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नीलांशु रंजन

पत्रकार-साहित्यकार

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फैज : तरक्कीपसंद तहरीक का एक अहम शायर

Faiz Ahmad Faiz : फैज ने जो संतुलन काइम रखा है जमालियात और सियासियात के दरमियां, वो बहुत कम लोग रख पाते हैं और शायद इसलिए अपनी महबूबा से फैज कहते हैं- 'मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग/और भी दुख हैं जमाने में मुहब्ब्त के सिवा/राहते और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा.'

परवीन शाकिर: शायरी की नजाकत समझने वाली शायरा

Parveen Shakir : परवीन शाकिर की आंखों में जरा गौर से देखिए, उनमें इश्क की नमी भी है, तो वहीं तन्हाई और गहराई भी नजर आती है और वही उनकी शायरी में भी प्रतिबिंबित होती हैं.

सचमुच आसां नहीं है मुनव्वर होना

'तुम्हारी महफिलों में हम बड़े-बूढ़े जरूरी हैं/ अगर हम ही नहीं होंगे तो पगड़ी कौन बांधेगा.' इस फानी दुनिया को उन्होंने अलविदा कह दिया शायद अगला आबो-दाना ढूंढने के लिए. उन्हीं का शे'र है- 'परिंदों! आओ चलकर वो ठिकाना देख लेते हैं/ कहां पर होगा अगला आबो-दाना देख लेते हैं.'

गालिब का है अंदाज-ए-बयां और

गालिब ने फारसी में भी लिखा और उर्दू में भी. लेकिन पजीराई मिली उन्हें उर्दू कलाम से. गालिब को जितनी दफा पढिए, वो अलग-अलग शेड में नजर आते हैं. मिसाल के तौर पर 'दीवान-ए-गालिब' का पहला शे‘र ही लीजिए.
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