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बीमा एजेंट लापता हो जाये तो..

दो सालों में छह लाख एजेंट बीमा उद्योग को कह चुके हैं अलविदा सन् 2010 से लेकर अब तक, देश में छह लाख से ज्यादा बीमा एजेंट इस धंधे को छोड़ चुके हैं. इरडा के आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2010 में एजेंटों की संख्या 29 लाख 78 हजार थी, जो मार्च 2012 में 23 […]

दो सालों में छह लाख एजेंट बीमा उद्योग को कह चुके हैं अलविदा

सन् 2010 से लेकर अब तक, देश में छह लाख से ज्यादा बीमा एजेंट इस धंधे को छोड़ चुके हैं. इरडा के आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2010 में एजेंटों की संख्या 29 लाख 78 हजार थी, जो मार्च 2012 में 23 लाख 59 हजार रह गयी. यानी 21 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी. इस क्षेत्र के जानकार बताते हैं कि साल 2012-13 में और एक लाख एजेंट निकल गये. यानी, जो हालात बन रहे हैं, उसमें अगर आपका भी बीमा एजेंट रफूचक्कर हो गया हो या आगे जाकर हो जाये, तो कोई बड़ी बात नहीं. एजेंट द्वारा छोड़ी गयी पॉलिसयों के बारे में कंपनियों और इरडा ने कुछ प्रावधान किये हैं, पर सबसे जरूरी है खुद को इसके लिए तैयार करना.

क्या होती है एजेंट से उम्मीद

* अधिकतर लोग चाहते हैं कि बीमा एजेंट सही पॉलिसी चुनने में उनकी मदद करे. नयी-नयी योजनाओं के बारे में सूचनाएं दे.

* बीमा प्रस्ताव का फार्म भरने से लेकर चिकित्सकीय जांच कराने, प्रीमियम की तारीख याद दिलाने, प्रीमियम जमा कराने में सहयोग करे.

* दावे की स्थिति में दावे का निबटारा करवाने में परिवार की मदद करे.

* पॉलिसी की परिपक्वता की स्थिति में मिलनेवाला लाभ दिलाने में सहयोग करे.

* लोग चाहते हैं कि बीमा कंपनी के प्रतिनिधि के रूप में एजेंट से जीवंत संपर्क रहे.

* पता और बैंक खाता नंबर बदलवाने जैसे छोटे-मोटे काम भी बिना हीला-हवाली के करवाये.

एजेंट किसी भी पॉलिसी से जुड़ी सभी खूबियों और कमियों को सही-सही बताये. सिर्फ पॉलिसी बेचने के मकसद से किसी बात को न छिपाये.
आज की व्यस्त जिंदगी में लोगों के पास समय की कमी है. इसलिए बहुत से लोग बीमा पॉलिसी लेने से लेकर उसे चलाने तक के लिए एजेंट चाहते हैं.

कविता कपूर का अपना कारोबार है. उन पर घर और बच्चों की भी जिम्मेदारी है. इस व्यस्त जिंदगी में, निवेश के लिए बीमा उनकी पहली पंसद रहा है. इसके दो मुख्य कारण हैं. एक तो यह कि ये लंबी अवधि के उत्पाद होते हैं और दूसरा यह कि बीमा एजेंट पॉलिसी चुनने में मदद करने से लेकर तय समय पर प्रीमियम जमा करवाने की जिम्मेदारी उठाता है. पिछले कई सालों से वह एजेंट पर निर्भर थीं. लेकिन पिछले साल उनके एजेंट ने यह काम छोड़ दिया. नतीजा यह हुआ कि वह अपनी कई पॉलिसियों के प्रीमियम समय पर चुकाने से चूक गयीं.

सवाल उठता है कि आखिर एजेंट गायब क्यों हो रहे हैं. 2004 में यूलिप का बाजार बहुत तेजी से बढ़ा. नयी-नयी स्थापित जीवन बीमा कंपनियों ने बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए यूलिप को हथियार बनाया. क्षेत्र में बढ़ती प्रतियोगिता को देखते हुए हजारों की तादाद में एजेंट भरती कर लिये गये. सिर्फ 100 घंटे (जो बाद में 50 घंटे कर दिया गया) के अनिवार्य प्रशिक्षण के आधार पर. एजेंटों को यूलिप के पहले प्रीमियम पर 40 फीसदी तक कमीशन दिया जाने लगा. इसके बावजूद उनके लिए राह आसान नहीं बनी, क्योंकि इस देश में लोगों को लंबे समय से सरकारी कंपनी एलआइसी से ही पॉलिसी लेने की आदत रही है. एजेंटों के लिए लक्ष्य पूरा होना मुश्किल हुआ, तो वे अपने पुराने पॉलिसीधारकों को उनके हाल पर छोड़ कर कंपनियां बदलने लगे.

एजेंटों ने अपने लक्ष्य पूरे करने के लिए बहुत-सी पॉलिसियां झांसा देकर बेचीं. ग्राहकों को उत्पादों के बारे में गलत सूचनाएं दीं. कई मामलों में तो ग्राहक आधे-अधूरे प्रशिक्षित एजेंटों के अनाड़ीपन का शिकार हो गये. एजेंटों ने लक्ष्य पूरा करने के लिए यहां तक किया कि ग्राहकों को पुरानी पॉलिसी सरेंडर करा कर नयी पॉलिसी बेची. नतीजतन, सरेंडर चार्ज कटने की वजह से ग्राहकों को काफी नुकसान हुआ.

2010 से बदला खेल

इस साल नियामक की ओर से कई बड़े बदलाव किये गये खास कर यूलिप के मामले में, जिसका कुल बिक्री में हिस्सा लगभग 80 फीसदी हुआ करता था. बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (इरडा) ने यूलिप के पहले साल के प्रीमियम पर कमीशन को 35-40 फीसदी से घटा कर 8-10 फीसदी कर दिया. इसकी वजह से कई एजेंटों के लिए उनका काम फायदे का धंधा नहीं रह गया. रही-सही कसर शेयर बाजार में अस्थिरता की वजह से यूलिप की बिक्री में आयी कमी ने पूरी कर दी.

नये विकल्प

आज भी 88 फीसदी पॉलिसियां एजेंट ही बेचते हैं. बैंक बीमा पॉलिसी बेच रहे हैं, लेकिन वे केवल एक ही कंपनी की पॉलिसी बेचते हैं, जिसके साथ उनका गंठजोड़ होता है. बीमा दलाल से भी पॉलिसी ले सकते हैं, लेकिन वितरण का यह जरिया अभी अपने देश में ज्यादा फैला नहीं है. इसे देखते हुए पिछले कुछ सालों में पॉलिसियों की ऑनलाइन खरीद बढ़ी है.

लेकिन, ऐसा ज्यादातर सरल बीमा प्लानों जैसे वाहन बीमा, स्वास्थ्य बीमा (मेडिक्लेम), दुर्घटना बीमा और मियादी जीवन बीमा (टर्म प्लान) के सिलसिले में ही हो रहा है. जब बात आती है जीवन बीमा सह निवेश योजनाओं की, तो नजारा बदल जाता है. इस तरह के प्लान जटिल होते हैं, इसलिए ग्राहक पॉलिसी की खरीद से पहले उसकी खूबियों को समझने और अपनी शंकाओं के समाधान के वास्ते किसी एजेंट की मदद चाहते हैं.

लैप्स कर रही हैं पॉलिसियां

बीमा उद्योग में, एजेंटों द्वारा ‘बेसहारा’ छोड़ दिये गये पॉलिसीधारकों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है. कुछ बीमा कंपनियों में तो यह संख्या 30-50 फीसदी तक पहुंच गयी है. लैप्स पॉलिसियों की तादाद भी बढ़ रही है. हालांकि इसके अनेक कारण हो सकते हैं, पर एक कारण एजेंटों का लापता होना भी हो सकता है. 2011-12 में कुछ बड़ी कंपनियों में लैप्स पॉलिसियों की संख्या 10 फीसदी तक बढ़ गयी. एजेंटों के गायब होने के मद्देनजर कंपनियां वैकल्पिक इंतजाम में लगी हैं. कुछ बीमा कंपनियों ने बिना एजेंट के, सीधे पॉलिसी बेचने और अन्य सेवाएं देने पर जोर दिया है. कंपनी द्वारा गठित ग्राहक सलाहकारों की एक टीम ऐसे ग्राहकों के साथ फोन, ई-मेल आदि के जरिये खास तौर पर संपर्क में रहती है, जिनके एजेंट पिछले छह महीनों या इससे ज्यादा से लापता हैं. इसका मकसद है बिना एजेंट वाले ग्राहकों की पॉलिसी को लैप्स होने से रोकना.

क्या हैं नियम

इरडा ने ‘बेसहारा’ छोड़ दिये गये पॉलिसीधारकों को सेवा प्रदान करने के लिए जून 2012 में दिशा-निर्देश तय किये. इसके तहत बीमा कंपनियां ऐसी पॉलिसियों के लिए नये एजेंट आवंटित कर सकती हैं. दिशा-निर्देश के मुताबिक, कोई बेसहारा पॉलिसी लैप्स होने की स्थिति में ही नये एजेंट को दी जा सकती है. अगर यह पॉलिसी फिर से चालू होती है, तभी एजेंट उस पॉलिसीधारक को नयी पॉलिसियां बेच सकेगा.

अगर वह पॉलिसी सरेंडर हो जाती है, तो नया एजेंट सरेंडर होने की तारीख से लेकर अगले छह माह तक उस पॉलिसीधारक को कोई पॉलिसी नहीं बेच पायेगा. इसका मकसद यह है कि नया एजेंट गलत जानकारियां देकर पॉलिसी न बेच पाये. लेकिन आवंटित पॉलिसियों में एजेंटों के हिस्से में कुछ खास नहीं आता. उन्हें सिर्फ नवीकरण का कमीशन मिलता है. इसके अलावा आवंटित पॉलिसियां उनके अनवरतता अनुपात की गणना में भी नहीं शामिल की जाती हैं.

खुद लें जिम्मा

बीमा कंपनियों और इरडा के उपाय अपनी जगह हैं, पर एजेंटों द्वार छोड़ दी गयी पॉलिसियों के मामले में ग्राहकों को खुद सक्रियता दिखानी चाहिए. अगर आप आखिरी तारीख तक प्रीमियम भरने से चूक गये हैं, तो बीमा कंपनी के स्थानीय दफ्तर में जाकर बकाया प्रीमियम का पूरा भुगतान कर दें. अगर आप मोहलत अवधि (ग्रेस पीरियड) में हैं, तो यह काम बिना किसी परेशानी के हो जायेगा. सालाना, छमाही और त्रैमासिक प्रीमियम के मामले में एक महीने तक की मोहलत होती है, जबकि मासिक प्रीमियम के मामले में 15 दिन की.

यूलिप में, बीमा कंपनी मोहलत अवधि के बाद 15 दिन के अंदर नोटिस भेजती है और नोटिस मिलने के बाद प्रीमियम भुगतान के लिए 30 दिन का समय देती है. इन 45 दिनों में अगर आप प्रीमियम नहीं भरते हैं, तो पॉलिसी स्थायी रूप से रोक दी जायेगी, जिसे दोबारा शुरू नहीं किया जा सकेगा. और, फंड वैल्यू आपके खाते में ट्रांसफर कर दी जायेगी. अगर ऐसा लॉक -इन पीरियड में होता है, तो बीमा कंपनी मौजूदा मूल्य पर यूनिटों को निकाल लेगी और विभिन्न शुल्क काटने के बाद उस पैसे को एक खाते में रख देगी. लॉक -इन अवधि के बाद यह पैसा ब्याज के साथ पॉलिसीधारक को दे दिया जायेगा.

पारंपरिक पॉलिसियों में, अगर मोहलत अवधि खत्म हो गयी है, तो पॉलिसी बहाली (रीइनस्टेटमेंट) की अवधि में चली जाती है. इस अवधि में आप पॉलिसी फिर से चालू करवा सकते हैं. यह अवधि बीमा कंपनियों और प्लान के हिसाब से अलग-अलग होती है. पॉलिसी को पुनर्जीवित कराने के लिए आपको बकाया प्रीमियम, उस पर ब्याज और कुछ स्थितियों में अच्छे स्वास्थ्य का प्रमाणपत्र देना होता है.

आप बीमा कंपनी के पास अपना ऑनलाइन पंजीकरण करा लें, इससे भी आपको काफी मदद मिलेगी.

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