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शराब + पैसा + जाति = उत्तर प्रदेश चुनाव!

– बलिया (उत्तर प्रदेश) से लौट कर हरिवंश – पिछले 12-15 वर्षों से कोशिश रहती है कि मकर संक्रांति के अवसर पर गांव में रहूं. गांव यानी सिताबदियारा. गंगा और घाघरा दो नदियों से घिरा. दो राज्यों (उत्तर प्रदेश और बिहार) तथा तीन जिलों (आरा, छपरा और बलिया) में बंटा. पर 27 टोले का एक […]

– बलिया (उत्तर प्रदेश) से लौट कर हरिवंश –
पिछले 12-15 वर्षों से कोशिश रहती है कि मकर संक्रांति के अवसर पर गांव में रहूं. गांव यानी सिताबदियारा. गंगा और घाघरा दो नदियों से घिरा. दो राज्यों (उत्तर प्रदेश और बिहार) तथा तीन जिलों (आरा, छपरा और बलिया) में बंटा. पर 27 टोले का एक ही गांव. गंगा और घाघरा का संगम. हर मकर संक्रांति पर गंगा स्नान और संगम पर उमड़ती अपार भीड़ बचपन की स्मृति में है.
पर, इस बार गांव में मकर संक्रांति का जोर नहीं था. उत्तर प्रदेश चुनाव की चर्चा थी. चौपाल में, गांव की बैठक में. कौडा-घूरा (जाड़े में आग तापने की सार्वजनिक जगह) समेत हर घर, दरवाजे पर. यह चर्चा भी कैसी? गांव की चुनावी चर्चा सुन कर यूआर अनंतमूर्ति याद आये. 1994 में ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता. 1998 में पद्मविभूषण से सम्मानित.
मशहूर कन्नड़ साहित्यकार, समाजवादी चिंतक और सर्जक. 2010 के उत्तरार्द्ध में उनका एक साक्षात्कार पढ़ा (पत्रकारिता की शुरुआत में मुंबई में पहली बार मुलाकात का अवसर मिला था). उन्होंने कहा था कि चुनाव इतने महंगे और खर्चीले हो गये हैं कि मेरा पहला फर्ज है कि मैं लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली, कार्यविधि और प्रक्रिया पर ही सवाल उठाऊं ? यह भी कहा कि संसदीय लोकतंत्रकी स्कैनिंग होनी चाहिए. हमारा जनतंत्र, जनतंत्र की तरह काम नहीं कर रहा है.
अपने गांव में चुनाव का रंग, ढंग और बयार देख, ऐसे अनेक सवाल मन में उठे. इसी गांव में आंख खुली. राजनीतिक चेतना की नींव पड़ी. खांटी गांव और अपढ़ लोगों के बीच सीखा कि राजनीति मानव कल्याण का माध्यम है. समाज जहां खड़ा है, वहां से उसे ऊपर उठाने का औजार. बचपन याद है, जब कांग्रेस का जोर था. बड़े-बुजुर्ग कांग्रेसी थे. पर अधिसंख्य स्थापित अगड़े नेता लाल टोपी पहने बदलाव की शक्तियों की अगुआई कर रहे थे. परिवार के बुजुर्ग कांग्रेसी होते थे. हम युवा, कांग्रेस विरोधी. इसी परिवेश ने वह मानस दिया कि1980 में कर्पूरी ठाकुर के आरक्षण के सवाल या 1991 में मंडल तक, हम सब का मानस समाज की यथास्थिति तोड़ने का बना. तब पत्रकारिता में भी ऐसी जमात कम थी. ये बातें दस्तावेज के रूप में मौजूद हैं.
पर, इसी गांव में इस चुनाव में पाया कि राजनीति, जाति के सांचे से निकल कर गोत्र के दुर्ग में है. पर, उससे भी प्रभावी है पैसा. पैसे का प्रभाव हर क्षण गांव में बोलता है. दारू (पाउच) के असर के रूप में. तरह-तरह की गाड़ियों की सनसनाहट के रूप में. महंगी दो पहिया गाड़ी या चार पहिया वाहन. शरीर पर सोने के गहनों के रूप में. गागल्स के रूप में.
यह जयप्रकाश की जन्मभूमि है. चंद्रशेखर की कर्मभूमि है. 42 के हीरो चित्तू पांडे या ठाकुर जगन्नाथ सिंह जैसे लोगों का इलाका, जिनके नाम से अंगरेज भागते थे. 1980 के लोकसभा चुनाव में धर्मयुग (मुंबई) से चुनाव कवरेज के लिए बलिया आया. पत्रकार के रूप में पहली बार. क्रांतिकारी जगन्नाथ सिंह जीवित थे. पहलवान. विशाल शरीर. बड़े-बड़े पंजे. पूछा वोट किसे देंगे? कहा, जबान दे दिया, तो वोट दे दिया.
यह 1857-1942 के बागी बलिया की धरती है. यह सड़े-गले मूल्यों का अवसान चाहनेवाली धरती. चुनाव में भी ऐसी ही ताकतों के साथ यह मिट्टी खड़ी होगी. यही इलाका कवि केदारनाथ सिंह का है. मशहूर ललित निबंधकार डॉ कृष्णबिहारी मिश्र का है. डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी, परशुराम चतुर्वेदी जैसे लोग इसी धरती पर हुए. भागवत शरण उपध्याय भी इसी धरती से थे. ‘42 में बलिया 15 दिनों के लिए आजाद हो गया था. यहां पहले कांग्रेस का जोर था. फिर समाजवादी ताकतों का.
फिर चरण सिंह का भी बोलबाला रहा. तब कांग्रेसी अगर जीप से प्रचार करते, तो समाजवादी या अन्य टमटम से. लाल टोपी लगा कर. तब सिद्धांत, नीति और आदर्शों के लिए टकराव होता था. सब साफ थे. कौन किसे वोट देगा या कौन किधर है? आज की तरह नहीं, अंत तक पता नहीं कि कौन किधर है?
अब गांव के बड़े-बुजुर्ग या अधेड़ उम्र के भी लोग (जिनमें मूल्य और सरोकार है) चुनावों से उदासीन हैं. वे कहते हैं, सांपनाथ-नागनाथ, सब एक ही हैं. चुनावी राजनीति अब युवाओं का शगल है. ये युवा कौन हैं? जो गांव से निकल नहीं सके या योग्यता व हुनर से कहीं जा न सके. अधिकतर बेरोजगारों की फौज. जिन पर परिवार या अभिभावक का अंकुश या अनुशासन कम है. अपनी स्वतंत्र दुनिया ये युवा गढ़ रहे हैं.
इनकी दुनिया के सपने हैं. कम समय में अकूत पैसा पाना. टीवी गांव-गांव पहुंच चुका है. टीवी के विज्ञापन दुनिया के इंद्रलोक का मोहक संसार इन युवाओं को चाहिए. सूरा के संग. बिना अर्जन और श्रम के युवाओं की यह टोली (चाहे जाति जो भी हो) संसार को अपने पांव के नीचे देखना चाहती है. चाहे मुंबई का अपराध संसार हो या ठेकेदारी-बिचौलिया का धंधा, इनकी आय के स्रोत हैं.
युवकों ने ही बताया कि विधायक पद के फलां उम्मीदवार ने एक ही दिन में आठ लाख का तेल भरवा दिया. सैकड़ों मोटरसाइकिल सवार युवकों या अपने प्रचारकों के वाहनों में. हर युवा को दस लीटर. पैसे अलग से. हजार से लेकर अधिक से अधिक. युवा के प्रभाव, असर और हैसियत के अनुसार पॉकेटमनी. गांवों में शराब की खपत बढ़ गयी है. मुर्गा, मीट और दारू की पार्टियां गांवों में बढ़ गयी हैं. जहां पहले लिट्टी-चोखा या पूड़ी-तरकारी या चूड़ा-दही या हलवा का प्रचलन था. अब शराब, मुर्गा और मीट ने देशज व्यंजनों की जगह ले ली है.
शराब और पैसा ज्यादा निर्णायक हैं. फिर जाति का रोल है. बलिया के ही एक प्रत्याशी के बारे में सुना कि उनकी योजना दस करोड़ खर्च करने की है. पूछा, यह पैसा कहां से आया? पता चला, लखनऊ में मंत्रियों की सोहबत में हैं. मिल कर ठेकेदारी करते हैं. भाजपा सरकार के मंत्रियों के भी हमसफर थे. सपा सरकार के भी. अब दलितों की सरकार के मंत्रियों के खासमखास हैं. उनके राजदार, हमसफर और ठेकेदार. टिकट भी सत्तारूढ़ दल ने दिया है. खाकपति से अरबपति की यात्रा का यह रहस्य है. सत्ता किसी दल की, पर हर सरकार और मंत्रियों के विश्वस्त.
याद आता है, जब किशोरावस्था में पहली बार गांव में किसी के पास दस हजार रूपये होने की खबर सुनी. पूरे 27 टोले में चर्चा कि फलां के पास दस हजार हैं. कल तक जो लोग फटेहाल थे. जिन्होंने न आइआइटी किया, न आइआइएम किया, न कोई उद्योग-धंधा किया. विरासत या परंपरा में भी परिवार से कोई बड़ी पूंजी या उत्तराधिकार नहीं मिला. जो शाब्दिक अर्थ में कंगाल और फटेहाल थे.
वे अब पांच से दस करोड़ चुनाव में खर्च कर रहे हैं.
विधायकी के लिए. कोई इस बात पर सवाल नहीं उठाता कि कैसे और कहां से यह धन आ रहा है ? पहले गांव के चौपाल में बहस होती थी. सवाल उठते थे कि पैसा कहां से आया? साधन और साध्य के सवाल भी उन अपढ़ लोगों के बीच चर्चा के विषय होते थे. जहां से आठ बार चंद्रशेखर जी सांसद रहे. पर कभी किसी गांव में वोट मांगने नहीं गये. तीन-चार गांवों के बीच एक सार्वजनिक जगह पर सभा होती थी. वह खुले कहते थे कि आपका प्रतिनिधि देश, समाज या राजनीति को बेहतर करने के लिए सक्रिय है, तो आप वोट दीजिए.
अगर आपके क्षेत्र, राज्य या देश का नाम आपके प्रतिनिधि के कारण कलंकित हो रहा है, तो वोट मत दीजिए. अगर लोग कहते कि सड़क बनवा दीजिए, तो वोट देंगे. उनका जवाब होता कि हम ऐसी नीतियों के लिए लड़ाई ल़ड़ेंगे, जिनसे हर गांव में सड़क हो. बिजली हो, शिक्षा की व्यवस्था हो. चिकित्सा के प्रबंध हों. पर किसी एक गांव में सड़क के लिए आश्वासन देकर मैं वोट नहीं चाहता. वोट सौदेबाजी नहीं है, पवित्र चीज है. आपका समाज और देश का भविष्य इससे ही बदलनेवाला है. किसी चीज से इस वोट का मोलभाव नहीं हो सकता.
लोकसभा के लिए लड़नेवाले चंद्रशेखर जी से पहले विद्यार्थी उम्र में देखा (1970-77 के बीच), विधायक भी मुद्दों की बात लेकर चुने जाते थे. अपनी साख, जुबान, प्रतिबद्धता, सिद्धांत और पहचान के आधार पर तौले जाते थे. किस पार्टी से हैं, यह भी चुनने का मापदंड होता था. बगल के गाजीपुर के एक सुरक्षित क्षेत्र से चरण सिंह ने अपनी पार्टी से एक बार एक नया आदमी (नाच-गाने की मंडली में थे) को टिकट दे दिया.
गैर कांग्रेस की लहर में वह भी जीत गये. ऐसे अनेक लोग लोकवाद और सिद्धांत के कारण जीते. जीतने वालों की आर्थिक हालत यह होती कि लोग उनको कपड़े देते, चंदा देते. जिता कर लखनऊ भेजने का भाड़ा भी देते.
30-40 वर्षों में राजनीति कितनी बदल गयी? पहले मतदाता चंदा देकर अपने प्रत्याशियों को मजबूत बनाते थे. अब प्रत्याशी, मतदाताओं को धनबल से रिझाते हैं. विधायक फंड से मोहते हैं. इसलिए उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में पैसा बह रहा है. गांव में बाढ़ अब नहीं आती. नदियां सूख रही हैं. पर पैसे की बाढ़ में सब डूब रहा है. जुबान, मूल्य सिद्धांत और प्रतिबद्धता.
याद आता है 1984 में चंद्रशेखर बलिया संसदीय क्षेत्र से चुनाव हारे (या हराये गये). फिर वह जयप्रकाश स्मारक के पुनर्निर्माण और गांव में अन्य रचनात्मक कार्यों में जुट गये. कीचड़ में घंटों खड़े रह कर एक-एक चीज बनवायी. आजादी के लगभग चार दशकों बाद पहली बार जेपी के गांव को सड़क मयस्सर हुई. लड़कियों और बच्चों के लिए स्कूल वगैरह बने.
उस दौर में कई बार लोगों ने उन्हें राज्यसभा जाने के लिए कहा. पर उन्होंने इनकार कर दिया. फिर बलिया से लड़ कर जीते. उस दौर में काफी समय बलिया में गुजारा. जेपी के घरवाले क्षेत्र के विधायक के बारे में पूछा, जो स्थानीय हैं. जयप्रकाश जी के गांव के ही बाशिंदे हैं. पता चला उनके दर्शन दुर्लभ हैं.
बलिया के हिस्सेवाले सिताबदियारा में जब चंद्रशेखर के सौजन्य से विकास के कार्य शुरू हुए, तब ऐसा दौर आया कि बिहार हिस्से के उस गांव के (सिताबदियारा) निवासी कहने लगे कि हमें उत्तर प्रदेश का निवासी बनवा दीजिए. क्योंकि तब बिहार इलाके के गांव (सिताबदियारा) में बदतर हालत थी. न सड़क, न बिजली, न अस्पताल, न स्कूल वगैरह.
उत्तर प्रदेश में हो रहे इन चुनावों में एक रोशनी जरूर दिखी. वही मतदाता जो उत्तर प्रदेश में विधायकों का निर्णय करेंगे, बगल की बिहार की राजनीति से प्रभावित हैं.
इस बार सिताबदियारा के उत्तर प्रदेश हिस्से के लोगों ने पूछा, क्या संविधान में कोई ऐसा प्रावधान है कि हम उत्तर प्रदेश के निवासी (सिताबदियारा), बिहार के निवासी बन जायें या बलिया जिला बिहार में मिल जाये? पूछा क्यों? कहा, देखते नहीं, बिहारवाले इलाके (सिताबदियारा) में, जो बिलकुल नदी के कगार पर है, वहां कितने काम हो रहे हैं. जयप्रकाश का भव्य मेमोरियल ट्रस्ट बन रहा है. चार करोड़ की लागत से सड़कें बन रही हैं. पानी की कई टंकिया बन गयी हैं. स्कूल वगैरह बन गये हैं. अस्पताल बने हैं. बाढ़ से राहत के लिए ईमानदारी से काम हुआ. राशन समय से मिलता है.
केरोसिन मिलता है. जन वितरण प्रणाली ठीक ढंग से काम कर रही है. बाढ़ राहत में एक-एक चीज पहली बार सही तरीके से मिली. और तो और, जिस धोबी का गदहा मरा, उसे भी मुआवजा मिला. पर उत्तर प्रदेश वाले सिताबदियारा में क्या हाल है? न सड़क, न सही ढ़ंग से बिजली, न पानी, न अस्पताल. ठेकेदारों का राज. कोटेदारों (राशन डीलर) का राज. यानी हर जगह सिर्फ भ्रष्टाचार, दलाली और लूट. तो क्यों रहें?
पूछा, आपके विधायक जी (उत्तर प्रदेश) क्या करते हैं? पता चला विधायक फंड की कमाई में ज्यादा समय जाता है. गांव के लोगों ने ही कहा कि अगर यह जांच हो कि गुजरे पांच वर्षों में निजी विद्यालयों को (जिनके पास टाट, पीढ़ी या बैठने की जगह तक नहीं है), उन्हें विधायक मद से कितने पैसे दिये गये, तो लोग इस भ्रष्टाचार को सुन-जान कर दंग रह जायेंगे. फिर उसी गांव के लोग कहते हैं कि नीतीश कुमार ने सबसे अच्छा काम किया. विधायक फंड खत्म कर दिया. इसी बीच गांव के एक व्यक्ति कह बैठते हैं कि नीतीश जी जैसे व्यक्ति का उत्तर प्रदेश में इंतजार है.
बिहार सरकार विकास कर रही है. भ्रष्टाचार पर अंकुश लग रहा है या यह मुद्दा बन गया है. बिहार सरकार किस तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ तत्पर है, उस तरह की राजनीति या सरकार के लिए कोई आदमी जाति, धर्म नहीं देखेगा. इस राज्य यानी उत्तर प्रदेश को ऐसी ही सरकार चाहिए. गांव की इस बैठकी में हर जाति के लोग हैं और वे सब इस बात से सहमत हैं कि नीतीश शासन ही हमारा आदर्श है. ऐसी सरकार चुनने के लिए हम जाति, धर्म, पैसा या कोई लोभ नहीं मानेंगे.
ठेठ गांव के लोगों की बात सुन कर नीतीश कुमार को 2009 के चुनावों में मिली सफलता और स्पष्ट हुई. नीतीश कुमार की राजनीति और बिहार सरकार के काम का असर उत्तर प्रदेश में भी पसर रहा है. झारखंड पर तो मनोवैज्ञानिक दवाब है ही. बिहार के कई नये प्रभावी कानूनों को झारखंड सरकार ने भी अपनाया है. लगातार बिहार पर फोकस बनाये रखने के पीछे नीतीश कुमार की दृष्टि इस गांव यात्रा में और साफ हुई. एक साधे सब सधे सब साधे सब जाये राजनीति में धीरे-धीरे ही सही पर बिहार विकास मॉडल का असर पड़ने लगा है.
जरूरत है कि राजनीति में कुछ लोग पैदा हों, जो बिहार की राजनीति के अर्थ और संदेश गांव-गांव तक ले जाएं. देश में. पास-पड़ोस के राज्यों में. इसी से नयी राजनीति जनमने की संभावना है. इसी से लोकतंत्र भी मजबूत होगा. अन्यथा पूंजी और पैसे के प्रभाव में राजनीति दुर्दिन में है. गांव के ही लोगों ने बताया कि पिछले दिनों द्वाबा विधानसभा क्षेत्र के निवासी (जो धनबाद में रहते हैं) लाल बहादुर सिंह के यहां आयकर छापेमारी में 100 करोड़ बैंक में मिले.
इस सिलसिले में जांच के लिए, जो अधिकारी उनके गांव गये, तो लोगों ने कहा, हमारे यहां अनेक करोड़पति हैं. इनकी कोई खास पहचान नहीं है. यानी गांवों में जिनकी कोई खास पहचान नहीं है, जिन्होंने वैधानिक तरीके से या आयकर या मैनेजमेंट रिवोल्यूशन में अपनी प्रतिभा या हुनर से अरबों नहीं कमाये हैं. वैसे अपढ़ लोग तिजारती से, ठेकेदारी से, अपराध से, सार्वजनिक धन की लूट से कई सौ करोड़ में खेल रहे हैं. चुनावों में 10-20 करोड़ खर्च उनके लिए मामूली बात है. उत्तर प्रदेश के चुनावों में अब तक 50 करोड़ से अधिक नगद धनराशि जब्त हुई है. पर किसी को कोई फर्क नहीं है. बलिया के लोगों ने कहा, चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक क्या कर लेंगे? पैसा जब्त करने के लिए गाड़ी चेक करेंगे. हम घोड़े पर सवार होकर गांव-गांव पैसा बांटेंगे.
गांधीवाद ने माना था कि भारत गांवों का देश है. गांवों में ही जिंदा है. गांधी, गांवों के पुनर्निर्माण और समृद्धि की बात करते थे. क्योंकि भारत के मूल्य गांवों में ही जिंदा हैं. पर वे गांव जिन्होंने भारत को 5-7 हजार वर्ष जिंदा रखा, कहां पहुंच गये? (कुछ गांव अपवाद भी मिलेंगे और हर गांव में कुछ लोग भी). असीमित लोभ. धूर्तता, छल-प्रपंच, ठगवृति, पराया माल अपना व शराब, अब गांवों में प्रभावी है.
राजनीति इस स्तर पर कैसे पहुंच गयी? एक बुजुर्ग से पूछता हूं. बड़ा सटीक जवाब देते हैं. कहा, उत्तर प्रदेश के चुनावों में दल कहां है? जो मुख्य लड़ाई में हैं, उनमें से एक परिवार की पार्टी है. इस पार्टी की प्रतिस्पर्द्धा में जो पार्टी है, उसमें तो परिवार भी नहीं है. अकेला व्यक्ति आलाकमान है.
कांग्रेस के हाइकमान का पुराना किस्सा है. भाजपा का हाल देख लीजिए. कहने को इसमें परिवारवाद नहीं है, पार्टी पद्धति है. पर क्या एक सामान्य कार्यकर्ता अपनी सेवा, समर्पण और त्याग के कारण टिकट पा सकता है? बगल के विधानसभा का एक उदाहरण दिया. कहा, देखिए भाजपा की प्रत्याशी हैं. ऊपर से टपक आयी हैं. उनके परिवार का संपर्क बड़े नेताओं से है.
जो कार्यकर्ता कुरबानी देता है, पार्टी के लिए जमीनी लड़ाई लड़ता है, उसकी जगह कहां है? वह कहते हैं, पहले पार्टियों में जिला स्तर अधिवेशन होते थे. बहस होती थी. नीति तय होती थी. ग्रासरूट से लोग चुने जाते थे. आमतौर से पार्टी हाइकमान जिला स्तर के पार्टी कार्यकर्ताओं की बातों को सुनता था. अब दलों में लोकतंत्र तो है ही नहीं. क्या अधिनायकवाद के तहत चलनेवाली पार्टियां सरकार में आकर यह लोकतंत्र लायेंगी?
या आचरण में लोकतांत्रिक होंगी. यह कैसे संभव है? जो जन्म-स्वभाव से निरंकुश है, वह दिखावे में लोकतांत्रिक कैसे बन सकता है? जहां निजी परिवार में लोकतांत्रिक आचरण नहीं है. वहां यही लोग सरकार में बैठ कर लोकतांत्रिक हो जायेंगे? ये लोग पूंजी के बल चुनाव जीतते हैं, तो इनकी वफादारी पूंजी के प्रति होगी ही ! जो पूंजी देगा, उसके प्रति वफादार होंगे. देश समाज से इनका क्या लेना-देना? इसलिए भ्रष्टाचार तो बढ़ेगा ही. पूंजी, अनीति और अधर्म के गर्भ से निकली राजनीति अलग कैसे होगी?
मायावती जी ने अपने लगभग 100 विधायकों के टिकट बदले हैं. उन पर तरह-तरह के आरोप थे. उनमें एक दर्जन से अधिक मंत्रियों की विदाई भ्रष्टाचार में लिप्त होने के कारण हुई. लोकायुक्त के कारण. एक मंत्री ने तो फिल्मों में विलेन के अंदाज में खुलेआम टीवी पर लोकायुक्त को धमकी दी.
राजेंद्र माथुर मानते थे कि पिछले कुछेक दशकों में राजनीति में एक नव ब्राह्मण पैदा हुआ है. यह पुराने ब्राह्मणवाद से नितांत भिन्न है. इसका जाति या वर्ण से लेना-देना नहीं है. इस नये दौर में राजनीति के नव आगंतुकों और प्रवेश करनेवालों पर पाबंदी नहीं है. प्रवेश द्वार खुला है. बाहर बेशुमार भीड़ है. जिसके पास दौलत है, वह धक्का मार कर शासक वर्ग में पहुंचना चाहता है. जो अंदर पहुंच जाते हैं, वे नये द्विज बन जाते हैं. राजनीति में घुसने के बाद उनका पुनर्जन्म होता है. वे शासक वर्ग को नहीं बदलते बल्कि खुद शासक वर्ग में प्रभावी कारिंदे बन जाते हैं. वे सत्ताधीशों का चरित्र बदलने के नाम पर राजनीति में प्रवेश करते हैं. पर खुद उनका चरित्र बदल जाता है.
मशहूर पत्रकार राजेंद्र माथुर कहते थे कि यह व्यवस्था तभी टूटेगी, जब भीड़ के दवाब से उसका टिकना असंभव हो जाये. इतने सारे लोग कॉलेज में हों कि पढ़ना या डिग्री लेना बेईमानी हो जाये. इतने लोग सरकारी नौकरी में हों कि सरकार का दिवाला निकल जाये. इतनी अराजकता शासन में हो कि किसी को भी अनुशासन की परवाह न हो.
स्वर्गीय माथुर जी की यह अवधारणा उत्तर प्रदेश की राजनीतिक व्यवस्था की धरातल पर है. इस अराजक राजनीति से उबे लोग अब बिहार की बात करते हैं. ऐसी राजनीति की कल्पना करते हैं, जो विकास की मंजिल पर पूरे समाज को ले जाये. जिसमें सुव्यवस्था हो. सामाजिक तनाव न हो और एक प्रेरक सपना हो.
स्वर्गीय राजेंद्र माथुर के शब्दों में यह स्थिति आसानी से नहीं मिलती. कंस को भी इसी प्रकार वासुदेव की सात संतानों का वध करने दिया गया था, ताकि उसके पाप का घड़ा भर जाये. यदि पहले वध के बाद ही उसे दंड मिल जाता, तो कृष्ण का जन्म कैसे होता? उत्तर प्रदेश की इस अराजक राजनीति, पैसे की राजनीति, अव्यवस्था की राजनीति से कोई नयी राजनीति पैदा होगी. लोगों में बिहार की राजनीति की चर्चा एक उम्मीद का संकेत है. इस चुनाव में नहीं, पर अगले चुनाव तक यह असर दिखेगा. उत्तर प्रदेश में भी.
दिनांक : 23.01.2012

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