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अंधकार के स्रोत !
– हरिवंश – इंटर में बनारस पढ़ता था. तब पहली बार ‘ईस्ट’ के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की चर्चा सुनी. कोलकाता विश्वविद्यालय के बाद अंगरेजों द्वारा भारत में निर्मित. 19वीं सदी के पूर्वार्ध में. हम किशोर से युवा हो रहे थे. तब ख्वाहिश रहती थी कि ईस्ट के इस आक्सफोर्ड में दाखिला मिल जाये. यहां प्रवेश पाने […]
– हरिवंश –
इंटर में बनारस पढ़ता था. तब पहली बार ‘ईस्ट’ के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की चर्चा सुनी. कोलकाता विश्वविद्यालय के बाद अंगरेजों द्वारा भारत में निर्मित. 19वीं सदी के पूर्वार्ध में. हम किशोर से युवा हो रहे थे. तब ख्वाहिश रहती थी कि ईस्ट के इस आक्सफोर्ड में दाखिला मिल जाये.
यहां प्रवेश पाने की एक ही शर्त थी, श्रेष्ठ रिजल्ट (परिणाम) होना. जब रात में दुनिया सोती थी, तब बिजली या लालटेन या मोमबत्ती की रोशनी में, इस केंद्र में जाने के इच्छुक छात्र निशा-जागरण करते थे. हमारे समाज की पुरानी कहावत रही है कि रात में योगी या भोगी ही जगते हैं, दुनिया सोती है.
अध्ययन-परिश्रम करते हम छात्र, तप और त्याग से कोशिश करते थे कि अच्छे अंक आयें, ताकि अच्छे विश्वविद्यालय में दाखिला तो हो ही, लीजेंड बन चुके छात्रावासों में भी जगह मिल जाये. उन्हीं दिनों हम किशोर (इंटर के छात्र) उस विश्वविद्यालय के अध्यापकों के बारे में सुनते थे. उनके चरित्र, कन्विक्शन, विद्वता, जीवन शैली और समाज के प्रति समर्पण के बारे में. ऐसे अध्यापकों की शोहरत थी. हिंदी, अंगरेजी, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, रसायनशास्त्र, इतिहास, गणित वगैरह के एक से एक ऋषितुल्य अध्यापक हुए.
विषय के गहरे जानकार और धवल चरित्र के पुंज. पैदल चलना या साइकिल की सवारी या रिक्शे की लग्जरी, यही थी उनकी दुनिया. ऐसे विद्वान अध्यापकों की एक ही विषय पर रात भर चर्चा या लैब में पूरी रात का गुजर जाना, सुबह चपरासी का आकर दरवाजा खोलना और प्रोफेसर को अपने काम में डूबे देखना.. अनेक ऐसी घटनाएं हम सबकी जुबान पर थीं. ऐसे प्रोफेसरों के हावभाव, जीवन शैली और काफी हाउस में बातचीत में नये सिद्धांतों के प्रतिपादन के किस्से. देश को दो-दो प्रधानमंत्री देनेवाला विश्वविद्यालय. स्वराज आंदोलन का प्रेरणा केंद्र.
राजनीति में नयी संस्कृति, नये विचारों के प्रतिपादन के प्रणेता राजनेताओं की छांव में पलता विश्वविद्यालय. तब अध्यापक अपने प्रिय छात्रों को बेटे से ज्यादा स्नेह देते थे. तब ‘ट्यूशन’ धंधा नहीं हुआ था. शिक्षा में बाजार का प्रवेश नहीं हुआ था.
बिल्कुल यूरोपीय आर्किटेक्चर (स्थापत्य शैली) में बने इस विश्वविद्यालय के अनूठे भवन-परिसर में पसरे विशाल छतनार पेड़. पर इसकी जीवात्मा या प्राण, ज्ञान, साधना और तप थे. पढ़ना और पढ़ाना ही सबकुछ था. सात्विक चरित्र और धवल आलोक से दीप्त था, इस विश्वविद्यालय के पठन-पाठन का संसार. अपवाद थे, पर मुख्यधारा यही थी.
चालीस वर्षों बाद उस शहर जाना हुआ. भारतीय सभ्यता-संस्कृति के कें द्र रहे इस शहर में पुरानी स्मृतियां उभरीं. यहां के विश्वविद्यालय में दाखिला भी मिल गया था. एक मशहूर छात्रवास में कमरा भी. पर एक आह थी, अपने पुराने शहर (बनारस) के प्रति. एक माह में ही लौट आया.
आजादी की लड़ाई के एक महान देशभक्त के सपने और श्रम से बने प्राकृतिक सौंदर्य से भरे परिसर वाले विश्वविद्यालय में. तब हमारे छात्र नेता कहते, यह विश्वविद्यालय आजाद देश का नेतृत्व करने के लिए बना है और जिस विश्वविद्यालय से लौटा था, उसके बारे में हमारे बड़बोले छात्र नेता कहते, वह विश्वविद्यालय देश चलाने के लिए बाबू और नौकरशाह पैदा करने के लिए अंगरेजों ने बनाया.
अंगरेजों द्वारा बनाये इस विश्वविद्यालय में अंगरेजी के अनेक विख्यात प्रोफेसर हुए, जो हिंदी के सर्वश्रेष्ठ विचारक, लेखक और चिंतक भी रहे. वहीं अर्थशास्त्र विभाग में एक विभागाध्यक्ष बने. इकॉनामिक थ्योरी (आर्थिक सिद्धांत) में नये सिद्धांत के प्रतिपादक. बिना नोबेल पुरस्कार पाये, नोबेल पुरस्कार पाये अर्थशास्त्रियों की श्रेणी में गिने जानेवाले. गांधी के सिद्धांतों पर आर्थिक विचार, सिद्धांत की दृष्टि से मौलिक पुस्तक के रचनाकार. इस विभाग में कई अन्य चर्चित प्राध्यापक भी रहे. हिंदी विभाग में तो सरस्वतीपुत्रों की लंबी कतार थी.
लगभग हर विभाग में अनूठी प्रतिभाएं. सात्विक तेज से संपन्न, ऋषितुल्य-अध्येता-अध्यापक. वहीं के एक अंगरेजी विभाग के प्रोफेसर की चर्चा सुनी. वह पहली बार आक्सफोर्ड या कैंब्रिज बुलाये गये. लंदन शहर के बारे में बोले. स्तब्ध श्रोताओं ने पूछा, कितने वर्षों से आप लंदन में रहते हैं या जानते हैं? वह बोले, पहली बार आया. शेक्सपीयर के सभी नाटकों को पढ़ा है.
लंदन के भूगोल और एक -एक गली को उसी से जाना है. चार्ल्स डिकेंस को पढ़ा है. उनके साहित्य से लंदन का भूगोल और समाज का स्वरूप समझा हूं.
वह शेक्सपीयर पर अथारिटी (आधिकारिक विद्वान) के रूप में जाने जाते थे. दुनिया के कई सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों से उन्हें निमंत्रण था, पर वह अपना विश्वविद्यालय छोड़ कर कहीं नहीं गये. इतिहास व अन्य विभागों में ऐसे ही मनीषी. अनेक किस्से, उस विश्वविद्यालय के अध्यापकों के बारे में किंवदंती बन गये थे. हमें इनकी सत्यता नहीं मालूम, पर इन घटनाओं से ध्वनित होता था, उस विश्वविद्यालय के ज्ञान केंद्र (नालेज सेंटर) होने के बारे में. विनम्रता और चरित्र से संपन्न सरस्वतीपुत्रों की चर्चाएं. तब उस दौर में हम किशोर लोगों के मन में कितनी श्रद्धा, आदर और प्रेम उमड़ता था, ऐसे अध्यापकों के प्रति, इसे शब्द नहीं बता सकते.
उसी शहर जाना हुआ, लगभग चार दशकों बाद. निजी काम से फारिग हुआ. पुराने मित्र आये. कहा, कहीं चलिए. तत्काल निजी सुझाव था, उस विश्वविद्यालय का परिसर देखना चाहता हूं, जहां के ज्ञान से परिपूर्ण दीये ने दूर-दूसरे शहर में रहते हुए भी जीवन के अंधकार को देखने का विवेक दिया. हम गये. उस सूने, शांत, अंधकार से भरे और खामोश प्रांगण में. रात थी. अंगरेजों के जमाने में बनी प्राचीन दीवारें देखीं. विश्वविद्यालय के कुछ वरिष्ठ लोगों से भी मिलना हुआ. क्या सुना उस रोशनी के केंद्र के बारे में, जो आज भी दिल के अंधेरे में कहीं चमकती है?
अंगरेजों ने विश्वविद्यालय में इटली के शानदार टाइल्स लगा कर विशाल और भव्य बनाया था. अब वहां से टाइल्स चोरी होते हैं. बेल्जियम से शीशा मंगा कर लगाया था. अब वे एंटीक (दुर्लभ) हो गये हैं, उनकी भी चोरी होती है. अध्यापक गुट चलाते हैं. पेपर आउट कराते हैं. आपराधिक प्रवृत्ति के छात्रों का गिरोह पालते हैं. लगभग 1400 शोध छात्र अब इस संस्था से जुड़े हैं.
आठ से चौदह हजार तक की प्रतिमाह फेलोशिप पानेवाले. विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अफसर ने बताया कि शोध छात्रों के बिल क्लीयर करने के पहले ही अधिसंख्य गाइड अध्यापक कमीशन लेते हैं. यह कमीशन निर्भर है कि आप किस श्रेणी के शोध छात्र हैं?
पूर्णकालिक और गंभीर शोध छात्र हैं, लगातार काम करते हैं, तब कमीशन कम है. या कहीं-कहीं शून्य भी. अंशकालिक शोध छात्र हैं, बाहर रह कर कोई और काम करते हैं या कंपिटीशन की तैयारी कर रहे हैं, फिर आकर गाइड से शोध प्रगति की रिपोर्ट लेते हैं, तब आपको ज्यादा कमीशन देना होगा, गाइड अध्यापक को. अगर आप पूर्णतया अपने शोध काम से अपुनस्थित हैं, एबसेंटी लैंडलार्ड (अनुपस्थित जमींदार) की तरह, कहीं और रह कर कुछ करते हैं, बीच-बीच में आकर पीएचडी का काम भी कर रहे हैं, तब 50 फीसदी कमीशन देना पड़ता है.
अब इन बातों पर कहीं कोई चकित या स्तब्ध नहीं होता. विश्वविद्यालय के एक बहुत बड़े अधिकारी ने कहा कि इसी विश्वविद्यालय के एक चर्चित अध्यापक ने निजी बातचीत में इस कमीशन प्रक्रिया को जस्टिफाई (सही) किया. यह अलग बात है कि विश्वविद्यालय में कोई गंभीर शोध नहीं हो रहा है.
कुछ गिने-चुने अध्यापकों को छोड़ दें, तो अधिसंख्य ऐसे अध्यापकों को न कोई जानता है, न इनकी शोहरत है. विश्वविद्यालय परिसर गंदा है. कूड़ा-करकट व पान की पीक से परिपूर्ण. भव्य और बड़ी दीवारें जालों से भरीं. सुना कि करोड़ों का सफाई बजट है. पर उस विश्वविद्यालय का प्रांगण, सौंदर्य से परिपूर्ण नहीं है. शोध छात्राओं की कठिनाइयां तो अकल्पित हैं. उनके शोषण की बात बताते-बताते कुछेक घटनाएं गिनायीं गयीं कि कैसे गाइड अध्यापकों को विवशता में शादी करनी पड़ी.
गौरव का केंद्र रहे इस विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दरजा मिला. छह सौ करोड़ का अनुदान भी. सुना है, नये टेबल-कुरसी-बेंचों के रंगरोगन में बहुत कुछ खत्म हो गया है. यहां भी घोटाले की चर्चा. पर सबसे गंभीर बात विश्वविद्यालय के एक अत्यंत जिम्मेदार व्यक्ति से सुनी.
अधिसंख्य शिक्षकों को पढ़ाने में रुचि नहीं. छोटी-छोटी चीजों में भ्रष्टाचार करने में इन अध्यापकों के बीच प्रतिस्पर्धा है. लाखों में मिलनेवाले नियमित वेतन वगैरह को ये लोग मानते हैं कि देश या समाज ने उनका कर्ज लिया है. इसलिए लगातार कोशिश रहती है, आमद के अतिरिक्त स्रोत ढूंढ़ने की. किसी तरह पढ़ाते हुए कोई प्रशासनिक पद मिले, ताकि लहरें गिनने का काम हो.
किसी प्रशासनिक पद से पांच सौ की भी अतिरिक्त आय हो, तो अध्यापक चापलूसी, चमचागीरी की हर सीमा पार कर जाते हैं. कोई स्वाभिमान नहीं. किसी सीमा तक गिर कर पद पाने की ललक. सरस्वती पुत्र, अब लक्ष्मी के दास हैं.
अध्यापक रोजमर्रा के काम में नोट लिखते हैं. विभागाध्यक्ष से लेकर प्रशासनिक अफसरों को. एक जिम्मेदार अधिकारी ने बताया (जो रोज ही ऐसे नोट देखते हैं) कि चार पंक्ति का कोई नोट भी शुद्ध हो, यह देखना अब दुर्लभ है. उनके अनुसार जो एक -दो फीसदी विख्यात प्रोफेसर हैं, यूजीसी के पैमाने पर नेशनल स्कालर, उनके काम भी हतप्रभ करनेवाले हैं.
ऐसे ही एक वैज्ञानिक प्रोफेसर का उन्होंने मामला बताया. अपने क्षेत्र की अनूठी प्रतिभा हैं वह, देश का सम्मानित वैज्ञानिक पुरस्कार प्राप्त. उन्हें एक प्रोजेक्ट का ग्रांट (अनुदान) मिला. उनसे कहा गया कि विश्वविद्यालय का एकांउट डिटेल भेज दें. उन्होंने निजी खाते का विवरण भेज दिया. उनका सम्मान इतना कि उधर दिल्ली से किसी ने पूछा नहीं कि वह गलत कैसे कर सकते हैं?
वहीं सुना कैसे-कैसे लोग प्रोफेसर बन गये. जाति-धर्म के आधार पर, प्रिय होने के आधार पर, वंश-गोत्र के आधार पर. घर के माली, नौकर वगैरह को भी विश्वविद्यालय में भर देने के सही किस्से सुने. ईमानदार वीसी आ जाये, तो उसे बंधक बना लेना. वित्त अधिकारी को डरा-धमका कर भगा देना. विश्वविद्यालय की दीवारों पर नोटिस बोर्ड तक नहीं. ऐसे ही कागज चिपके हैं, नोटिस के रूप में.
ऐसी अंतहीन सच सुने, विश्वविद्यालय के जिम्मेदार लोगों से. यह किसी के प्रति आरोप-प्रत्यारोप नहीं था. अच्छे अध्यापक और गंभीर छात्र भी हैं, पर वे मुख्यधारा या संस्कृति नहीं हैं. विश्वविद्यालय से जुड़े इन लोगों के मन में पीड़ा थी. कहां पहुंच गये ज्ञान के केंद्र? चरित्र गढ़ने के केंद्र? नयी रोशनी बांटने के केंद्र? लोभ-लालच, अनैतिक कामों के खिलाफ आंधी लाने के केंद्र? मार्केट ट्रेंड, कॉमर्स, तेज जीडीपी, पैसा ही सबकुछ. जीवन का मकसद महज इंद्रिय सुख या भोग.
कोई कानून अब इन संस्थाओं को नहीं गढ़ सकता. न समाज को कहीं से रोशनी मिलती दिखायी देती है, न देश की राजनीति में कोई जुनून है. इन बचे-खुचे टिमटिमाते दीयों के बुझने के बाद की स्थिति पर देश में कहीं चिंता है?
(शहर या विश्वविद्यालय का नाम दिये बिना तथ्य दिये गये हैं. क्योंकि यह अब किसी एक संस्था की बात नहीं रही. हिंदी राज्यों के अधिसंख्य विश्वविद्यालयों-कॉलेजों में अध्ययन-अध्यापन की स्थिति, बात या चर्चा करने योग्य भी नहीं है. ऐसा, शिक्षा को नजदीक से जाननेवाले शिक्षा के सही साधक या मनीषी ही कहते हैं.)
दिनांक – 09.03.13
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