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इलाज जड़ में है!

-हरिवंश- दिल्ली में हुई बलात्कार की घटना (दिनांक -16.12.12) के बाद 1978 याद आया. केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी, 1977 में. जनता पार्टी की. हमारी पीढ़ी युवावस्था की दहलीज पर पांव रख रही थी. बेचैन और एक बेहतर वैकल्पिक व्यवस्था की चाहत लिये. उस सपने के प्रतीक, जेपी जिंदा थे. तभी दिल्ली […]

-हरिवंश-
दिल्ली में हुई बलात्कार की घटना (दिनांक -16.12.12) के बाद 1978 याद आया. केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी, 1977 में. जनता पार्टी की. हमारी पीढ़ी युवावस्था की दहलीज पर पांव रख रही थी. बेचैन और एक बेहतर वैकल्पिक व्यवस्था की चाहत लिये. उस सपने के प्रतीक, जेपी जिंदा थे. तभी दिल्ली में एक घटना हुई, जिसने पूरे देश को झकझोर डाला.
तब न टेलीविजन थे, न मोबाइल, न इंटरनेट. पर कन्याकुमारी से कश्मीर तक और अरुणाचल से गुजरात तक देश बेचैन हुआ. रंगा और बिल्ला नाम के दो अपराधियों ने दिल्ली में ही एक लड़की के साथ बलात्कार किया. बचाने आये उसके भाई की हत्या कर दी. पूरी संसद बेचैन. जनता पार्टी में नयी व्यवस्था का सपना लेकर आये नये शासक (जनता पार्टी की नयी सरकार-सांसद) बेचैन. तब से दिल्ली में हुई बलात्कार की इस घटना (दिनांक – 16.12.12) के बीच क्या फर्क आया है? लोकतंत्र में केंद्र सरकार सर्वोपरि है.
संसद सर्वोपरि है. रंगा-बिल्ला के प्रकरण के बाद संसद में हुई बहस (1978) पलट लीजिए. तब सरकार में बैठे लोगों के बयान पढ़ लीजिए. तब के विपक्षी कांग्रेसी, और आज के सत्ताधारी कांग्रेसी लोगों के भी आंसू और चिंता जान लीजिए. तब से आज तक क्या फर्क आया है? क्या हमारे चरित्र में है, घटनाओं के बाद बेचैन होना और फिर चुप हो जाना! क्यों हम चीजों को उसकी अंतिम परिणति (लॉजिकल एंड) तक नहीं ले जा पाते? क्या हमारी राजनीति का चरित्र दोहरा है? तात्कालिक जनदबाव में अनेक वायदे करना और फिर जस का तस. इस बार भी बलात्कार के घटना के बाद अनेक महत्वपूर्ण बयान आये हैं.
सबसे महत्व की बात लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने कही है. उन्होंने कहा है कि मौजूदा कानून से मामले नहीं सुलझ रहे. गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने फरमाया है कि पांच स्पेशल फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन होगा. उन्होंने यह भी ‘बड़ी घोषणा’ की है कि बसों से काले शीशे हटा दिये जायेंगे.
यह भी एक सांसद ने कहा है कि एनडीए राज में लालकृष्ण आडवाणी रेपिस्टों (बलात्कारियों) के खिलाफ फांसी की सजा का प्रावधान का बिल लाये थे, पर वह पास नहीं हुआ. दरअसल, सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग सोते हैं. अकर्मण्य और गैर जिम्मेदार की तरह. मूल बात है कि इस सिस्टम में एकाउंटबिलिटी (जवाबदेही) तो बची नहीं. गृह सचिव आरके सिंह ने 21.12.12 को संवाददाता सम्मेलन में कहा कि पिछले वर्ष रेप मामलों में 17 फीसदी की बढ़ोतरी दिल्ली में हुई है.
जब यह बढ़ोतरी हो रही थी, तो क्या हमारी व्यवस्था सो रही थी? वह जगी होती, तो यह घटना नहीं होती. देश के गृह सचिव ने यह भी कहा कि अब ‘बहुत सख्त शासन का दौर’ होगा, क्योंकि अब गुंडागर्दी, दादागीरी या औरतों के साथ दुर्व्यहार, सहन नहीं होगा.
फिर भी लोग यकीन करने को तैयार नहीं. अगले दिन यानी दिल्ली में 22.12.12 को दिल्ली रेप घटना के खिलाफ उमड़ा जनसैलाब, इसका प्रमाण है. जिसने भी 22.12.12 को दिल्ली का दृश्य देखा है, वह कह सकता है कि यह मुल्क अब सहने को तैयार नहीं है. जयप्रकाश आंदोलन में दिनकर की एक पंक्ति, प्रेरक नारा थी, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है. पिछले चार दशकों में देश के गली-कूचे से लेकर हर बड़े आंदोलन में यह नारा गूंजा है, पर भारत की सत्ता के प्रतीक या मांद में कभी यह नारा नहीं गूंजा.
भारत की सत्ता के अभेद्य किले तक बदलाव चाहनेवाले नहीं पहुंच पाये. आजाद भारत की राजधानी दिल्ली ने बड़े-बड़े आंदोलन देखे, एक से एक बड़े नेताओं के नेतृत्व में. पर सत्ता के राजपथ पर पहली बार प्रदर्शन हुआ. वह भी बिना किसी नेतृत्व-रहनुमाई के. नेताविहीन जनता सड़कों पर. इतिहास पलटें, तो फ्रांस की क्रांति, रूस का बदलाव, हाल में ट्यूनिशिया या मिस्र में आया लोक तूफान का माहौल भी शायद धीरे-धीरे ऐसे ही बना होगा.
राष्ट्रपति भवन, नार्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, भारतीय संघ की सत्ता के सबसे प्रामाणिक और जीवंत प्रतीक हैं. उन्हें अचानक उमड़े हजारों प्रदर्शनकारियों ने घेरा. 12 दिसंबर की सुबह नौ बजे से. स्वत: स्फूर्त भीड़. कोई आयोजक नहीं, कोई नेता नहीं, कोई आवाहन नहीं. पुलिस ने शुरू के साढ़े चार घंटों में तीन बार पानी बौछार (वाटर कैनन) का इस्तेमाल किया.
बात नहीं बनी, तो आंसू गैस के गोले छोड़े गये. फिर लाठी चार्ज किया. बाद में गिरफ्तारी भी हुई. पर कितने लोगों को गिरफ्तार करेंगे? भीड़ देर रात तक उमड़ती ही रही. बड़ी संख्या में लोग घायल भी हुए, अस्पताल भी गये. फिर भी भीड़ उमड़ती रही. कड़ाके की ठंड (नौ डिग्री तापमान) के बावजूद भी. यह एक गैंग रेप के खिलाफ आक्रोश या लोकपीड़ा नहीं है, बल्कि पूरी व्यवस्था की सड़ांध के खिलाफ बेचैनी का प्रस्फुटन है.
अब लोग अपनी सुरक्षा के लिए सौदेबाजी करने को तैयार नहीं है. न नेताओं पर भरोसा करने को तैयार हैं. महिलाएं अधिक संख्या में उमड़ीं. इस बेचैन मानस को अगर सरकार या व्यवस्था समझने को तैयार नहीं, तो मुल्क का भविष्य खतरे में है. ठीक एक-डेढ़ साल पहले इसी तरह अन्ना के समर्थन में भीड़ उमड़ी थी. क्योंकि अन्ना तब एक प्रतीक के रूप में उभरे थे.
लोगों को लगा कि इस ध्वस्त व्यवस्था को शायद अन्ना आंदोलन से एक नयी ऊर्जा मिलेगी. आज अन्ना नहीं हैं या कोई नेता नहीं है. फिर भी दिल्ली का राजपथ या सत्ता का अभेद्य किला लोक आक्रोश झेल रहा है. सत्ता में बैठे लोग अब सिर्फ आश्वासन देकर नहीं बच सकते. भरोसा, झूठे वायदे अब नहीं चलनेवाले.
क्यों?
इस हालत की जड़ में, अब भी हम नहीं उतर रहे. टाइम्स आफ इंडिया के ऑनलाइन सर्वे (दिनांक 22.12.12) के अनुसार महिलाओं के खिलाफ अपराध के मूल में है कि कानून का भय खत्म हो गया है. 69 फीसदी लोग कहते-मानते हैं कि कानून का राज है ही नहीं. क्या दिल्ली की इस घटना के बाद, हम इस जड़ में उतर कर चीजों को ठीक करने को तैयार हैं?
दरअसल, यह सच सभी जान रहे हैं कि देश में कानून का भय खत्म है. सरकार चाहे किसी की हो, उसका इकबाल नहीं. केंद्र से लेकर राज्यों तक, कानून का प्रताप खत्म हो रहा है.
पर ये बातें या ये अनुभव, राजनेता, घटनाओं के बाद ही क्यों कहते हैं? मीरा कुमार ने यह अर्थपूर्ण बयान दिया है कि मौजूदा कानून से मामले नहीं सुलझ रहे. क्या पहले से ही सरकार, शासन चला रहे लोगों को यह नहीं मालूम? फिर उसे दूर करने की कोशिश क्यों नहीं होती? यही मूल सवाल है. रोग सब पहचान रहे हैं, पर इलाज ढूंढ़ने को कोई तैयार नहीं. क्यों?
एक वजह यह है कि जिस दिन सत्ता में बैठे लोगों के घरवालों के साथ ऐसा होने लगे, तब वे निश्चित रूप से इसका इलाज ढूढ़ेंगे. संविधान बदल कर, सख्त कानून बना कर.
दरअसल, इस देश का मौजूदा सिस्टम कोलैप्स (ध्वस्त) हो गया है. एक सड़क बनाने में यहां आठ वर्ष लगते हैं, जहां दो-तीन वर्ष लगना चाहिए. जहां दो-तीन वर्ष में न्याय मिलना चाहिए, वहां दस-बीस वर्ष लगते हैं. आजकल केंद्र सरकार के अनिर्णय की स्थिति को देख कर अंगरेजी में एक मुहावरा चल पड़ा है. कहते हैं, पैरालिसिस इन एक्जीक्यूटिव डिसिजन मेकिंग (कार्यपालिका के फैसले में पक्षाघात). यानी फैसला नहीं करना.
यह हाल हर स्तर पर है. मंत्री से अफसर और क्लर्क तक इस पक्षाघात के शिकार हैं. निचली स्तर की अदालत में पग-पग पर भ्रष्टाचार और अव्यवस्था है. यहां न्याय पाने की संभावना 50 फीसदी से भी कम है. न्यायिक विलंब, अन्याय का ही एक दूसरा रूप है. याद रखिए, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी की हत्या के मामलों में कितने वर्ष लगे फैसला होने में? रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र 1975 में मारे गये. 37 वर्ष तक मुकदमा चला. तब तक 39 में से 37 गवाह मर चुके थे. 2012 तक यह मामला चल रहा है. 37 वर्षों में जज आते-जाते रहे. इस तरह 22 जजों ने इस मामले की सुनवाई की. फिर भी फैसला नहीं आया. क्या इस न्यायप्रणाली से आप व्यवस्था में इंसाफ की उम्मीद करते हैं? इन हालात को बदलने का अधिकार केंद्र सरकार और सांसदों को है.
इस व्यवस्था को है. इस तरह यह संसद-सरकार और व्यवस्था, इस तरह की घटनाओं के पाप के भागीदार हैं. ये कैसे जिम्मेदारी से बच सकते हैं? अरस्तू का कहा, याद करना सही होगा कि अच्छे कानूनों का अगर पालन नहीं होता, तो वह सरकार, राज्य या व्यवस्था अच्छी नहीं होती. एक दूसरे मामले में दूरसंचार मंत्री, पंडित सुखराम, सोलह वर्षों बाद 2011 में दोषी पाये गये. तब तक वह 85 वर्ष के हो चुके थे और अस्पताल में थे.
याद रखिए, इस देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, जेएस वर्मा ने कहा था कि संविधान का अनुछेद-21 हर आदमी को तात्कालिक न्याय पाने (स्पीडी ट्रायल) का अधिकार देता है. पर व्यवहार में क्या स्थिति है?
एक और घटना से इस स्थिति की मूल जड़ समझिए. 1992 की घटना है. तमिलनाडु के एक गांव में सरकारी अफसरों व पुलिस की चार टीमें गयीं. मशहूर लकड़ी तस्कर-डकैत वीरप्पन की तलाश में. पूरे गांव को नीम के एक पेड़ के नीचे जुटाया. बेरहमी से मारपीट की. गाली-गलौज तो अलग. फिर गांव से या उस नीम के नीचे जुटी भीड़ से कम उम्र (टीनएज) की 18 लड़कियों को अलग छांट लिया. फिर उन्हें जंगल खींच ले गये. पूरे दिन इन लड़कियों को साथ रखा. रात नौ बजे वे घर लौटीं. ऊपर से उसी गांव के 133 लोगों को जेल भेजा. सख्त धाराएं लगा कर. ये सभी निर्दोष थे. इन पर वीरप्पन को पनाह देने का आरोप था.
19 वर्षों बाद, 2011 में इसका फैसला आया. 215 सरकारी अफसरों को सजा मिली. इसमें 126 जंगल विभाग के लोग थे, 84 पुलिसवाले और पांच राजस्व अफसर. 17 लोगों को ‘रेप’ करने के जुर्म में सजा मिली. सात से सत्रह साल तक. अन्य को एक वर्ष से तीन वर्ष की सजा.
पद दुरुपयोग के कारण. इस बीच 11 वर्षों में 54 आरोपी मर गये. अगर ये जीवित होते, तो इन्हें भी सजा मिलती. क्या विलंब से मिला न्याय, न्याय है? इसी घटना में 54 लोग स्वभाविक मौत कर गये. उन्हें सजा नहीं मिली. इसलिए व्यवस्था में त्वरित न्याय की व्यवस्था होनी चाहिए. अनेक राजनेताओं पर देश लूटने के आरोप के फैसले बीस-बीस वर्षों से चल रहे हैं. कानूनी पेच लगा कर उन्हें लटकाया जाता है. बढ़ते अपराध की बीमारी की जड़ में ये तथ्य हैं. इस जड़ को सुधारे बिना अपराध, भ्रष्टाचार या रेप की इस सामाजिक बीमारी का निदान संभव नहीं है.
21.12.12 की खबर है कि केरल के एक मदरसे के मास्टर को दस वर्ष की एक बच्ची के साथ ‘रेप’ करने की सजा, चार वर्षों बाद मिली. 22 वर्षों की सजा. जिला न्यायालय से. अब यह मामला ऊपर की अदालतों में गया, तो न जाने और कितने वर्ष लटकेगा? ऐसे घृणित मामलों में क्यों नहीं एक माह के अंदर फैसला हो? लड़कियों के चेहरे पर तेजाब फेंके जाते हैं और दस-बीस वर्ष मामले चलते हैं! अपराध या हत्या, किसी के साथ हो, औरत या पुरुष, उसकी सख्त सजा ही, इस रोग का एकमात्र इलाज या निदान है.
अरस्तू ने बहुत पहले कहा था कि कानून को राज करने दो (द लॉ शुड गवर्न). क्यों गृहमंत्री शिंदे आज कह रहे हैं कि बलात्कार की घटना के बाद पांच स्पेशल ट्रैक कोर्ट का गठन होगा? या उनका यह बयान कि दिल्ली रेप की जांच एसआइटी की निगरानी में होगा. इसके पहले ऐसे कदम उठे होते, तो शायद उस लड़की के साथ यह बलात्कार न होता. बड़े पदों पर बैठे लोग जब जरूरी फैसले नहीं करते,तो उसकी कीमत जनता चुकाती है. यहां वही हो रहा है. इन आंकड़ों पर गौर करें.
– 2011 में, मुंबई में 818 बलात्कार की घटनाएं हुई, 858 अपहरण हुए, 201 मासूम बच्चों की हत्या की गयी (टाइम्स ऑफ इंडिया-18.10.12)
– दिल्ली से सटे हरियाणा में 2011 में हर महीने बलात्कार की 60 घटनाएं हुई. 2011 में बलात्कार की कुल 725 घटनाएं अकेले हरियाणा में हुई. 2010 में 705. मध्य प्रदेश में 2011 में कुल 3396, दिल्ली में 549, राजस्थान में 1757, पंजाब में 473, उत्तर प्रदेश में 2040 (टाइम्स आफ इंडिया-15.10.12)
इन घटनाओं के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें सोयी रहीं? संसद क्यों मौन रही? क्या ये बलात्कार की घटनाएं नहीं थीं? लगातार ऐसी घटनाओं के बाद सरकारी अकर्मण्यता की स्थिति के कारण यह स्थिति पैदा हुई है. अगर पहले ही सख्त कानून बने होते या जरूरी कदम उठाये गये होते, तो दिल्ली में यह घटना होती?
दरअसल, यह व्यवस्था सड़-गल गयी है. इसे बदलने की साहसिक कोशिश हमारी संसद और राजनीति को करनी होगी. याद रखिए, सिर्फ राजनीति ही इसका हल निकाल सकती है. अब तक हल नहीं निकला. क्योंकि राजनीतिज्ञ चाहते ही नहीं. ये बोलते कुछ हैं, करते कुछ हैं. ‘90 के दशक में प्रख्यात अर्थशास्त्री, विवेक देबरॉय, वित्त मंत्रलय में एक प्रोजेक्ट के प्रभारी थे. तब उन्होंने तहकीकात कर यह पाया कि कानूनी ढांचे में 25 लाख मामले लंबित हैं. एक झगड़ा निपटाने में औसतन लगभग 20 वर्ष लगते हैं. इस गति से पुराने झगड़ों के फैसले में 324 वर्ष लगेंगे.
उनका यह भी निष्कर्ष था कि 3500 केंद्रीय कानूनों में से 1500 कानून पुराने पड़ चुके हैं. इन्हें खत्म कर देने की जरूरत है. भारत संघ के राज्यों में तीस हजार कानून हैं, उनमें भी आधे से अधिक पुराने पड़ चुके हैं. इस तरह न्यायिक विलंब इस व्यवस्था की उपज है. इसे ठीक करने को लेकर क्या कभी संसद में बहस होती है? राजनीतिक दलों में चर्चा होती है? प्रभावी शासन बनाने के लिए अगर पहले से संसद में ऐसे सवालों पर बहस होती, कदम उठाये गये होते, तो दिल्ली में बलात्कार की यह घटना निश्चित ही न होती. दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली पुलिस से पूछा है कि चालीस मिनटों तक बस में बलात्कार होता रहा.
बस घूमती रही. तब तक पुलिस क्या करती रही? इस घटना के बाद पता चला है कि दिल्ली पुलिस के पास बेहतरीन गाड़ियां नहीं हैं. सुविधाएं नहीं हैं. जीपीएस सिस्टम नहीं है. कई जगह साइकिल तक उपलब्ध नहीं हैं. पुलिस को अधिकार और सुविधाएं नहीं हैं. यह दिल्ली पुलिस की हालत है. याद रखिए, वीआइपी सुरक्षा में कोई कमी नहीं है.
आज अगर सांसदों और मंत्रियों की वेतन-सुविधाएं बढ़ानी हैं, उनकी सुरक्षा पर खर्च बढ़ाने हैं, तो उसमें जरा भी विलंब नहीं होता. तुरंत संवैधानिक परिवर्तन होते हैं, नये कानून बनते हैं.
पर पुलिस, जो जनता की हिफाजत में है, थाने, जो सीधे जनता से संपर्क में हैं, उनके पास मामूली सुविधाएं नहीं हैं? फिर बलात्कार होने पर सरकार रोना रोती है कि हम सुविधाएं-व्यवस्था बढ़ा देंगे. क्या हम ऐसी घटनाओं की प्रतीक्षा में रहते हैं कि उसके बाद ही कदम उठायेंगे? निश्चित मानिए कि ये सुधार नहीं होंगे. अगली बार कोई बड़ी घटना हुई, तो फिर ऐसी ही चर्चा शुरू होगी.
ऐसा क्यों? क्योंकि पॉलिटिक्स (राजनीति), पैशन (आवेग) से चलती है. यह आवेग जनमता है, सिद्धांत, विचार और चरित्र से. दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में लगभग सभी दलों ने राजनीति का यह मूल सत्व (सिद्धांत, विचार, प्रतिबद्धता, ईमानदारी और चरित्र) खो दिया है. स्मृति ईरानी (भाजपा) पर कांग्रेसी सांसद संजय निरूपम की टीवी पर सार्वजनिक अभद्र-अमर्यादित टिप्पणी का राज साफ है. यह हमारी राजनीति का नमूना-चरित्र है.
किसी बड़ी घटना के बाद उस देश के शासक या संसद या राजनीतिक दल संकल्प लेते हैं. उसे कर्म से ‘एक्शन’ में बदलते हैं. कठोर फैसले को कानून का रूप देते हैं. उन्हें क्रियान्वित करते हैं. याद रखिए, आपके यहां 26/11 की घटना हुई. इस देश ने क्या संकल्प लिया? चाहे आतंकवाद हो या बलात्कार या अन्य सामाजिक बुराइयों की घटना, हम उससे सबक नहीं सीखते. इतिहास बनानेवाली कौम सबक सीखा करती है.
भारत में हालात सुधार के लिए जरूरी है सख्त शासन. 1964 में ही नोबल पुरस्कार विजेता, प्रोफेसर गुन्नार मिर्डल ने भारत को साफ्ट स्टेट कहा था. यानी कमजोर कानून-व्यवस्था का मुल्क. आज बड़े पैमाने पर भारतीय सिंगापुर जाते हैं. पर वहां वे अनुशासित बन जाते हैं. क्यों? कानून के भय से. रात दो बजे भी सिंगापुर में अकेली महिला सड़क पर घूमती है.
भारत के राजतंत्र में भी वही राज्य सबसे बेहतर माना जाता था, जहां गहनों से लदी अकेली महिला, देर रात घूम कर सुरक्षित आ जाये. सिंगापुर में अपराध घट रहे हैं. आसानी से आप वहां पुलिस नहीं देख सकते, पर हर जगह सख्त निगरानी है. कानून बड़े सख्त हैं. केनिंग (छड़ी से पिटाई) से लेकर सख्त जेल की सजा, मामूली अपराधों के लिए है. आपको याद होगा, अमेरिका के एक किशोर बच्चे (टीनएजर) माइकल फे को 1994 में बेंत से मारने की सजा हुई थी. भारत की तुलना में उसके अपराध मामूली थे. सार्वजनिक संपत्ति की तोड़फोड़. सार्वजनिक जगहों पर उपद्रव वगैरह.
ऐसी घटनाएं यहां रोज गली-गली होती है. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ने सिंगापुर के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री से खास अनुरोध किया माइकल फे को माफ करने के लिए. पर सिंगापुर ने उसे माफ नहीं किया. कानून के सख्ती से पालन के प्रताप से वहां बड़े-बड़े अपराधी भी मामूली अपराध करने से डरते हैं. कहीं भी गंदा करने (शौच, पेशाब करने, थूकने वगैरह) से लेकर ट्रैफिक चौराहों पर लाल बत्ती होने के बाद नियम का उल्लंघन करने, ट्रेन में सवार होने के लिए कतार में न खड़ा होने, पर दंड मिलते हैं. भारत में सब आजाद है. कोई कुछ भी कर सकता है और मुक्त रह सकता है.
दरअसल, आज भारत में बेचैनी है, सुशासन के लिए, एक व्यवस्थित राज्य के लिए, गवर्नेस बेहतर करने के लिए. संकट यह है कि राजनीति या व्यवस्था इस तथ्य को समझने के लिए तैयार नहीं हैं. वे दिल्ली की इस रेप घटना को भी पहले की तरह डील करना चाहते हैं.
वर्षों मुकदमा चलेगा. सख्त कानून नहीं बनेगा. महज कोरे आश्वासन मिलेंगे. पर अब लोगों का धैर्य जवाब दे रहा है. मीठी-मीठी बातों से लोग माननेवाले नहीं हैं. यह राजनीति को एकाउंटेबल बनाने का भी संघर्ष है. दुखद यह है कि भारत के राजनेताओं के स्वर में इस व्यवस्था की विफलता के प्रति जो आक्रोश होना चाहिए था, वह जनता को दिखायी नहीं देता, इसलिए जनता अब सड़कों पर उतर रही है.
हाल में अमेरिका में भी एक घटना हुई. एक उन्मादी किशोर ने 27 लोगों को गोली से मार दिया, जिसमें 20 बच्चे थे. उसके बाद ओबामा की प्रतिक्रिया सुनें. उनके हावभाव-बयान से यह लग रहा था कि उनके घर के लोग मारे गये हैं. यह नेतृत्व कला है.
राष्ट्रपति ओबामा ने वादा किया कि उनके पद (राष्ट्रपति) के कारण, जो भी ताकत है, उसका इस्तेमाल वह इस तरह के नरसंहार फिर न हों, इसके लिए करेंगे. उन्होंने साफ कहा कि हम अकर्मण्यता की माफी (एक्सक्यूज फॉर इनएक्शन) नहीं मागेंगे. कुछ करेंगे. पर हमारा पूरा मुल्क भारत, अकर्मण्यता के लिए माफी मांगता है. अकर्म के गीत गाता है. ओबामा ने अत्यंत सख्त लहजे में कहा कि यह देश अपने किशोरों को बचाने में विफल रहा है और इस देश के नेता यह दुहाई दे कर चुप नहीं बैठेंगे कि राजनीति की डगर बहुत कठिन है.
उन्होंने कहा कि इस तरह की ट्रेजडी खत्म होनी ही चाहिए. उनके भाषण में दुख था. पर राजधर्म का कठोर संकल्प भी. इस अवसर पर उन्होंने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही, जो पूरी दुनिया के लिए प्रासंगिक है. कोई एक कानून या कई कानून मिल कर दुनिया से बुराई खत्म नहीं कर सकते. हिंसा की हर नासमझ घटना को हम रोक नहीं सकते. पर हमारी अकर्मण्यता का यह बहाना नहीं होगा. उन्होंने कहा कि आनेवाले दिनों में मेरे पास जो भी ताकत हैं, अधिकार है, राष्ट्रपति होने के कारण उनका इस्तेमाल मैं इस तरह की घटनाओं को रोकने में करूंगा.
क्योंकि हमारे पास कोई विकल्प नहीं और न ही हम इस तरह की घटनाएं स्वीकार कर सकते हैं. क्या हम यह कहें कि इस नरसंहार के बाद हम निरुपाय हैं? क्या हम यह कहना चाहते हैं कि बार-बार जो हमारे बच्चे मारे जाते हैं, यह हमारी आजादी की कीमत है? नहीं, इसे हम रोकेंगे.
क्या भारत की राजनीति इस तरह इन घटनाओं के बाद आत्मपरीक्षण करती है? कितने नेता ईमानदारी से पक्ष या विपक्ष के यह संकल्प लेने को तैयार हैं कि इस घटना के बाद या तो राजनीति को सुधारेंगे, व्यवस्था को सुधारेंगे, नये कानून लायेंगे, पुराने आउटडेटेड कानून हटायेंगे, व्यवस्था को इफीशिऐंट बनायेंगे या यह करने में विफल रहे, तो राजनीति छोड़ देंगे?
हम अपनी अकर्मण्यता की दुहाई नहीं देंगे? अकर्म के गीत नहीं गायेंगे? विफलता के कारण नहीं गिनायेंगे, बल्कि ठोस कदम उठायेंगे कि बलात्कार, भ्रष्टाचार या अपराध के दोषी तुरंत सजा पायेंगे. सख्त सजा, ताकि कोई दूसरा ऐसा करने का साहस न करे.
दिनांक : 23.12.12

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