-हरिवंश-
अब आगामी चुनावों के लिए 1971 की मतदाता सूची को आधार मानने से नया संकट पैदा होगा. मान लीजिए, एक व्यक्ति का नाम 1979 की मतदाता सूची में था और 1971 में नहीं था, उसका क्या होगा? समझौते में यह भी उल्लेख है कि 1971 की मतदाता सूची में जिसका नाम है, वह आगामी चुनावों में मतदान में हिस्सा लेगा. बाद में अगर यह पाया गया कि उक्त मतदाता अवैधानिक रूप से बाहर से आया है, तो मतदाता सूची से 10 वर्ष के लिए उसका नाम निकाल दिया जायेगा. संवैधानिक रूप से एक मतदाता को अगर आज मत देने का अधिकार है, तो कल उसे इससे वंचित करना कहां तक न्यायसंगत है? मान लिजिए, कोई विधायक या मंत्री इस तरह की विसंगति का शिकार है, तो उसका हश्र क्या होगा?
अगर वह मंत्री है, तो सदस्यता अवैध होने पर उसके सभी पूर्व निर्णय असंवैधानिक हो जायेंगे. अगर कोई विधायक है और बाद में यह पता चलता है कि 1971 की मतदाता सूची में उसका नाम गलत रूप से चढ़ गया था, तो उसकी सदस्यता अवैध घोषित हो जायेगी. विधानसभा की कार्यवाही में उसका जो हिस्सा होगा, वह भी अवैधानिक हो जायेगा. इस तरह के माहौल में कोई सरकार कैसे कार्य कर सकती है.
नागरिकता संबंधी कानूनों के अनुसार एक व्यक्ति अगर पिछले पांच वर्षों से लगातार इस देश में रहा रहा है, तो वह ‘नैसर्गिक नागरिकता’ के लिए आवेदन कर सकता है. इसके बाद सरकार उसे नागरिकता दे भी सकती है और नहीं भी. लेकिन इस समझौते के तहत अगर किसी व्यक्ति का नाम मतदाता सूची से काट दिया जाता है, तो वह आगामी दस वर्षों तक मतदान में हिस्सा नहीं ले सकता. इसका तात्पर्य है, पांच वर्ष के बाद नागरिकता के लिए आवेदन करने संबंधी देशव्यापी कानून असम में अब लागू नहीं होगा.
पड़ोसी राज्यों पर इस समझौते के प्रतिकूल प्रभाव होंगे. अगर असम के लिए एक कानून उपयुक्त है, तो संघीय व्यवस्था के अंतर्गत वही कानून पड़ोसी राज्य के लिए भी अनुकूल होना चाहिए. समझौते के अनुसार 1965 के बाद अगर कोई बाहरी व्यक्ति असम आया है, तो मतदाता सूची से उसका नाम काट दिया जायेगा. लेकिन बंगाल-बिहार-त्रिपुरा में जो बाहरी लोग ’65 के बाद आये हैं, वे वहां के नागरिक रहेंगे, असम में नहीं. इस समझौते से अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना भी फैली है. इस कारण ’65 के बाद जो लोग असम आये हैं, अब वे पड़ोसी राज्यों की ओर मुखातिब होंगे.
राजनीतिक कारणों से त्रिपुरा व बंगाल की सरकारें उन्हें बाहर भी नहीं खदेड़ सकतीं, अत: नया संकट खड़ा होगा. ऐसी स्थिति में पड़ोसी राज्य असम की तरह ही समझौता करने के लिए आंदोलन करने को विवश होंगे. यदि असम में एक गैर असमिया द्वारा जमीन खरीदने पर पाबंदी लग सकती है, तो तमिलनाडु के लोग भी यह मांग करेंगे कि गैर-तमिल के वहां जमीन खरीदने पर पाबंदी लगे. इन विसंगतियों का राष्ट्रीय संदर्भ में समाधान आवश्यक है.
सरकार कुछ और कहती थी. यह बातचीत ऐसे होने लगी, मानो इस देश में नागरिकता निश्चित करने के लिए मूलभूत नियम ही नहीं हैं. यह दूध के भाव तय करने जैसी बात हो गयी. किन्हीं खास परिस्थितियों के अनुरूप संविधान के मूलभूत प्रावधानों में संशोधन कर उसका हल निकाला जा सकता था. लेकिन यह आवश्यक था कि हल पूरे देश के लिए एक समान हो. सरकार का रुख भी ऐसा रहा, मानो इस देश में ‘दोहरी नागरिकता’ का प्रावधान हो? ‘असम में कौन नागरिक बने’ यह सवाल सिर्फ असम से ही जुड़ा नहीं है, पूरे देश से इसका ताल्लुक है.
श्रीलंका से जो तमिल शरणार्थी यहां आये हैं, उनको लेकर भी कल समस्या खड़ी हो सकती है. इसका निबटारा क्या अलग तरीके से होगा? अगर ऐसा हुआ, तो सभी राज्यों में नागरिकता-निर्धारण के लिए अलग-अलग कानून होंगे और देश की संघीय व्यवस्था को आघात पहुंचेगा.
उत्तर-पूर्व के प्रदेशों को अभी भी हम देश की मुख्यधारा से नहीं जोड़ पाये हैं. इधर के लोग अकसर कहते हैं कि गांधी-लोहिया-जयप्रकाश के बाद देश के इस भाग को किसी ने अपना नहीं माना, उनकी शिकायत सही है. राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी पार्टी में इधर के नेताओं को प्रमुखता नहीं मिलती. जो सूझबूझवाले व चतुर राजनीतिज्ञ हैं, उन्हें उभरने नहीं दिया जाता. देवकांत बरुआ के बाद हितेश्वर साइकिया एक महत्वपूर्ण प्रशासक व कुशल नेता के रूप में उभर रहे थे. इस समझौते के बाद असम में उनकी स्थिति कमजोर हुई है. साइकिया ने कठिन समय में चुनौती स्वीकार की और असम प्रशासन को पटरी पर लाने में वे सफल रहे. आंदोलन से उत्पन्न चुनौती का सफलतापूर्वक सामना किया. इस कारण आंदोलनकारी नेता साइकिया से काफी खफा हैं.
वस्तुत: आसू व गण संग्राम परिषद के लोगों को साइकिया ने अपने कार्यों से कमजोर बनाया. अल्पसंख्यकों का विश्वास अर्जित किया. आंदोलन के नेताओं के सामने भी बातचीत के अलावा कोई विकल्प नहीं था. वे अब पुन: आंदोलन चलाने की स्थिति में नहीं थे. पहले की तरह उन्हें अभूतपूर्व जनसमर्थन भी नहीं था. केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में नरसिंह राव ने समझौते का विरोध किया था. उनका कहना था कि साइकिया को अगर निर्धारित समय तक मुख्यमंत्री रहने दिया जाये, तो आंदोलन स्वत: मर जायेगा.
असम में कांग्रेस (इं) के कुछ लोगों का भी यह मानना है कि आंदोलनकारी नेताओं से समझौता कर सरकार ने पुन: आंदोलन व नेताओं को पुनजीर्वित किया है. इस आंदोलन में पहले मुसलिमों का भी सहयोग था, लेकिन 1983 में जो नरसंहार हुआ, इससे असमी मुसलिम छात्र नेता आंदोलन से बाहर निकल गये. आंदोलन के समर्थकों में भी अविश्वास-कटुता पनप रही थी. 1979 में ही आसू के नेताओं का चुनाव एक वर्ष के लिए हुआ था, लेकिन पिछले छह वर्षों से ये लोग नेतृत्व संभाले हैं. इस कारण इनकी वैधता पर सवाल उठने लगे थे. अभी तक ये छात्र नेता गुवाहाटी विश्वविद्यालय में अड्डा जमाये हैं.
एक पाठ्यक्रम छोड़ कर दूसरे में दाखिला ले लेते हैं. साइकिया ने असम के विभिन्न क्षेत्रों में घूम-घूम कर इन सारे प्रश्नों को लोगों के सामने रखा था. विभिन्न कॉलेजों में कांग्रेस (इं) के छात्र संगठन को गतिशील बनाया. वस्तुत: आंदोलन के नेताओं को साइकिया ने भी बातचीत के लिए मजबूर कर दिया था, केंद्रीय सरकार इस अवसर का लाभ नहीं उठा सकी, और ऐसी शर्तों को भी स्वीकार किया, जिनको श्रीमती गांधी ने अल्पसंख्यकों के कारण मानने से इनकार कर दिया था.