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श्री कृष्ण सिंह की जयंती पर विशेष : श्री बाबू कहते थे स्वराज मांगा नहीं छीना जाता है

जन्म 21 अक्तूबर, 1887 नवादा निधन 31 जनवरी, 1961 पटना विजय कुमार स्‍थूल शरीर पर महीन और दूध के फेन के समान उजला कुर्ता, खूब महीन धोती, पांवों में चप्पल और सिर पर सजी नुकीली गांधी-टोपी, वेश-भूषा से श्री बाबू एक कला-प्रेमी रईस के समान दिखते हैं. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने बिहार केसरी डा […]

जन्म
21 अक्तूबर, 1887
नवादा
निधन
31 जनवरी, 1961
पटना
विजय कुमार
स्‍थूल शरीर पर महीन और दूध के फेन के समान उजला कुर्ता, खूब महीन धोती, पांवों में चप्पल और सिर पर सजी नुकीली गांधी-टोपी, वेश-भूषा से श्री बाबू एक कला-प्रेमी रईस के समान दिखते हैं. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने बिहार केसरी डा श्री कृष्ण सिंह की यही रूपरेखा खींची थी. दिनकर के शब्दों में उनकी अंगुलियों में कभी कभी अंगूठी भी दिखेगी.
रंग उनका गेहूआं है, आकृति सदैव निर्लोम रहती हैं, आंखें चेहरे के अनुपात में कुछ छोटी है और कान भी बड़े नहीं हैं. लेकिन, आकृति पर जो एक मुक्त हंसी की किरण खेलती है, वह बतलाती है कि हृदय के तल में मस्ती और बेफिक्री की मात्रा भरपूर है. श्री बाबू बुद्धि नहीं, भावना के अधीन जीते. उनकी बुद्धि जब कार्य में प्रवेश करती है तब काम की भीड़ में उनका व्यक्तित्व भी डूब जाता है.
सन 1916 में कालेज की शिक्षा समाप्त करके श्री बाबू ने मुंगेर में वकालत शुरू की. थोड़े ही दिनों में चारो ओर से आवाजें आने लगी कि मुंगेर के वकालतखाने में एक नई प्रतिभा ने प्रवेश किया है. इसी समय ऐनीबेसेंट के होमरूल आंदोलन ने जोर पकड़ा और श्री बाबू अत्यंत सहज रूप से मुंगेर में इस आंदोलन के नेता हो गये. बिहार केसरी डा श्री कृष्ण सिंह ने आजादी की लड़ाई के दौरान एक बार कहा था, स्वराज मांगा नहीं छीना जाता है. श्री बाबू का यह भाषण तत्कालीन समाचार पत्र देश में 8 दिसंबर, 1929 को प्रकाशित हुआ था. यह कई दृष्टियों से अदभुत है, क्योंकि ‘स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है’ के नारा के प्रतिपादक लोकमान्य तिलक थे.
अपने छात्र जीवन एवं राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक दौर में श्री बाबू महर्षि अरविंद और तिलक के विचारों से प्रभावित रहे. वे भारतीय राजनीति के समकालीन नेताओं को अरविंद और तिलक की आंखों से देखना चाहते थे.
यही कारण था कि स्कूली जीवन में ही एक हाथ में कृपाण और दूसरे हाथ में गीता लेकर गंगा नदी में प्रवेश कर कसम खाने वाले श्री कृष्ण सिंह ने 1912 में पहली बार पटना में होने वाले अखिल भारतीय कांग्रेस के महाधिवेशन में नरमदलीय कांग्रेस के प्रति अपनी उपेक्षा प्रदर्शित करने के कारण कोई योगदान नहीं दिया. वे उस समय पटना कालेज के छात्र थे. 1907 के सूरत कांग्रेस में झगड़े के बाद तिलक अपने गरम दलीय सहकर्मियों को लेकर कांग्रेस छोड़ निकल गये, तब श्री बाबू ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था.
इसी तरह जब जार्ज पंचम का पटना आगमन हुआ और वो शहर का नजारा देखने के लिए नाव पर सवार हो गंगा भ्रमण को निकले थे, तो सारा किनारा लोगों से खचाखच भर गया था. मिंटो होस्टल के छात्र भी भीड़ में जा मिले, किंतु श्री कृष्ण सिंह अपने कमरे से बाहर नहीं निकले.
कहीं बादशाह के शरीर पर नजर न पड़ जाये, इस पाप से बचने के लिए उन्होंने अपनी कोठरी की खिड़कियां भी बंद कर ली. इस उत्कट राष्ट्रवाद के समर्थक होते हुए गांधी जी के प्रभाव में आने के बावजूद श्री बाबू की वाणी में वही जोश और गर्मी थी, जो गर्मपंथी नेताओं में थी. बावजूद इसके सत्य और अहिंसा के सिद्धांत में अटूट आस्था रखने वाले नेताओं में एक थे.
1937 के प्रीमियर के पद ग्रहण के पूर्व मुंगेर जिला परिषद से विदाई के समारोह की एक सभा को संबोधित करते हुए श्री बाबू ने कहा, जिस कानून के मुतल्लिक मैं मंत्री बनने जा रहा हूं उस कानून से हमें पर्याप्त अधिकार प्राप्त नहीं है. फिर भी मैं चाहता हूं कि सचिवालय में बैठने वाले बड़े ओहदेदार से लेकर गांव में रहने वाले चौकीदार तक प्रत्येक सरकारी नौकर यह अनुभव करने लग जायें कि वह इसी भूमि की जनता के सेवक हैं.
पुलिस वाले सुन लें कि उनका प्रधानमंत्री आज इस मंच से इन्कलाब जिंदाबाद का नारा लगा रहा है. उन्होंने साफ शब्दों में कहा, संभव है मुझे ऐसा करते हुए अपने संबंधी जमींदारों की छाती पर भी मूंग दलना पड़ेगा. साम्यवादी जमींदारों का नाश चाहते हैं लेकिन कांग्रेस चाहती है कि जमींदार रहें पर पृथ्वी की छाती फाड़ कर अन्न उपजाने वाला किसान भूखा नहीं रहे. सड़कों पर भटकने वाला भीख मांगने वाला और करोड़पति का दर्जा भी समान ही समझा जाये.
अनुग्रह नारायण सिंह और श्री बाबू की जान-पहचान 1908 में उस समय हुई जब अनुग्रह बाबू ने पटना कालेज में इस साल नाम लिखाया.
उन दोनों को मिलाने वाले थे शंभुनाथ वर्मा. अनुग्रह बाबू 1916 की एक घटना की याद करते हैं, इस साल गंगा नदी में भीषण बाढ़ आयी थी. मैं उस समय भागलपुर टीएनजे कालेज में प्रोफेसर था. मैंने सहायता कार्य अपने हाथ में लिया. इसी सिलसिले में मुंगेर पहुंचा. मुंगेर में अपने पुराने दोस्त से मिल सकूंगा इस बात से मैं बहुत खुश था. जब मैं उनसे मिला, उन्होंने मेरा हार्दिक स्वागत किया और हंसते हुए कहा कि मैं घुमक्कड़ हूं. जवाब में मैने कहा, आप भी तो व्याख्यानों के जरिये लोगों को गुमराह करने वाले ही हैं.
जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो श्री बाबू उसमें कूद पड़े. अपनी वकालत स्थगित कर दी और नये मतवाद का डट कर प्रचार करने लगे. मुंगेर जिले के सुदूर गांवों तक दौरा किया. जिले का शायद ही ऐसा कोई गांव होगा जहां उन्होंने यात्रा नही की. उस समय आज की तरह तेज चलने वाली गाड़ी नहीं मिलती थी. पैदल, बैलगाड़ी या ऐसी दूसरी सवारी पर उन्होंने दौरा किया.
अनुग्रह बाबू के मुताबिक 1934 के प्रलयकारी भूकंप ने मुंगेर समेत बिहार के दूसरे अनेक शहरों को विनष्ट कर दिया था. श्री बाबू अभी जेल से रिहा ही हुए थे. वे पुनर्निर्माण के कार्य में पूरी शक्ति के साथ जुट गये. उन्होंने तब तक आराम की सांसें न ली, जब तक उजड़ा बिहार फिर से बस नहीं गया.
(लेखक बिहार अभिलेखागार के पूर्व निदेशक हैं.)
बाबाधाम में दलितों को प्रवेश कराने पर गांव बदर कर दिये गये थे श्री बाबू
श्याम सुंदर सिंह धीरज
राज्य के पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह की राजनीतिक चमक के पीछे उनकी अदम्य त्याग छिपी है. देवघर के मंदिर में उन्होंने दलितों को प्रवेश कराया था. इस घटना से उत्तेजित वहां के पंडों ने श्री बाबू पर लाठियां बरसायी. उन्हें गंभीर चोटें आयी. दलितों को देवघर मंदिर में प्रवेश का विरोध श्री बाबू को अपने गांव और घर में भी झेलना पड़ा. उन्हे घर से बाहर कर दिया गया.
गांव में उन्हें किसी ने जगह नहीं दी़. श्री बाबू ने अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर गांव के बाहर छोटी सी झोपड़ी बनायी. उसी में परिवार रहने लगा. यह बात जब महेश प्रसाद सिंह को मालूम हुई तो वे तत्काल माउर पहुंचे और सबको अपने घर मुजफ्फरपुर ले गये. श्री बाबू का जब देहावसान हुआ तब उनके पास मात्र 11 हजार रुपये जमा थे.
इसमें भी वो अपने एक कार्यकर्ता की बेटी की शादी के लिए आठ हजार रुपया देने की बात लिख गये थे. इतने दिनों तक बिहार के मुख्यमंत्री रहने वाले श्री बाबू के पास जमा रुपया नहीं के बराबर होना उनकी ईमानदारी और त्याग की कहानी कहता है.
उन्होंने कभी भी जाति और बिरादरी की वकालत नही की. कभी किसी जातिगत सम्मेलन में नहीं गये. उन दिनों सर गणेश दत्त ने भूमिहार बच्चों की पढ़ाई के लिए छात्रवृति लागू करने का सुझाव दिया था. लेकिन, श्री बाबू ने पिछड़े वर्ग के बच्चों की पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप लागू किया. श्री बाबू ने जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया.
उन दिनों बिहार में जितने बड़े जमींदार थे, उनमें अस्सी प्रतिशत भूमिहार जाति से आते थे. श्री बाबू ने किसी की परवाह नहीं की और जमींदारी प्रथा को खत्म किया. श्री बाबू किसी एक बिरादरी के नेता नहीं थे, वह पूरे समाज के नेता थे. ऐसा नहीं होता तो आजीवन प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं रह पाते.
उन दिनों श्री बाबू ने पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की बात की. गरीबों की आवाज बने. 1932 के आसपास भूमिहार जाति के कुछ लोग उनके पास गये और कहा कि दरभंगा महाराज उन्हें भूमिहार-ब्राह्मण बताये जाने से नाराज हैं. इस पर श्री बाबू ने मिलने आये लोगों को रोका और कहा कि क्यों तुमलोग ब्राह्मण बनना चाहते हो.
उनके जीवन का एक पक्ष और भी है. आजादी के लिए संघर्ष चल रहा था. श्री बाबू की पत्नी पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती थीं.
अंग्रेज कमिश्नर ने श्री बाबू को संवाद भिजवाया कि वह आंदोलन से पीछे हट जायें तो बीमार पत्नी की देखभाल की उन्हें अनुमति मिल सकती है. लेकिन, श्री बाबू को यह गंवारा नहीं था. वो पीएमसीएच पहुंचे, एक व्यक्ति से गंगा जल मंगवाया. पत्नी को गंगा जल देते हुए कहा कि यह रख लीजिये, हमारे सामने देश है, उसके बाद आप हैं. गंगा जल पिला कर श्री बाबू टमटम पर बैठ कर पटना विवि की ओर निकल गये. कुछ दिन बाद श्री बाबू की पत्नी का देहांत हो गया, उस समय वो जेल में बंद थे.
(लेखक पूर्व मंत्री और वर्तमान में प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हैं)
बैकवर्ड लीडरशिप को श्री बाबू ने आगे बढ़ाया
शैबाल गुप्ता
यह मिथ है कि एप्लवी ने 1950 के दशक में बिहार के प्रशासनिक व्यवस्था को देश में अव्वल बताया था, पर तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह उर्फ श्री बाबू ने कई ऐसे कार्य किये जिससे बिहार की गरिमा बढ़ी और दूसरे प्रांतों के लिए रोल माडल भी बना. एप्लवी की जिस रिपोर्ट की चर्चा होती है उसका कहीं लिखित जिक्र नहीं है. श्री बाबू ने राज्य में बैकवर्ड लीडरशिप को आगे आने के लिए प्रेरित किया. जमींदारी व्यवस्था का उन्मूलन करने को कदम उठाये. सही मायने में कहा जाये तो श्री बाबू सामाजिक न्याय के कर्णधार थे.
उन दिनों राष्ट्रीय आंदोलन में मुख्यत: दो धाराएं थीं, एक गुट जमींदारी प्रथा के खिलाफ था, वहीं दूसरा इसके बने रहने के समर्थक थे. जमींदारी प्रथा के खिलाफ वाले लोगों में जयप्रकाश नारायण, सहजानंद सरस्वती और कृष्णवल्लभ सहाय जैसे नेता थे. श्री बाबू इस गुट की अगुवायी करते थे. दूसरी ओर डा राजेंद्र प्रसाद, सर गणेश दत्त, सर सीपीएन सिंह थे.
जमींदारी प्रथा को खत्म करने में वामपंथी विचारधारा से ओत प्रोत रामचरित्र प्रसाद सिंह और चंद्रशेखर सिंह ने भी श्री बाबू का साथ दिया था.
श्री बाबू की अगुवायी में बिहार पहला राज्य था जिसने जमींदारी प्रथा को खत्म किया. स्थायी बंदोवस्ती लागू की गयी. लेकिन, यह सब आसान नहीं था. श्री बाबू ने पिछड़ा लीडरशिप को मुख्य धारा में लाने का काम किया. उनकी सरकार में वीरचंद पटेल, जगलाल चौधरी मंत्री हुए. यह श्री बाबू का करिश्माई व्यक्तित्व था, जिन्होंने राज्य की राजनीति में दूसरी पंक्ति के नेताओं को मेनस्ट्रीम में लाने की पहल की. जबकि, राष्ट्रीय स्तर उन्हें पंडित जवाहर लाल नेहरू का करीबी माना जाता था.

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