2 जून 2013 , तेजाबी हमले की शिकार प्रीति राठी, पूरे एक महीने, जिंदगी और मौत के बीच जूझते हुए, आखिर मौत से हार गयी. दामिनी की तरह क्या यह लड़की भी भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए एक चुनौती, एक सबक बनेगी? हमारी लचर न्याय प्रणाली के चलते अपराधियों की हिम्मत इतनी बढ़ जाती है कि वे किसी से जिंदगी जीने का अधिकार छीन लेते हैं! क्या तेजाबी हमला, हत्या जितना ही संगीन अपराध नहीं है? इस मौत ने हमारे संविधान और न्याय प्रणाली पर एक बार फिर बहुत सारे सवाल खड़े कर दिये हैं.
अक्सर जीवन में ऐसे अंतर्विरोध सामने आते हैं कि यह समझ पाना मुश्किल होता है कि इस दुनिया को किस नजरिये से देखा जाए. ये अंतर्विरोध दो दुनियाओं के फर्क को बड़ी बेरहमी से हमारे सामने ले आते हैं और नये सिरे से सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या सारी स्त्रियां पुरुष सत्ता या वर्चस्व की शिकार हैं या उनका एक खास हिस्सा ही इससे पीड़ित है?
कहीं स्त्रियां पुरुष उत्पीड़न की सीधे शिकार हैं, तो कहीं वह पुरुष वर्ग की आकांक्षाओं के अनुरूप विमर्श की सामग्री तैयार करती हुई पुरुषवादी एजेंडे को ही मजबूत बनाने की कवायद में लगी है. आज की दो घटनाओं के मद्देनजर इस पर एक बार फिर विचार करने की जरूरत है.
3 मई 2013 की सुबह के अखबार के पहले पन्ने की एक खबर पढ़कर मन उचाट हो गया. बांद्रा टर्मिनस पर दिल्ली से गरीब रथ एक्सप्रेस से मुंबई में पहली बार उतरी प्रीति राठी के ऊपर एक व्यक्ति ने एसिड फेंक दिया.
हमलावर ने उसके कंधे पर पीछे से हाथ रखा और जैसे ही लड़की ने पीछे घूम कर देखा उसके चेहरे पर एसिड फेंक कर वह भाग गया. इतनी भीड़ वाले इलाके में भी कोई उसे रोक या पकड़ नहीं कर पाया और वह एक जिंदगी बर्बाद कर फरार हो गया. 22 साल की बेहद नाजुक और मासूम सी दिखती लड़की प्रीति राठी ने सैनिक अस्पताल में नर्स की नियुक्ति के लिए पहली बार मुंबई शहर में कदम रखा था. उसके हस्तलिखित पत्रों की भाषा जिस तरह से हताशा और चिंता से भरी हुई थी, वह न केवल दिल दहलाने वाली थी बल्कि एक स्त्री के जीवन में आजीविका के समानांतर किसी और विकल्प के गैरजरूरी होने का भी सबूत देती थी.
एक लड़की अस्पताल में जीवन और मृत्यु से जूझ रही है, लेकिन जब भी उसे होश आता है तो वह अपनी नौकरी के बचने और छोटी बहनों के सुरक्षित रहने की चिंता व्यक्त करती है, माता पिता को टेंशन न पालने की हिम्मत देती है और हत्यारे के पकड़े जाने की खबर के बारे में पूछती है.
यह दिल दिमाग को सुन्न कर देने वाली खबर थी. तीन मई को, कुछ ही घंटों बाद दिल्ली से प्रकाशित हिंदी की एक रंगीन महिला पत्रिका की रिपोर्टर का फोन आया. नाम पूछा तो कहा – प्रीति! सुबह की प्रीति राठी अभी एक सदमे की तरह मुझ पर हावी थी. तब तक इस पत्रकार प्रीति ने फोन करके अपने अगले अंक की परिचर्चा पर सवाल पूछा – आपकी उम्र क्या है? मैंने उम्र बतायी – छियासठ. अगला सवाल – क्या आपको मेनोपॉज हो गया है? मैंने अपनी उम्र दोहरायी.
बोली – ओह सॉरी, मैंने सुना – छियालीस. हम कुछ सेलेब्रिटीज से पूछ रहे हैं कि मेनोपॉज के बाद औरतों में सेक्स इच्छा कम हो जाती है क्या? सुनकर दिमाग चकरा गया. मैंने उसे कहा – इतनी समस्याओं से जूझ रही हैं औरतें और आपको सेक्स पर बात करना सूझ रहा है, कोई गंभीर मुद्दा नहीं मिला आपको? हंसते हुए जवाब मिला – हमने मार्च अंक में गंभीर मुद्दे भी उठाये थे पर वो कोई पसंद नहीं करता!
हाल ही में बाजार में लांच हुई इस गृहिणीप्रधान महिला पत्रिका को बेचने के लिए हर अंक में सिर्फ सेक्स की ही जरूरत क्यों पड़ती है? कौन सी महिलाएं हैं, जो उत्तर मेनोपोज स्त्री की कामभावना के ज्ञान से अपने दिमाग को तरोताजा बनाये रखना चाहती हैं?
क्या महिलाओं का नया पाठक वर्ग अपने समय और उसके सवालों से पूरी तरह कट गया है और वे किसी गंभीर मुद्दे पर प्रकाशित कोई सामग्री नहीं पढ़ते? ये सारे सवाल उस भयावहता की तरफ दिल-दिमाग को बार-बार ले जाते हैं, जो स्त्री के खिलाफ एक फिनोमिना तैयार करते हैं और तब हम पाते हैं कि केवल पुलिस और अदालतें ही नहीं, मीडिया भी बहुत कुछ स्त्री-विरोधी रुझानों से संचालित है. लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाला मीडिया इन प्रवृत्तियों से लड़ने और उन पर सवाल खड़ा करने की जगह, स्त्री को एक कमोडिटी की तरह ही पेश कर रहा है.
कुछ महीने पहले पाकिस्तान में तेजाब हमले की शिकार लड़कियों की त्रासदी पर आधारित एक वृत्तचित्र – ‘सेविंग फेस’ चर्चा में था, जिसे ऑस्कर मिला था. तेजाब का हमला हत्या से कमतर अपराध नहीं है. यह एक लड़की को जीवन भर के लिए विरूपित कर उसे हीनभावना से ग्रस्त कर देता है. ऐसी लड़कियों की अनगिनत कहानियां हैं और ये सभी पुरुष-वर्चस्व, पितृसत्ता और भारतीय पिछड़े पूंजीवाद के गर्भ से पैदा हुई हैं. ये कहानियां सिर्फ तथ्य नहीं हैं. ये हमारे समाज की उस बीमारी के कैंसर होते जाने की दास्तान हैं, जो संवैधानिक रूप से हमें लोकतंत्र और बराबरी का दर्जा मिलने के बावजूद इतनी गंभीरता से हमारे जीवन को खोखला करती रही हैं कि इसके चलते सोच-संस्कृति और व्यवहार में हम लिंग, जाति, धर्म और क्षेत्र से बाहर एक मनुष्य की तरह सोच ही नहीं पाते. मनुष्य के रूप में हम कायदे से भारतीय भी नहीं हो पाये, विश्व-मानव बनना तो बहुत दूर का सपना है.
स्त्रियों के लिए लगातार भयावह होती जा रही इस दुनिया के बारे में गंभीरता से सोचना आज का सबसे जरूरी सवाल है – ऐसी घटनाओं को बार बार दोहराया क्यों जा रहा है और कानून की सख्ती के बावजूद अपराधी बेलगाम क्यों हुए जा रहे हैं? क्या कारण है बलात्कार और हत्या की हर घटना के देशव्यापी विरोध के बाद हम आशावादी होकर सोचते हैं – अब ऐसी घटना न होगी और अभी सांस ठीक से ले भी नहीं पाते कि एक और घटना हमारी संवेदना के चिथड़े उड़ा देती है.
अपने देश के स्त्री-विरोधी पर्यावरण के वर्तमान से हमें अतीत के दरवाजे तक जाना होगा. एसिड अटैक की अधिकतर घटनाओं के पीछे प्रेम एक बुनियादी कारण होता है. सदियों से प्रेम हर समाज में मौजूद रहा है लेकिन एसिड अटैक का इतने भयानक रूप से प्रचलित प्रतिशोध इससे पहले कभी नहीं था. प्रेम में हजारों दिल टूटते हैं और उनकी उदासी हताशा में बदल जाती है, लेकिन ऐसा हिंस्र वातावरण पहले कभी नहीं था. तब भी नहीं, जब हमारा समाज आज की तुलना में अधिक दकियानूसी और भेदभावपूर्ण माना जाता था.
आज स्थितियां बिलकुल विपरीत हो गयी हैं. आज उस समय की प्लेटोनिकता तो दुर्लभ है ही, उसकी जगह दूसरी कुंठाओं ने भी ले ली है. अधिकतर मामलों में प्रेम एकतरफा होता है. दो विपरीत स्थितियों को हम एक साथ देख सकते हैं. सहशिक्षा बढ़ने और जीवन शैली में आधुनिकता का बोलबाला होने के साथ ही हम देख सकते हैं कि आम लड़कियों में जहां अपने जीवन और उसके निर्णयों के प्रति जागरूकता बढ़ी है, उसके ठीक समानांतर लड़कों में उनके वजूद को लेकर एक नकार की भावना पनप रही है.
आज जहां लड़कियां हर क्षेत्र में अपनी योग्यता का परचम लहरा रही हैं, वहीं लड़कों के मन उनके प्रति असहिष्णुता और दुर्भावना का एक अनुत्तरित भंडार है. लड़कियां करियर, प्रेम और शादी जैसे मसले पर स्वयं निर्णय लेने और नापसंदगी को जाहिर करने में अपनी झिझक से बाहर आ रही हैं और लड़कों को उनका यही रवैया सबसे नागवार गुजर रहा है. अगर थोड़ा पीछे जाएं तो आज से पच्चीस-तीस साल पहले तक ऐसे अटैक लड़कियों पर नहीं हुआ करते थे, फिर आज ये इस कदर क्यों बढ़ गये हैं? क्योंकि यह असहिष्णुता से उपजा प्रतिकार है, हिंसा है. लड़कों को लड़कियों से “न” सुनने की आदत नहीं है. लड़की होकर इनकार करने की हिम्मत कैसे हुई उसकी? इसे प्रेम निवेदन या सेक्स निवेदन करने वाला लड़का या किसी भी उम्र का मर्द अपनी हेठी समझता है और प्रतिहिंसा के लिए उतावला हो उठता है.
भारत में आम जनता पर सिनेमा का कितना प्रभाव रहा है और किस तरह सिनेमा आम वर्ग की मानसिकता का निर्माण करता है, इसे भूलना नहीं चाहिए. नब्बे का दशक उदारीकरण और मुक्त बाजार का दौर रहा. इस दशक की शुरुआत में हॉलीवुड में कुछ ऐसी फिल्में आती हैं, जिसमें एक डरी हुई औरत हमारे भीतर उत्तेजना और सनसनी फैलाती है. “स्लीपिंग विथ द एनिमी” में जूलिया रॉबर्ट्रस का चरित्र हिंदी सिनेमा को इतना रास आया कि इस प्रवृत्ति पर कई अनुगामी फिल्मों की कतार लग गयी और उनमें से अधिकांश ने बॉक्स ऑफिस पर झंडे गाड़े. इन सभी फिल्मों में उत्सर्ग और त्याग, समर्पण और विसर्जन की भावनाओं की जगह अधिकार, कब्जा जताना और हासिल करना बुनियादी विशेषताएं थीं.
इस एंटी हीरो ने खलनायक के सारे दुर्गुणों के प्रति स्वीकार्यता और समर्थन का माहौल बनाया. शाहरुख खान की कई फिल्मों – बाजीगर, डर, अंजाम, अग्निसाक्षी आदि ने प्रेम को हिंसा में बदलने वाले जार्गन का विस्तार किया और एक खलनायक की सारी बुराइयों के बावजूद दर्शकों की पूरी सहानुभूति को बटोरा. बेशक अंत में उसे मरते हुए दिखाया गया, पर उसकी मौत ने दर्शकों के मन में टीस पैदा की. मौत को भी महिमामंडित किया गया. दिल एक मंदिर और देवदास जैसी फिल्मों के भावनात्मक प्रेम की यहां कोई जगह नहीं थी. फिल्मों से भारतीय मानस का एक बड़ा वर्ग प्रभावित होता है और वह हुआ. युवा पीढ़ी के जीवन में ये खलनायकी प्रवृत्तियां बगैर किसी अपराध बोध के शामिल हो गयीं. उसके लिए किसी तर्क की जरूरत नहीं थी.
अगर शाहरुख खान जूही चावला को दहशत के चरम पर पहुंचाकर अपने प्रेम की ऊंचाई और गहराई का परिचय देता है और हिंसक होने के बावजूद नायक से ज्यादा तालियां और सहानुभूति बटोर कर ले जाता है, तो आम प्रेमी ऐसा क्यों नहीं कर सकता. टी शर्ट पर “आइ हैव किलर इंस्टिंक्ट” और “कीप काम एंड रेप देम” जैसे नेगेटिव जुमले फहराने वालों की जमात में इजाफा हुआ. “वी लव आवर वेजाइना” के जवाब में “वी सपोर्ट योर वेजाइना” की जमात उभर कर सामने आयी.
यह जानना भी जरूरी है कि स्त्री के संबंध में हमारा सामाजिक पर्यावरण कैसा है और उसमें लोकतंत्र की सभी संस्थाएं, विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका स्त्री के प्रति व्यवहार की कैसी नजीर पेश कर रही हैं? इससे हमारे युवा किस तरह की सीख ले रहे हैं? इसे हम कुछ सामान्य उदाहरणों के माध्यम से समझ सकते हैं. कार्यस्थल पर यौन-शोषण और दुर्व्यवहार भारत में एक जाना-पहचाना मामला है. आमतौर पर स्त्रियां इससे बचती हुई अपनी आजीविका को बचाने की जुगत में लगी हैं. अमूमन वे या तो चुप्पी साध लेती हैं या समझौता करते हुए वहां बनी रहती हैं. लेकिन जो इस मामले के खिलाफ खड़ी होती हैं और इसे बाहर ले जाने का साहस करती हैं, उन्हें सबसे अधिक खामियाजा सामाजिक रूप से भोगना पड़ता है.
चरित्र-हत्या और कुप्रचार के सहारे उन्हें इतना कमजोर कर दिया जाता है कि वे अक्सर अपनी लड़ाई अधूरी छोड़ देती हैं या बीच में ही थक कर बैठ जाती हैं. इसका सबसे नकारात्मक असर यह है कि जन-सामान्य, स्त्री के प्रति हुए अन्याय के खिलाफ खड़े होने की जगह, अपनी धारणा में उसे ‘चालू’ मान लेता है. यही धारणा लगातार विकसित होती रहती है जो अपने जघन्य रूप में स्त्री के प्रति अपराध को रोजमर्रा की एक सामान्य सी घटना बना देती है.
ऐसी स्थिति में पत्रकारिता अपना दायित्व निभा रही है या सबकुछ बाजार की भेंट चढ़ गया है. मांग पूर्ति के नाम पर कुछ भी परोसा जा रहा है. जैसे छोटे परदे पर सास बहू और विवाहेतर संबंधों और कुटिल स्त्रियों के महिमामंडित चरित्र दिखाकर यह कहा जाता है कि टीआरपी की मांग यही है, वैसे ही ये महिला पत्रिकाएं अपनी साठ पन्नों की पत्रिका में छह पन्ने भी स्त्री की त्रासदी के प्रति घरेलू गृहिणियों को जागरूक बनाने के लिए यह कहकर नहीं देतीं कि घरेलू औरतों की इन सबमें कहां कोई दिलचस्पी है. स्त्रियों के लिए ऐसी भयावह स्थितियों के बीच, हमारी रंगीन महिला पत्रिकाएं अपना नैतिक दायित्व भूलकर कब तक सेक्सी दिखने के तौर तरीके ही बाजार के नाम पर उस समाज के बीच परोसती रहेंगी, जहां हर दिन बच्चियों पर बलात्कार और युवा लड़कियों पर तेजाबी हमले हो रहे हैं. इन दो दुनियाओं में इतनी बड़ी खाई क्यों है और इसे पाटने का क्या कोई रास्ता है?
पुलिस थानों और अदालतों में स्त्री के संबंध में संवेदनहीन रवैया मौजूद होना आम बात है. अपराधी वहां अपने पैसे और प्रभाव के बल पर पुलिस और क़ानून को अपने प्रति सहृदय बनाने की कोशिश करता है और अक्सर स्त्री को झूठी साबित कर दिया जाता है. हमारी युवा पीढ़ी में पैसे और प्रभाव का बोलबाला बढ़ा है. बेशक यह सब ऊपर से नीचे लगातार प्रसारण करता रहता है. लिहाजा कानून का उसे डर नहीं. जहां हर चीज पैसे से खरीदी जा सकती हो, वहां पुलिस, न्याय व्यवस्था सब कुछ अपनी मुट्ठी में नजर आता है, फिर डर किसका? कई समृद्ध, रसूख वाले पूंजीपति या राजनेताओं के अपराध के मामलों को जिस तरह पैसे के बूते दबा दिया जाता है और गवाहों को खरीद लिया जाता है, उसके बाद इस वर्ग की मनमानी और बढ़ जाती है.
इन घटनाओं की क्रमवार शृंखला से निजात पाने के लिए जनता का एक बड़ा वर्ग कड़े कानून की मांग कर रहा है लेकिन हमें इस विषय पर गंभीरता से विचार करना होगा कि अगर हमारी राजनीति और अर्थव्यवस्था सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर हरसंभव पशुता को ही बढ़ावा दे रही है तो मात्र कानून इस प्रवृत्ति से छुटकारा नहीं दिला सकता. हमें उस बिंदु तक पहुंचना होगा जहां से ये सारी चीजें संचालित और नियंत्रित हो रही हैं. अगर सत्ता के करीबी वर्ग में जड़ जमा चुकी गड़बड़ियां, नीचे और हाशियाई वर्गों में फैलेंगी तो उसका परिणाम भयावह होगा ही. निश्चित ही लड़कियां हर कहीं इन स्थितियों की सबसे आसान शिकार (सॉफ्ट टारगेट) हैं.
हत्या के सभी औजारों में सबसे सस्ता, घातक और आसानी से उपलब्ध हथियार है – एसिड. तीस रुपये में एक बोतल मिल जाती है और आम तौर पर ऐसे तेजाबी हमला झेलने वालों की जिंदगी की भयावहता और बाकी की त्रासद जिंदगी के लिए लगातार हीनभावना, घुटन में जीने के बावजूद हमला करने वाले को हत्यारे की श्रेणी में नहीं रखा जाता. ज्यादा से ज्यादा दस साल की सजा और दस लाख जुर्माने का प्रावधान है, जबकि तेजाबी हमले से विरूपित चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी का खर्च तीस लाख से ज्यादा होता है. सबसे पहले जरूरी है कि एसिड की खुली बिक्री पर फौरन प्रतिबंध लगाया जाए.
किसी भी लड़की को दैहिक, मानसिक और सामाजिक यातना से ताउम्र जूझने के लिए बाध्य करने वाले इस अपराध को क्रूरतम अपराध की श्रेणी में ही रखा जाना चाहिए. बांग्लादेश में सन 2002 में Acid Control Act 2002 और Acid Crime Prevention Acts 2002 के तहत एसिड की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के बाद तेजाबी हमलों का प्रतिशत एक चौथाई रह गया है. हमारे देश की न्याय व्यवस्था, इन तेजाबी हमलों और इसके साथ अपना सब कुछ गंवाती लड़कियों के कितने आंकडों के बाद एक सख्त कदम उठाने की दिशा में कदम बढ़ाएगी? ।।सुधा अरोड़ा।।
((साभार : अभिव्यक्ति हिंदी) )