबंधों और अपनी उपलब्धियों को नकारना अवसाद से भरता है. इस किताब में कुछ अलग तथ्य भी हैं. जैसे परिवार में बच्चे को जन्म देने का निर्णय? शोध यह बताता है कि जिनके घर बच्चे हैं, उनका जीवन, जिनके घर बच्चे नहीं हैं कि तुलना में कम संतुष्ट हैं. सेलिगमैन की पुस्तक में खुशी या प्रसन्नता को तीन तरह से आंका गया है.

अरस्तू की बुद्धिमता की धारणा (विजडम). नीत्शे की यथार्थ से रू-ब-रू होने की अवधारणा. साथ ही बेंथेमाइट की उपयोगितावाद से जुड़ी बातें. सेलिगमैन कहते हैं कि वह अरस्तू की इस बात से सहमत नहीं हैं कि मनुष्य के सभी कामों का प्रयास खुश होना होता है. अरस्तू ने इसके लिए शब्द गढ़ा ‘यूडामोनिया’. इस शब्द का अंग्रेजी तजरुंमा है, प्रसन्नता (हैपीनेस). पर मान्यता है कि इसका बेहतर अनुवाद होगा, फ्लोरिसिंग (उत्फुल्लता). सेलिगमैन का निष्कर्ष है कि खुश होने के लिए गुड कैरेक्टर (अच्छा चरित्र) चाहिए.

वह पाजिटिव साइकालोजी (सकारात्मक मनोविज्ञान) को खुश रहने के लिए एक आवश्यक विधा मानते हैं. अमेरिका में सेलिगमैन के भारी अनुयायी हैं. दुनिया के स्कूलों और विश्वविद्यालयों में, उनके बताये तरकीबों को लोग खुश होने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. उनकी टीम ने अमेरिकी सेना की कार्यरत टुकड़ियों की खुशी या मूड के अध्ययन के लिए भी एक अध्ययन पद्धति विकसित की है, जो हर वर्ष अमेरिकी सेना प्रयोग में लाती है.

इन अध्ययनों-सर्वेक्षणों से खुशी, सुख या प्रसन्नता को लेकर विकसित पारंपरिक अवधारणाओं को चोट पहुंची है. यदि खुशी का रिश्ता आर्थिक संपन्नता, भोग की चीजों के उपभोग, भव्य आलीशान महल, प्रचुर धन संपदा या अन्य भौतिक चीजों से होता, तो आज दुनिया के सबसे आगे बढ़े देश (लंबे समय से विकसित), सबसे खुशहाल होते. सुखी होते. पर ऐसा है नहीं.

याद करिए, सबसे पहले मानव विकास सूचकांक पैमाना विकसित करने के लिए पाकिस्तान मूल के एक अर्थशास्त्री प्रो. मकबूल हक (बाद में वह पाकिस्तान के वित्तमंत्री भी बने) का योगदान. इस प्रयास के कुछ ही समय बाद भूटान को केंद्र मानकर हैपीनेस इंडेक्स मापने का पैमाना भी निकला, खुशहाल देशों का सूचकांक. अगर भौतिक विकास या धन-संपदा की प्रचुरता ही खुश या सुखी होने का पैमाना होता, तो इन दोनों सूचियों में एक ही क्रम के नाम होते. पर विसंगति देखिए कि गरीब, फटेहाल मुल्क खुशहाल देशों में हैं और अमीर देश, खुशहाल सूचकांक में सबसे नीचे हैं.

खुशहाली पर यह सर्वेक्षण पढ़कर लंदन स्कूल ऑफ इकानामिक्स की भव्य पुस्तक दुकान में मिली किताब (29.09.11, लंदन) याद आयी. पुस्तक का नाम है, हैपीनेस. यह इस पुस्तक का नया संस्करण है. 2011 में पेंग्विन द्वारा प्रकाशित. इसका पहला संस्करण 2005 में आया.

पुस्तक के लेखक हैं, मशहूर अर्थशास्त्री रिचर्ड लेयर्ड. लेखक के नाम के ऊपर अंग्रेजी में एक पंक्ति है. लेसन फ्राम ए न्यू साइंस (एक नये विज्ञान के संदेश). पुस्तक कवर पर यह भी लिखा है कि इसमें प्रसन्नता के सात कारणों का भी उल्लेख है. मशहूर अखबार आबजर्वर की एक टिप्पणी है. रीड एंड टेक हर्ट (पढ़िए और दिल में उतारिए). लेखक दुनिया के जाने माने अर्थशास्त्री हैं. लंदन स्कूल ऑफ इकानामिक्स के प्रोफेसर.

उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकानामिक्स में सेंटर फार इकानामिक्स परफारमेंस (आर्थिक प्रगति अध्ययन केंद्र) की नींव डाली. सन् 2000 से वह हाउस आफ लार्ड के सदस्य हैं. वह मूलत: अर्थशास्त्री हैं. पर प्रसन्नता या सुख, उनके अध्ययन का एक मूल विषय है.

वह मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र और न्यूरोसाइंस को मिलाकर इस विषय का अध्ययन करते हैं. ब्रिटेन के संदर्भ में उन्होंने बेरोजगारी और विषमता पर गहराई से काम किया, उनके अध्ययन की बड़ी चर्चा हुई. इनके अध्ययन ने ब्रिटेन सरकार की बेरोजगारी नीति में मौलिक बदलाव के लिए रास्ता प्रशस्त किया. रिचर्ड लेयर्ड भी अपने अध्ययन के बाद मानते हैं कि यह आवश्यक नहीं है कि समाज की प्रसन्नता या खुशी का रिश्ता उसकी आय से हो.

पुस्तक के पहले संस्करण (जुलाई 2004) की प्रस्तावना में उन्होंने उल्लेख किया कि मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, मस्तिष्क विज्ञान (ब्रेन साइंस), समाजशास्त्र और दर्शनशास्त्र को मिलाकर ही जीवन के बारे में एक नयी दृष्टि विकसित हो सकती है. जीवन के लिए कौन सी नीतियां तर्कसंगत हैं, इन्‍हें भी परखा जा सकता है? इस पुस्तक के प्रकाशन के छह वर्षों बाद पश्चिम में एक नये आंदोलन की शुरूआत हुई.

द वेल बीइंग मूवमेंट्स (खुश होने के लिए आंदोलन). इसका गहरा असर पश्चिम के समाज पर है. यह आंदोलन उफान पर है. पूरी दुनिया में नीति बनानेवाले यह सवाल पूछ रहे हैं, आत्ममंथन कर रहे हैं कि क्या संपदा-संचय ही खुशहाल होने, प्रसन्न होने, सुखी होने या समाज कल्याण की मापने के सही मापदंड हैं? 2011 में अपनी पुस्तक के ताजा संस्करण में प्रो. रिचर्ड कहते हैं, ब्रिटेन के समाज में हर स्तर पर अब यह बहस चल रही है. प्रो रिचर्ड मानते हैं कि टेक्नालाजी ने खुश होने या प्रसन्न रहने के इस आंदोलन को अब एक नयी ताकत दी है.

आज लोग आसानी से एकजुट होते हैं. पुस्तक कवर के अंत में एक बड़ा सवाल है. क्या आप खुश हैं? यह उल्लेखनीय है कि आज 100-50 वर्ष पहले की तुलना में लोग अधिक स्वस्थ हैं. सुंदर, साफ और हवादार घर हैं. गाड़ियां है. अच्छे खाद्य-पदार्थ, व्यंजन हैं. पहले से बेहतर छुट्टी मनाने के अवसर हैं. पर क्या हम उतने खुश-प्रसन्न हैं, जितने 50 वर्ष पहले थे?

इन सवालों को तलाशते हुए रिचर्ड लेयर्ड दर्शन की गहराई में उतरते हैं. अर्थशास्त्र की जड़ों को निहारते हैं. ताजातरीन (लेटेस्ट) मनोवैज्ञानिक शोधों और अनुभवों पर नजर डालते हैं. वह सवाल पूछते हैं कि खुश होने या प्रसन्न होने के मूल कारण क्या हैं? कौन से प्रभावी तत्व हैं? हमें कैसे अलग ढंग से जीना चाहिए, ताकि हम अधिक सुखी जीवन जी सकें? क्यों लोगों की मदद करने से खुशी होती है? क्या संपन्नता ही निर्णायक तत्व है?

हम, एक दूसरे के मुकाबले (तुलनात्मक ढंग से) कम या अधिक सफल होते हैं? हम किस तरह अपने बदलते मानस (मूड) को नियंत्रित कर सकते हैं? ऐसे अनेक सवालों से दरस-परस करते हैं. पुस्तक के एक अध्याय में चर्चित कवि मैथ्यू आरनाल्ड की एक कविता का हवाला है.

क्या यह मामूली चीज है, धूप का आनंद उठाना, बसंत के प्रकाश के बीच होना प्रेम करना, सोचना और करना. हैपीनेस पुस्तक में एक अर्थशास्त्री (अंगरेजी कविता का भावांश) द्वारा सुख बताने के लिए उद्धृत इस कविता को पढ़ते हुए रवींद्रनाथ टैगोर याद आये. जीवन में लगातार कई दशकों तक उन्होंने रोज सूर्यास्त और सूर्योदय देखा. अकेले. चुपचाप. निहारते हुए, गुनते, नमन करते, प्रकृति की सोहबत में जीते. यूनान के एक दार्शनिक डायजिन का सुना एक प्रसंग याद आया.

यूनान की सड़कों पर लेटा डायजिन धूप सेंक रहा था. उसी समय एक युवा चिंतक कुछ प्रश्न पूछने के लिए वहां आ खड़ा हुआ. उसकी छाया पड़ते ही डायजिन की नींद टूटी. डायजिन ने कहा, मत पूछो, मत बोलो. धूप के सुख में बाधा न डालो. इस क्षण-समय को जीने दो. डूब कर. सब भूल कर. सिकंदर जब भारत जीत चुका, तो एक साधु को देखकर दिग्विजयी सम्राट को धक्का लगा. उसके चेहरे को देखकर दिग्विजयी सम्राट सिकंदर ने हीनता महसूस की. खुद को कमतर महसूस किया. क्या है इस इंसान के चेहरे पर, जो विश्व विजय के बाद भी मेरे पास नहीं है?

यह खुशी, प्रसन्नता, मुग्धता या यह बोध क्या चीज है, जिसे दुनिया तलाशती है? क्या प्रकृति इस खुशी की झलक देती है? या यह जीने की ताकत कहां से आती है? फिर अर्थशास्त्री रिचर्ड बताते हैं कि प्रसन्नता अंदर से ही आती है. हालांकि बिना अंदर के भी यह आ सकती है. यह हमारी परिस्थितियों पर निर्भर है. हमारे अंतर्कर्मों पर भी. एक कथन का उल्लेख है कि प्रसन्नता या दुख मनुष्य के टेंपरामेंट (मन:स्थिति) पर उतना ही निर्भर है, जितना भाग्य पर. इस पुस्तक में एक जगह एक कोट है कि खुश रहने के लिए जरूरी है कि हमेशा दूसरों की अंत्येष्ठि में श्मशान जाएं. श्मशान जीवन के सच से आपको रू-ब-रू कराता है.

अर्थशास्त्र मूलत: आर्थिक मामलों की पड़ताल का विषय है. पर मशहूर अर्थशास्त्री ‘खुशी’ जैसे गैर आर्थिक विषय पर क्यों बेचैनी से शोध कर रहे हैं? प्रख्यात अर्थशास्त्री कीनीश बोल्डिंग कहते हैं, अर्थशास्त्री कंप्यूटर की तरह होते हैं. उनको आप तथ्य बतायें, वे हालात बता देंगे. लेकिन मनुष्य मशीन नहीं है. अर्थशास्त्र का सारा दर्शन इसीलिए है कि वे मानव समूह को आर्थिक रूप से बेहतर बना सके. आज आर्थिक प्रगति के बाद भी इंसान बेचैन है.

रिचर्ड अपनी पुस्तक में मदर टेरेसा को उद्धृत करते हैं. वह बताते हैं, कुष्ठ रोग आज का सबसे बड़ा रोग नहीं है. न ही क्षय की बीमारी बड़ी है. पर ऐसे रोगों के साथ यह एहसास कि हम अनवांटेड (अनचाहे) हैं. अनकेयर्ड (ध्यान से वंचित) और डेजर्टेड (निर्वासित, अलग-थलग छोड़ दिये गये) हैं, सबके द्वारा, समाज के द्वारा, अत्यंत पीड़ादायक है. यह दुनिया की नयी महामारी है.

यह सवाल आध्यात्म का सवाल नहीं है. राजपाट चलाने का भी प्रसंग नहीं है.अब्राहम लिंकन ने कहा था, अधिसंख्य लोग यदि अपने मस्तिष्क में तय करते हैं कि वे खुश हैं, तो उन्हें कोई दुखी नहीं कर सकता.

रूजवेल्ट ने भी कहा, आपकी सहमति के बगैर कोई आपको हेय होने (कमतर) का एहसास नहीं करा सकता. इस पुस्तक में एक प्रयोग का भी उल्लेख है. एक समूह को कुछ दिनों तक ध्यान करा कर जांचा गया. दूसरे वैसे ही समूह को बगैर ध्यान के जांचा गया. आधुनिक मनोवैज्ञानिक यंत्रों से. निष्कर्ष निकला कि ध्यान करनेवाले समूह के लोग ज्यादा शांत, संतुष्ट और खुश हैं. पश्चिम के ये संदर्भ पढ़ते हुए गीता का प्रसंग याद आ गया. न दुख है, न सुख. न जय है, न पराजय. इस जीवन में ‘न दैन्यम, न पलायनम’ (न याचना की जरूरत है, न भागने की) ही ध्येय बने. समदृष्टि का विकसित होना ही शायद संतुष्टि का एहसास है. पर यह है, बड़ा कठिन.

इस भाव को पाना, सबके बस की बात भी नहीं. मिल भी जाये, तो बताना संभव नहीं. गूंगे के गुड़ जैसी स्थिति.

चीन दुनिया का आर्थिक संपन्न होनेवाला नवीनतम देश है. महाशक्ति बननेवाला. पर वहां भी बेचैनी है कि खुशी कैसे मिले? इसे लेकर आपस में बड़ी बहस है. चायना डेली, एशिया साप्ताहिक (फरवरी 24-मार्च 01, 2012) में हुआंग सेंग फन (ग्लोबल इंस्टीट्यूट अध्ययन केंद्र) ने एक लेख ही लिखा है कि खुशहाल विकास के लिए बौध अर्थशास्त्र चाहिए.

वह कहते हैं कि पूरी दुनिया में विकास की मौजूदा धारा या मॉडल को लेकर विवाद है. यह धारा अपूर्ण है. विषम, हिंसक समाज को जन्म देनेवाली. दुनिया के कई हिस्सों में वैकल्पिक माडलों (जो समाज-इंसान को खुशी दे सके) पर आर्थिक चिंतन हो रहा है.

इसी संदर्भ में वह फेडरीच शुमाखर की पुस्तक ‘स्माल इज ब्यूटीफुल’ की चर्चा करते हैं. 40 वर्ष पहले इस किताब ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी थी. दुनिया की पहली ऊर्जा संकट की पृष्ठभूमि में यह किताब आयी. इसके लेखक डॉ शुमाखर यहूदी, रिफ्यूजी थे. वह जर्मनी से आक्सफोर्ड आये. आक्सफोर्ड और कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़े. वह ब्रिटिश नेशनल कोल बोर्ड के आर्थिक सलाहकार बने और तत्कालीन बर्मा (अब म्यांमार) भेजे गये. आर्थिक विकास सलाहकार के रूप में.

वह बौद्ध मठ या बौद्ध बिहार में भी ठहरे. फिर उन्होंने गैर पश्चिमी दृष्टिकोण से विकास को समझा-परखा कि प्राकृतिक संसाधनों की सीमाओं में इंटरमीडिएट टेक्‍नॉलाजी (मध्यम व औसज दर्जे की तकनीक) से विकास का नया द्वार खुलता है. प्रो जान मेयर्ड कींस और प्रो. जार्ज कीनिथ गेलब्रेथ, प्रो. शुमाखर के गुरु-अध्यापक थे. बहुत ही सुंदर गद्य में प्रो. शुमाखर ने अपनी किताब लिखी है. वह मानते हैं कि हमारे दौर का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण विश्वास यह है कि हमने मान लिया है कि उत्पादन की समस्याएं हल हो गयी हैं.

वह तुरंत आधुनिक अर्थशास्त्र के इस दर्शन या स्थापना की आलोचना पर उतर गये, जो हर नयी चीज को मुद्रा (मानिटरी वैल्यू) में मापता है. उसी तरह जैसे समग्र घरेलू उत्पाद मापा जाता है. पर हकीकत यह है कि असीमित विकास का तर्क (लॉजिक अॅाफ लिमिटलेस ग्रोथ) ही गलत है. उन्होंने साफ-साफ लिखा कि पर्यावरण या प्रकृति प्रदत्त संसाधन सीमित हैं. उन्होंने उस जीवन दृष्टि के बारे में कहा, जो भौतिक है.

महज संपत्ति एकत्र करने के पीछे जुटी है. उनके अनुसार यह दृष्टि पर्यावरण को नहीं आंकती. इससे इसकी पूरी मान्यता पर ही सवाल उठता है. आज दुनिया के अनेक जाने-माने लोग 40 वर्ष पहले प्रो शुमाखर द्वारा जनसंख्या वृद्धि और ऊर्जा संसाधनों के उपभोग पर की गयी टिप्पणी को याद कर रहे हैं. वह महज सामाजिक दार्शनिक (सोशल फिलास्फर) ही नहीं थे, बल्कि व्यावहारिक दर्शक या द्रष्टा भी थे.

उनकी मशहूर पंक्ति थी, एंड आउंस आफ प्रैक्टिस इज जनरली वर्थ मोर देन ए टन आफ थ्योरी ( व्यावहारिक अनुभव का एक मामूली हिस्सा, एक टन सिद्धांतों से भी बेहतर है.) वह बड़ी कंपनियों या बड़ी संस्थाओं के छोटे होने का महत्व बताते और आंकते थे. उन्हीं दिनों लगभग 40 वर्ष पहले माओसेतुंग भी सिद्धांत और व्यवहार के आपसी सामंजस्य की बात कर रहे थे. उनका मशहूर कोट था, व्यवहारिक लोगों के बीच जाइए. उनसे सीखिए. फिर उनके अनुभवों को सिद्धांतों या मत या वाद से जोड़िए.

तब नये सिद्धांतों या मत या वाद को विकसित करिए. फिर परिष्कृत व्यावहारिक लोगों के बीच लौटिए. और उन्हें इस नये व्यावहारिक दर्शन या मत को व्यवहार में क्रियान्वयन के लिए कहिए, जो उनकी समस्याओं-चुनौतियों को हल कर सके और उन्हें मुक्ति और प्रसन्नता दे. पर एक बड़ा तबका मानता है कि दुख से, अभाव से सृजन की दृष्टि मिलती है. पीड़ा या दुख जीवन को अर्थ देते हैं. विस्तार देते हैं. एक अलौकिक दुनिया में ले जाते हैं. संवेदना के स्तर पर दुनिया से जोड़ते हैं. अज्ञेय की महत्वपूर्ण पंक्ति है, दुख मांजता है. अपने मशहूर उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ में वह दुख के दर्शन की बात करते हैं. गांधी भी प्रचुरता में जीने की बात नहीं करते थे.

अभाव में आनंद की तलाश की बात करते थे. रवींद्रनाथ टैगोर ने भी अभाव, कठिनाइयों को व्यक्तित्व के विकास के लिए जरूरी माना. अप्रैल 1902 में शांति निकेतन से उन्होंने त्रिपुरा के राजा को पत्र लिखा. उस पत्र से उनके जीवन दर्शन की झलक मिलती है. पत्र है, आइ विश टू कीप माइ स्टूडेंट्स अवे फ्रॉम आल द लक्जरीज अॅाफ यूरोपियन लाइफ एंड एनी ब्लींड इनफेचुएशन विद यूरोप. एंड दस लीड देम इन द वे आफ द स्केयर्ड एंड अनस्किल्ड इंडियन ट्रेडिशन आफ प्रावर्टी (मैं अपने छात्रों को यूरोपीय जीवन-सुविधाओं से दूर रखना चाहता हूं.

यूरोप के प्रति अंधमोह या लगाव से भी अलग रखना चाहता हूं. उन्हें भारत के पवित्र और सात्विक गरीबी की परंपरा में विकसित-पनपते देखना चाहता हूं.) रवींद्रनाथ टैगोर या गांधी, भारत के आधुनिक ऋषि थे. भारतीय ऋषियों -उपनिषदों ने भी सीमित साधनों में जीने के गुणों की बात की है.

स्वामी सत्यानंद का एक लेख पढ़ रहा था. योगविद्या के अंक, जनवरी 2012 में. दिसंबर 1983 का लिखा हुआ. इसमें शांति, संतुष्टि और आनंद को लेकर खूबसूरत वर्णन है. ‘पहले का जमाना राजा कर्ण का था. उस समय के लोग स्वर्ण-धन चाहते थे. लेकिन आज का जमाना बदल चुका है. दुनिया के जो धनी लोग हैं, जिनके पास अगाध पैसा है, वे बहुत तंग आ गये हैं. अब उन्हें मालूम पड़ने लगा है कि धन और संपत्ति से वास्तविक शांति और संतुष्टि नहीं मिलती है. यह तो केवल अपने भोग का साधन है. शांति की प्राप्ति के लिए दुनिया के सभी प्राणी हाहाकार कर रहे हैं.

विलायत के लोग जब अपने गद्देदार बिस्तरों और सुंदर-सुंदर कमरों के सारे सुख-प्रसाधनों को छोड़कर हिंदुस्तान में, बनारस और आगरा के प्लेटफार्मों पर सोते हैं, तो ऐसा लगता है कि या तो लोग पागल हो गये हैं या कोई और बात है. असली बात तो यह है कि जब आदमी भोग करते-करते ऊब जाता है. संपत्ति देखते-देखते ऊब जाता है. जब उसके मन में उपनिषदों का ज्ञान झलकता है, तब उसको यह मालूम पड़ता है कि संपत्ति, सुख का कारण नहीं है. संपत्ति केवल लोभ की पूर्ति का साधन है, सुख का साधन नहीं. असली सुख तो गरीबी है.

‘संपत्ति मनुष्य के अंदर की एक मानसिक दुर्बलता है. केवल अज्ञानी लोग मृगतृष्णा की तरह संपत्ति के पीछे भागते हैं. सभी संतों और महात्माओं ने बारंबार यह बात कही है. दुनिया आज शांति की खोज में, आत्मिक सुख की खोज में दौड़ रही है. वह आत्मिक सुख का भंडार तुम्हारे अंदर के अनुभव में सन्निहित है.जिस दिन तुम बुद्धि के परे चले जाओगे, इंद्रियों के अनुभवों के परे चले जाओगे, मन के परे चले जाओगे, तब तुमको अपने अंदर के परिपूर्ण अनुभव के फलस्वरूप एक ऐसे आनंद की सजीव अनुभूति होगी, जिसकी तुम कल्पना नहीं कर सकते.

आखिर क्या कारण है कि महात्मा लोग संसार के भोगों को छोड़कर भी आनंदित रहते हैं? क्योंकि तुम जिस आनंद को जानते हो, वह उतना ही नहीं हैं. जिस सुख को तुम जानते हो, यह उतना ही नहीं है. असली आनंद इसके भी ऊपर है. वह सभी सीमाओं से परे है. अभी तो तुमको ताजा रसगुल्ला मिला ही नहीं है, इसलिए तुम बासी पेड़ा ही खाये जा रहे हो.

‘असली आनंद की अनुभूति घर बैठे हो सकती है. स्त्री को हो सकती है. पुरुष को हो सकती है. विवाहिता को हो सकती है. अविवाहिता को हो सकती है. ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र, हिंदू, मुसलमान, ईसाई-सबको हो सकती है. इसके लिए केवल एक चीज की जरूरत है.

एक संत ने कहा था, आंखें बंद करो, जबान बंद करो और इसका मतलब होता है कि इंद्रियों को खींचो. जो इंद्रियां विषयों की ओर भागती हैं और तुम्हारे नियंत्रण के बिना भागती हैं, उन इंद्रियों को उनके विषयों से वापस लाओ. तुमको चौबीस घंटे वापस लाने को नहीं बोलते हैं. हम तुमको रसोईघर बंद करने को नहीं बोलते हैं. हम तुमको तुम्हारी दुकान बंद करने को नहीं बोलते हैं. हम तुमको बाल-बच्चे, बेटा बेटी, चाची, नानी, काकी, भतीजी आदि संबंधियों को छोड़ने के लिए भी नहीं बोलते हैं.

हम तुमको केवल एक बात बोलते हैं, घंटे-आधे घंटे के लिए ही सही, दुनिया को गोली मारो. उसमें कुछ नहीं रखा है. छह-सात घंटे तो गोली मारते ही हो. नहीं मारते हो क्या? कई लोग तो बिस्तर पर दस घंटे तक पड़े रहते हैं, शेर की तरह गुर्र-गुर्र करते रहते हैं! उस समय कहां है, तुम्हारी दुकान, तुम्हारी भाभी, चाची, नानी, ताऊ और भतीजी? सब से नाता तोड़कर बेहोशी की निद्रा में पड़े रहते हो. जब तुम आठ-दस घंटे दुनिया को भूल सकते हो, तो एक घंटा और भूल जाओ. इस भूलने ओर उस भूलने में ज्यादा नहीं, केवल एक ही फर्क है.

‘जब तुम आठ घंटे तक सारी दुनिया को भूलते हो, उस समय तुमको खुद का ज्ञान नहीं रहता है. तुमको आत्मा का ज्ञान नहीं रहता, कुछ भी ज्ञान नहीं रहता है. वह है, अज्ञान निद्रा. किंतु जब तुम एक घंटा ध्यान या जप के लिए बैठते हो, तो उस समय भी तुम दुनिया को भूलते हो.

फर्क इतना ही है कि उस समय आत्मचेतना, अंतर्चेतना, ज्ञान-चेतना की स्थिति बनी रहती है. महात्माओं ने समाधि और निद्रा में इतना ही तो फर्क बतलाया है. बाकी सब चीजें एक समान हैं. इन सब बातों को जानने और पाने के लिए तुम लोगों को मुंगेर की कर्णचौरा पहाड़ी पर स्थित गंगादर्शन आश्रम में अवश्य आना चाहिए.‘ (स्त्रोत : योगविद्या, दिसंबर 1983)

नवंबर 28, 2011 के आउटलुक अंक की आमुख कथा थी. इंडियाज हैपीयेस्ट सिटीज (भारत के खुशहाल शहर). दिलचस्प अंक.

इसमें बताया गया था कि भारत का शहरी मध्यवर्ग (जिसके पास पैसा है और सामर्थ्य है) चाहे वह मारवाड़ी हो, गुजराती हो, दक्षिण भारतीय हो, सिंधी हो, पंजाबी हो, बंगाली हो या नवधनाढ्‌य हो, वे भारत के अंदर सबसे दुखी लोग हैं. अन्य समूह उनसे कम दुखी है. इस पत्रिका के इस आमुख कथा की शुरूआत होती है, हैपीनेस स्पेशल (विशेष खुशहाली) से.

शीर्षक है, द ट्रोजेन हार्स अॅाफ हैपीनेस. उपशीर्षक है, एवर साइंस जीएलआइपी, आर द ग्रेट लीप इटूं प्राफिट, हैपीनेस हैज फ्यूज्ड वीद द डिजायर फार अटैनेबुल आब्जेक्ट एंड लाइफस्टाइलस (जीएलआइपी के बाद से द ग्रेट लीव इंटू प्राफिट यानी लंबी उछाल के बाद से हमारी खुशी उन अदृश्य इच्छाओं से जुड़ गयी, जो संभवत: दुर्लभ- … चीजों और जीवनशैली को पाना चाहती है). अमेरिकन संविधान का तो मुख्य मकसद ही है, खुशी की तलाश. 235 वर्ष पहले अमेरिकी संविधान की शुरूआत से ही, अमेरिकी इस खुशी को तलाश रहे हैं. इसे उन्‍होंने इंसान का अविभाजित नैसर्गिक अधिकार माना है.

पर अब तक खुशी उनसे उतनी ही दूर है. जब से भूटान के पूर्व राजा ने सात लाख भूटानियों की जीवन पद्धति को देखकर खुशी सूचकांक की नयी बात की, तब से पूरी दुनिया में खुशी पाने की ललक और बढ़ी है. इस पत्रिका के अनुसार भारत में 1990 तक हालात अलग थे. 1991 के उदारीकरण के बाद रिश्ते बदल गये. बच्चों और मां-बाप के बीच रिश्ते बुनियादी तौर से पश्चिमी तौर तरीकों के हो गये. परिवार के प्रति कर्तव्य बोध पीछे चला गया. संतान या पुत्रोचित धर्म पीछे चले गये. समाज का मैकडोनाल्डीकरण हुआ. माया और लोभ का प्रभुत्व बढ़ा. त्याग और समर्पण पीछे चले गये.

इस पत्रिका के सर्वे के अनुसार भारत का गुलाबी शहर जयपुर सबसे खुशहाल शहर है और अहमदाबाद सबसे दुखी. गुजरात में पैसा बहुत है, पर भ्रष्टाचार ने उनकी जिंदगी को दुखी किया है. लगभग एक-चौथाई शहरवासी (भारत) महसूस करते हैं कि उनके दुख के मूल में सरकारें हैं. इस पत्रिका के संवाददाताओं ने लोगों के मिजाज और मनोभाव को परखा. उन्होंने पाया कि गरीबी में भी खुशी है. संघर्ष में भी खुशी है.

ऐसे अनेक खुश लोगों से मिलने के बाद इस पत्रिका के संवाददाताओं का निष्कर्ष था कि हमने यह सीखा है कि पैसे से प्यार नहीं खरीदा जाता. खुशी नहीं पायी जाती. अपनी हर जरूरत और कठिनाई के बावजूद हम अंदर से उल्लसित या प्रफु ल्लित हो सकते हैं. बंगलोर वगैरह जैसे बड़े शहरों में नयी पीढ़ी या युवकों को लगता है कि उनके बीच अपनापन नहीं है. अपनत्व बोध का अभाव है.

एक बार ए.एडवर्ड न्यूटन ने कहा था, हैपीनेस इज टू वी वेरी बिजी विद द अनइंपार्टेंट (खुशी का संकेत है, महत्वहीन कामों के बीच व्यस्त होना). कुछेक लोगों की जींस में ही खुशी होती है. वे हर परिस्थिति में खुश रहते हैं.

इसके विपरीत कुछेक लोग हर हाल में दुखी रहते हैं. बदलता भारत भी नये संदर्भ में अपनी खुशी तलाश रहा है. पहले त्याग, सेवा, बलिदान, निस्वार्थ भाव से मदद में खुशी तलाशी जाती थी. आज बदलता भारत, समृद्ध होता भारत. खुशी के नये पैमाने तलाश रहा है और इस खुशी या पैमाने की कोई एक परिभाषा नहीं है.

आज पश्चिम की दुनिया में बड़ा सवाल क्या है? पर तब से आज तक विज्ञान इसे ढ़ूंढ़ रहा है. न्यूजवीक के अंक (फरवरी 27 से मार्च 5, 2012) में मस्तिष्क के कार्यकलाप के नये खोजों की जानकारी है. द न्यू साइंस आफ फीलींगस. इसमें उल्लेख है कि प्रसन्नता, तटस्थता, मस्तिष्क के किस हिस्से से आते हैं.

द इमोशनल लाइफ आफ योर ब्रेन में रिचर्ड जे डेविडशन ने इस पर सविस्तार चर्चा की है. अर्थशास्त्री रिचर्ड हैपीनेस किताब में यही तलाशते हैं (अध्याय 14 में). समाज के तौर पर, हम कहां हैं? 50 वर्ष पहले जितने खुशहाल थे, उतने क्यों नहीं हैं? हालांकि समाज का हर वर्ग लगातार संपन्न हो रहा हैं. अधिसंख्य लोगों का स्वास्थ्य बेहतर हो रहा है. जीवन समृद्ध हो रहा है. नये-नये मौके मिल रहे हैं. लोग लगातार अवसर की नयी भूमि में हैं. लेकिन हम ऐसा क्या नहीं कर पा रहे हैं, जो हमें करना चाहिए? इस सवाल को गहराई से रिचर्ड परखते हैं.

एक अर्थशास्त्री की पुस्तक में संपन्नता के बावजूद खुश न होने के कारणों की तलाश पढ़ते हुए, मुझे बालक नचिकेता की याद आयी. कठोपनिषद का प्रसंग. बालक नचिकेता को उसके पिता यम को दान दे देते हैं. नचिकेता, यम के यहां जाता है. वह नहीं हैं. भूखे-प्यासे नचिकेता तप करता है.

यम लौटते हैं और नचिकेता का संकल्प, जिज्ञासा देख खुश होते हैं. वरदान मांगने को कहते हैं. पर मृत्यु रहस्य जानने के प्रश्न के उत्तर में यम, बालक नचिकेता से कहते हैं. दुनिया के सब सुखों को ले लो, .. भोग का वरदान लो. देवताओं को जो नसीब नहीं, वे सुंदरियां, धन-दौलत ले जाओ, पर मृत्यु के बारे में मत पूछो? अद्भुत प्रसंग है, कठोपनिषद का.

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