मुंबई : प्रशासनिक सेवा से बैंकिग क्षेत्र में आए आरबीआई गवर्नर डी सुब्बाराव भारी चुनौतियों भरे पांच साल का वित्तीय क्षेत्र के विनियामक का कार्यकाल पूरा कर बुधवार को विदा होने जा रहे हैं.
आज वैश्विक और घरेलू आर्थिक परिस्थितियों में रुपये की विनिमय दर न्यूनतम स्तर पर है, आर्थिक वृद्धि घट रही है और मुद्रास्फीति का लम्बा दौर बना हुआ है. सुब्बाराव की सख्त मौद्रिक नीति की जितनी आलोचना होती रही है. आलोचक उनके रवैये को मुद्रास्फीति के प्रति अति आक्रामक करार देते रहे हैं. पर उनके तमाम प्रशंसक भी है जो यह मानते हैं कि उन्होंने सरकारी दबाव से मुक्त हो काम किया और केंद्रीय बैंक की स्वायत्ता का प्रदर्शन किया.
सितंबर 2008 में आरबीआई के गलियारों में पहुंचे दुव्वुरी सुब्बाराव ने वैश्विक संकट का मुकाबला कुशलता पूर्वक किया. भारतीय बैंकिंग प्रणाली बैकिंग प्रणाली अपनी ठोस बुनियाद और आरबीआई की सख्त निगरानी के चलते 2008 के संकट से बिना किसी खरोंच के बच गयी.
सुब्बाराव को सबसे अधिक उनकी उन सख्त मौद्रिक पहलों के लिए याद रखा जाएगा जो उन्होंने पिछले डेढ़ साल में उठाए जबकि एक ओर मुद्रास्फीति बढ़ रही थी दूसरी ओर आर्थिक वृद्धि घट रही थी.
उनके नेतृत्व में आरबीआई ने सरकार के धैर्य की परीक्षा लेते हुए ब्याज दरें मार्च 2010 से अक्तूबर 2011 के बीच नीतिगत दरें 13 बार बढ़ाईं. आरबीआई के सख्त रवैये के कारण थोकमूल्य आधारित मुद्रास्फीति जो दहाई अंक (2010-11) से घटकर अब करीब पांच प्रतिशत पर आ गई और केंद्रीय मुद्रास्फीति (विनिर्मित वस्तुओं से संबंधित) करीब दो प्रतिशत थी.
सुब्बाराव को सख्त मौद्रिक रख के कारण कई बार सरकार में बैठे लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ी. वित्त मंत्री पी चिदंबरम एक बार यहां तक कह दिया था कि यदि सरकार को सिर्फ वृद्धि की राह पर अकेले ही चलना है तो वह तो वह ऐसा करने के लिए भी तैयार है.