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दवा उद्योग के लिए अरबों के विलय सौदों और करोड़ों के जुर्माने वाला रहा साल 2014

नयी दिल्ली : देश के दवा उद्योग के लिए साल 2014 कड़वी दवा जैसा रहा. इस दौरान भारतीय दवा कंपनियों पर कई विदेशी नियामकों ने करोडों डॉलर का जुर्माना लगाया हालांकि, दूसरी तरफ कंपनियों के बीच अरबों डॉलर के विलय एवं अधिग्रहण सौदे भी हुए. सन-रैनबैक्सी विलय सौदा इसमें उल्लेखनीय रहा है. दूसरी ओर सरकार […]

नयी दिल्ली : देश के दवा उद्योग के लिए साल 2014 कड़वी दवा जैसा रहा. इस दौरान भारतीय दवा कंपनियों पर कई विदेशी नियामकों ने करोडों डॉलर का जुर्माना लगाया हालांकि, दूसरी तरफ कंपनियों के बीच अरबों डॉलर के विलय एवं अधिग्रहण सौदे भी हुए. सन-रैनबैक्सी विलय सौदा इसमें उल्लेखनीय रहा है.
दूसरी ओर सरकार ने आवश्यक दवाओं के मूल्य नियंत्रण की पहल की जिसमें आम सर्दी-जुकाम से लेकर कैंसर तथा अन्य बीमारियों की दवाएं शामिल हैं.
दवा उद्योग के मामले में वर्ष के बड़े हिस्से में रैनबैक्सी का ही मुद्दा छाया रहा. मालविंदर और शिविंदर मोहन सिंह परिवार द्वारा स्थापित यह घरेलू कंपनी रैनबैक्सी साल के दौरान काफी समय चर्चा के केंद्र में रही. इस कंपनी के विलय एवं अधिग्रहण के सौदे के अलावा इसपर अमेरिका तथा यूरोप समेत कई देशों में नियामकीय शिकंजा कसा जाना भी लगातार चर्चा में रहा.
अप्रैल में सन और रैनबैक्सी के बीच अधिग्रहण सौदे की आश्चर्यचकित करने वाली घोषणा हुई. तब यह जापान की दाईची के स्वामित्व में थी. जापान की दाईची ने वर्ष 2008 में 22,000 करोड रुपये में रैनबैक्सी की बहुमत हिस्सेदारी खरीदी थी. मालविंदर और शिविंदर सिंह ने इसे जापानी कंपनी के हवाले कर दिया था. सन-रैनबैक्सी का पूरा सौदा शेयरों की अदला-बदली के तहत किया जाना है. यह सौदा करीब चार अरब डॉलर का होगा जिसके बाद यह दुनिया की पांचवी बड़ी दवा कंपनी बन जायेगी.
दो बड़ी घरेलू दवा कंपनियों के विलय का यह सौदा भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (सीसीआई) की जांच के घेरे में भी आया. आयोग ने साल के अंत में इसे मंजूर करने से पहले विलय की सार्वजनिक जांच का निर्देश दिया जो अपनी तरह का पहला मामला था. इससे पहले नियामक ने दोनों कंपनियों के सात ब्रांडों के विनिवेश का आदेश दिया.
सन फार्मा और रैनबैक्सी दोनों को ही अमेरिकी स्वास्थ्य नियामक एफडीए के समक्ष बेहतर विनिर्माण नियमों से जुडे मुद्दों को लेकर जूझना पड़ा. इसके अलावा यूएसएफडीए (अमेरिकी खाद्य एवं दवा प्रशासन) ने इपका लैब्स, वॉकहार्ट और डाक्टर रेड्डीज लेबोरेटरीज जैसी कई अन्य भारतीय दवा कंपनियों पर भी शिकंजा कसा. एफडीए ने दुनिया की बड़ी दवा कंपनी के तौर पर पहचान रखने वाली रैनबैक्सी के भारत स्थित कारखाने में विनिर्मित दवाओं के आयात पर रोक लगा दी.
अमेरिका के टेक्सॉस राज्य के एक स्वास्थ्य कार्यक्रम में भागीदारी से जुड़े मामले को निपटाने के लिये रैनबैक्सी ने किस्तों में 3.97 करोड डॉलर यानि करीब 244 करोड रुपए के भुगतान पर सहमति जताई.
इधर, रैनबैक्सी ने भी अमेरिकी बाजार में नेक्सियम तथा वैल्साइट के जेनेरिक प्रारुप की बिक्री की मंजूरी वापस लेने के लिए यूएसएफडीए पर मुकदमा ठोका. इसने यूएसडीए द्वारा डाक्टर रेड्डीज लेबोरेटरीज और एंडो फार्मास्यूटिकल्स को जेनेरिक दवा वैल्साइट पेश करने की मंजूरी पर रोक लगाने की भी मांग की.
दूसरी ओर एक सकारात्मक पहलू के तहत अमेरिकी अदालत ने कहा कि ऐस्ट्राजेनेका की मशहूर दवा नेक्सियम को लेकर रैनबैक्सी के साथ पेटेंट विवाद का निपटान प्रतिस्पर्धा-रोधी नहीं है. सन फार्मा को भी एफडीए का कोपभाजन बनना पडा क्योंकि अमेरिकी नियामक ने उसके गुजरात के करखडी संयत्र में बनी दवाओं के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया.
एक अन्य भारतीय औषधि कंपनी जिसे मुश्किलों का सामना करना पड़ा, वह थी वॉककहार्ट, जिसके अमेरिका स्थित इलिनोइस संयंत्र में कई तरह की प्रक्रियात्मक खामियां पाई गईं.
इधर, ल्यूपिन और यूनिकेम लेबोरेटरीज उन छह वैश्विक दवा कंपनियों में शामिल रही जिन पर यूरोपीय नियामक ने एक फ्रांसीसी कंपनी सर्वियर के साथ सौदा करने के मामले में 42.77 करोड यूरो का सामूहिक जुर्माना लगाया ताकि यूरोपीय संघ में रक्तचाप की दवा पेरिनडॉप्रिल के सस्ते प्रारुप पर रोक लगाई जा सके.
घरेलू कंपनियों की ओर से विदेश में अधिग्रहण के मामले में अरबिंदो फार्मा ने नेतृत्व किया और उसने पौष्टिक पूरक आहार बनाने वाली कंपनी नेट्रोल इंक और इसकी अन्य संबद्ध कंपनियों का 13.25 करोड डॉलर (810 करोड रुपए) में अधिग्रहण किया.
सिप्ला ने भी अपने उत्पादों के विपणन के लिए श्रीलंका की एक कंपनी का 1.4 डॉलर (करीब 85 करोड रुपए) में अधिग्रहण किया. मुंबई की कंपनी ने अमेरिका की चेज फार्मास्यूटिकल्स कार्पोरेशन इक में 14.6 प्रतिशत हिस्सेदारी का अधिग्रहण करने की भी घोषणा की.
साल के मध्य में सिप्ला ने कहा कि वह अगले कुछ साल में ब्रिटेन में 10 करोड पौंड तक (करीब 1,030 करोड रुपए) का निवेश करेगी ताकि वैश्विक विस्तार योजना के अंग के तौर पर नई दवाओं का विकास और इन्हें पेश किया जा सके.
इधर अमेरिकी कंपनी जिलीड साइंसेज इंक ने सिप्ला, रैनबैक्सी, कैडिला, मायलान लैबोरेटरीज, सीक्वेंट साइंटिफिक, स्ट्राइड्स आर्कोलैब और हेटेरा लैब समेत भारत की सात दवा कंपनियों के साथ हैपेटाइटिस-सी की दवाओं के लिए लाइसेंसिंग समझौते पर हस्ताक्षर किये, ताकि उन्हें 91 विकासशील देशों में उपलब्ध कराया जा सके.
ल्यूपिन और अमेरिकी कंपनी सैलिक्स फार्मा ने भी एक निर्णायक वितरण समझौते पर हस्ताक्षर किये. सरकार ने फार्मा क्षेत्र से जुड़े विभिन्न विभागों और एजेंसियों को एक प्राधिकार के तहत लाने पर भी विचार किया ताकि बेहतर संयोजन और प्रभावशालिता रहे.
राष्ट्रीय दवा मूल्य निर्धारण नियामक राष्ट्रीय फार्मा मूल्य-निर्धारण प्राधिकार (एनपीपीए) ने भी दवाओं को सस्ता बनाने के लिए मूल्य नियंत्रण प्रक्रिया तेज की.
कुछ प्रमुख दवाओं की कीमत कम करने के लिए एनपीपीए ने मधुमेह और हृदय रोग की 50 दवाओं के लिए 108 गैर-अनुसूचित फौर्म्यूलेशन पैक की कीमत तय की. फार्मा उद्योग ने इसका विरोध किया. इसके लिए उद्योग ने प्रधानमंत्री से भी आग्रह किया था. इसके बाद इसे मुंबई और दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी.
हालांकि, बाद में एनपीपीए को दवा मूल्य नियंत्रण आदेश के तहत जारी आंतरिक दिशानिर्देश वापस लेना पड़ा. यह आदेश दवा मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) 2013 के तहत जारी किया गया था.
इसके अलावा एंटीबायोटिक सिप्रोफ्लोक्सासिन, बीसीजी वैक्सीन और मधुमेह रोधी मेटफॉर्मिन समेत 95 फामरूलेशंस पैक के मूल्य को भी नियंत्रित कर दिया गया.

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