करोड़ों लोगों की आस्था जिस गंगा से जुड़ी है उसकी दशा कैसी हो गयी है? जिस गंगा ने अपनी गोद में सभ्यताओं और संस्कृतियों को जनमते देखा है, वह गंगा आज मरने के कगार पर पहुंच गयी है. गंगा हाहाकार कर रही है. लोग हाहाकार कर रहे हैं. पर गंगा लगातार जहरीली-प्रदूषित होती जा रही है.
गंगा को अविरल बनाये रखने के लिए सरकार के खजाने से निकले अरबों रुपये कहां चले गये, कौन जानता है? इसके नाम पर खूब राजनीति होती रही. लोगों की आस्था पर राजनीति ने कई सपने दिखाये. पर उसकी सच्चई सबके सामने है.गंगा लगातार मैली होती गयी. केंद्र की नयी सरकार ने अब नये सिरे से गंगा को निर्मल व स्वच्छ बनाने की बात शुरू की है. इससे लोगों में भी उम्मीद जगी है कि शायद गंगा की सूरत बदलेगी. गंगा को लेकर होने वाली राजनीति, पूर्व योजनाओं की विफलता और जीवन में गंगा के महत्व को सामने लाते इस संग्रहणीय अंक में पढ़ें साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल के हिमांशु ठक्कर, पर्यावरणविद् राजेंद्र सिंह, संदीप पांडेय और श्रीपाद धर्माधिकारी को. साथ में इस मंत्रालय की मंत्री उमा भारती से बातचीत.
गंगा बचाने के लिए मजबूत तंत्र विकसित करना होगा
क्या गंगा भी राजनीति की शिकार होती रही है? गंगा को निर्मल और अविरल रखने के लिए बनायी गयीं तमाम योजनाओं के अनुभव अत्यंत खराब रहे. अरबों रुपये गंगा की सफाई पर खर्च हुए. 1985-86 से लेकर अब तक का अनुभव यही बताता है कि गंगा सफाई में ठेकेदारों, बिचौलियों और अधिकारियों के टिड्डी दल ने मिल कर खूब लूट की. मौन-निर्मल गंगा जहरीली होती गयी.अब फिर एक कोशिश शुरू हुई है. पर अतीत के अनुभव ताकीद कर रहे हैं कि जब तक वैज्ञानिक तरीकों के साथ सतर्कता नहीं बरती गयी तो फिर गंगा के साथ वही अंजाम होगा जो अब तक होता रहा है. लिहाजा, गंगा को बचाने के लिए सख्त कदम उठाने पड़ेंगे.
नयी सरकार में उमा भारती को जो मंत्रालय दिया गया है, उसमें गंगा का नाम जोड़ा गया है, जिसका नाम रिवर डेवलपमेंट एंड गंगा रिजूवनैशन है. लेकिन अब तक मंत्री जी ने सिर्फ जल संसाधन मंत्रलय का कार्यभार संभाला है, रिवर डेवलपमेंट एंड गंगा रिजूवनैशन का नहीं. इस विभाग का क्या स्वरूप होगा, इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है. लेकिन यह सकारात्मक बात है कि सरकार ने कहा है कि गंगा उनकी प्राथमिकता में है. इस दिशा में पहले कदम के रूप में छह जून को यातायात मंत्री नितिन गडकरी के नेतृत्व में मंत्री-समूह की बैठक हुई, जिसमें जल संसाधन मंत्री, पर्यावरण मंत्री और पर्यटन मंत्री भी थे.
इस बैठक के बाद सरकार द्वारा जारी आधिकारिक प्रेस-विज्ञप्ति में कहा गया कि वाराणसी से लेकर कोलकाता तक गंगा नदी की लगभग 1500 किलोमीटर धारा को 6000 करोड़ की लागत से जल-मार्ग के रूप में विकसित किया जायेगा. इस प्रस्ताव में हर सौ किलोमीटर पर बराज बनाने की भी बात कही गयी है. यह आश्चर्यजनक घोषणा है, क्योंकि इसमें इंफ्रास्ट्रक्चर के बारे में कोई संकेत नहीं है और न ही यह बताया गया है कि 6000 करोड़ रुपये कहां और किस तरह खर्च होंगे. इस योजना के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का भी कोई आकलन नहीं है. इससे नदी को साफ करने और उसके बहाव को बेहतर करने में क्या मदद मिलेगी, इन पहलुओं पर भी कोई स्पष्टता नहीं है. इस संबंध में किसी तरह का विचार-विमर्श करने और लोगों की राय जानने की कोशिश नहीं की गयी. मेरे विचार में इस दिशा में उठाया गया पहला कदम ठीक नहीं है.
सरकार को कोई भी पहल करने से पूर्व गंगा और अन्य नदियों के बारे में सरकारी स्तर पर अब तक किये गये प्रयासों का आकलन और अध्ययन करना चाहिए. गंगा की बेहतरी के लिए प्रयासों की शुरुआत 1974 में प्रदूषण नियंत्रण कानून के साथ हुई थी. इसके अंतर्गत स्थापित केंद्रीय और राज्य-स्तरीय प्रदूषण नियंत्रण बोडरें का काम नदियों की साफ-सफाई का भी था. इन बोडरें के तहत एक विशाल ब्यूरोक्रेसी बनायी गयी. परंतु, यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आज 40 वर्षों के बाद यह तंत्र एक भी नदी का भला नहीं कर सका. 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी गंगा एक्शन प्लान लेकर आये, जो 1986 में शुरू हुई. 2000 में इस योजना का दूसरा चरण प्रारंभ किया गया. 2009 में गंगा रिवर बेसिन ऑथोरिटी बना. अब 2014 में इस नयी सरकार ने गंगा को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया है.
इतने वर्षों में बरबाद हुए धन, समय, जमीन, पानी, स्वास्थ्य, जैव-विविधता आदि का विश्लेषण करना और इतने बड़े तंत्र की असफलता को सही तरह से समझ-बूझ कर तथा गलतियों से सबक लेकर ही आगे बढ़ा जा सकता है. यह सब करना सरकार की पहली प्रामाणिक पहल होनी चाहिए थी. इससे जनता को यह भरोसा होता कि हम सही दिशा में बढ़ रहे हैं. लेकिन मंत्री-समूह की बैठक ने सरकार की प्रारंभिक सकारात्मक प्रतीकात्मकता पर पानी फेर दिया है. बराजों का प्रस्ताव निश्चित रूप से खतरनाक है. फरक्का बराज से हुए नुकसान से सभी परिचित हैं. इस बराज को बनाने का मुख्य कारण कोलकाता बंदरगाह को जल-यातायात के लिए तैयार करना था. उसी से अभी यह गंगा की योजना प्रेरित है, लेकिन फरक्का बांध अपने उद्देश्य को हासिल करने में असफल रहा है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि ब्रिटिश शासन के दौरान गंगा नदी में इलाहाबाद तक जल यातायात संचालित होता था. तब नदी में किसी बराज की जरूरत नहीं थी, तो आज बराज की जरूरत क्यों है? इन बराजों के उद्देश्य, खर्च और प्रभावों का कोई आकलन नहीं किया गया है. मेरे विचार से यह एक गंभीर और चिंताजनक गलती है.
नदी का मूलभूत गुण-धर्म है- बहना, और बहना साफ पानी के साथ. गंगा का संकट यह है कि उसमें साफ पानी नहीं है. गंगा को उत्तराखंड में बांधों से बाधित किया गया है, उसके बाद हरिद्वार में बराजों के द्वारा पानी को दूसरे तरफ मोड़ दिया गया है, फिर बिजनौर और नरौरा में भी बराज बने हैं और फिर कानपुर में भी बड़ा बराज बना हुआ है. इन सबके बाद नदी में पानी की बहुत कमी हो जाती है. जो बचा हुआ पानी है, उसमें प्रदूषण हैं जो शहरों, उद्योगों और खेती के तरीकों के कारण नदी में आता है. इस संकट की पूरा दोष हमारे जल संसाधन प्रबंधन की व्यवस्था का है. हमें पानी के उपयोग के अपने तौर-तरीकों में मूलभूत बदलाव करने की जरूरत है. इसके लिए दीर्घकालिक रणनीति की आवश्यकता है.
जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि इसमें कोई दो राय नहीं है कि केंद्र और राज्यों में स्थित प्रदूषण बोर्ड नाकाम संस्थाएं सिद्ध हो चुकी हैं. इनकी संरचना और कार्य-शैली में बुनियादी फेरबदल की जरूरत है. अन्य संबंधित संस्थाओं की तरह इसमें भी अधिकारियों के कामकाज का स्पष्ट बंटवारा होना चाहिए और उन पर निगरानी रहनी चाहिए. ऐसी संस्थाओं में आधे लोग सरकार के और आधे जनता से लिये जाने चाहिए.
लेकिन अभी फौरी तौर पर सबसे पहले हमें नदी के लिए पानी छोड़ना शुरू करना पड़ेगा. यह काम पानी रोकने और अन्य दिशाओं में बांटनेवाले बराजों और बांधों से करना पड़ेगा. गंगा के किनारे 67 बड़े और मध्यम आकार के शहर हैं. इन शहरों को दो वर्ष की समय-सीमा निर्धारित करनी होगी कि ये अपने जल-प्रबंधन को ठीक कर सकें जिसमें नालियां, गंदे पानी को साफ करने के संयत्र और पानी की लाइनें शामिल हैं. इन शहरों को यह साफ निर्देश देना होगा कि इस दो वर्ष की अवधि के बाद ये एक बूंद गंदा पानी भी गंगा में नहीं छोड़ सकते हैं. इस समय-सीमा के बाद जो पानी वे नदी में प्रवाहित करेंगे, वह शोधित पानी होना चाहिए. इस पूरी प्रक्रिया में जिम्मेवारियों का स्पष्ट बंटवारा होना चाहिए. इसी तरह की व्यवस्था उद्योगों और खेती में भी करनी होगी.
एक ऐसा तंत्र विकसित हो जो गंगा और उसकी सहायक नदियों की हर तीन किलोमीटर की धारा का ध्यान रखे. इस तंत्र में भी आधे लोग सरकार के होने चाहिए और आधे लोग स्वतंत्र रूप से रखे जायें जिनमें अधिक संख्या नदी के किनारे रहनेवाले और अपने जीवन-यापन के लिए नदी पर निर्भर लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं. इसके साथ ही प्रदूषण के लिए जिम्मेवार संस्कृति से जुड़े कारकों पर रोक लगाया जाना चाहिए. नदियों में बेतहाशा मूर्तियां, फूल, लाशें, राख, अस्थियां आदि फेंकी जा रही हैं. इन पर नियंत्रण में धार्मिक संस्ताओं और धर्म गुरुओं की भूमिका महत्वपूर्ण है.
गंगा घाटी में धान और गन्ना ऐसी दो फसलें हैं, जिनकी बहुत खेती होती है और इसमें बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है. इन फसलों को लेकर हमें सोचना पड़ेगा. धान के संदर्भ में हमें सिस्टम ऑफ राइस इंटेफिकेशन (एसआरआइ) के विकल्प पर विचार करना चाहिए.
हिमांशु ठक्कर
साउथ एशिया
नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल