कमलेश जैन
अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट
पिछले साल भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने यह कह कर सबको चौंका दिया था कि लंबित मामलों के निबटारे और सक्षम न्याय प्रणाली के लिए 70 हजार जजों की जरूरत है. उन्होंने अन्य संसाधनों की कमी को भी रेखांकित किया था.
दूसरी तरफ, जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच खींचतान पर अभी तक पूर्ण विराम नहीं लग सका है. न्याय प्रणाली को बेहतर बनाने के मसले पर न्यायपालिका के भीतर की व्यवस्था तथा सरकारी रवैये को लेकर भी बहसें होती रही हैं. लेकिन, भाषणों, आश्वासनों और प्रयासों के बावजूद न्यायपालिका की गति और सक्षमता अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुंच पायी है. इस मुद्दे के विभिन्न आयामों पर चर्चा के साथ प्रस्तुत है आज का संडे इश्यू.
भारतीय न्यायपालिका में जनता का विश्वास दूसरी भारतीय संस्थानों से कहीं ज्यादा बना हुआ है, पर फिर भी असंतोष भी गहरे तक है. न्यायपालिका के कई घटक होते हैं- पुलिस, अदालत, वकील, जज एवं जेल. इन सबको मिलाकर ही न्याय देने की व्यवस्था यानी न्यायपालिका बनती है. न्यायपालिका की मौजूदा हालत को समझने के लिए इन घटकों की हालत से और साथ ही इनकी खामियों से भी रूबरू होने की जरूरत है. क्योंकि इन सबको समझकर ही न्यायपालिका की पूरी व्यवस्था को समझा जा सकता है.
पुलिस-प्रशासन की सुस्ती
पुलिस की कार्यवाही से सभी परिचित हैं. जब तक कोई बड़ी घटना न हो जाये, पुलिस अपनी कुर्सी से हिलना नहीं चाहती. उसके पास बहानों का अंतहीन जाल है. कोई मारनेवाला ही तो है- मारा तो नहीं. जब वह मार दे और कुछ हो जाये, तो उसके बाद थाने आकर शिकायत दर्ज कराओ, तब सोचेंगे क्या करना है. लड़की से छेड़छाड़! कोई बात नहीं है, जब कुछ और हो जाये, तब आना, आदि-आदि.
जैसा कि हमारा स्वभाव है, पुलिस भी दम साधे दुर्घटना का इंतजार करती है- रेप से लेकर मर्डर होने तक, किसी निर्माण कार्य के दौरान या बना-बनाया पुल गिर जाने तक या फिर रेलवे का पटरी से उतर जाने तक. घटना होने पर भी छान-बीन करने के बाबा आदम जमाने से होते आ रहे तंत्रों से ले-देकर मामला सुलझाने में देरी करने, चार्जशीट देने और सबसे ज्यादा रसूखदार के हक में काम करने का आदी है यह तंत्र.
भेदभाव वाला न्याय तंत्र
इन चौखटों से गुजरकर जब मामला अदालत तक पहुंचता है, तो वहां भी वकील साहब कैसे हैं, इस पर भी काफी कुछ निर्भर करता है. नये हैं या पुराने, बुद्धिमान हैं या नहीं, तेजी से काम करते हैं या देर से, अनुभवी हैं या नहीं आदि-आदि. विडंबना है कि न्याय तंत्र में भी भेदभाव व्याप्त है.
गरीबों की पहुंच अच्छे वकीलों तक नहीं हो पाती है. कारण है- पैसा, जो कि भारत में 90 प्रतिशत लोगों के पास नहीं है. एक तो पुलिस अच्छी तरह से काम नहीं करती, वहीं अक्षम वकीलों का एक बड़ा संजाल है, जिनके जरिये न्याय मिलना तो मुश्किल है. न्यायपालिका के हर क्षेत्र का व्यवहार देखिये, तो वह रसूखदारों की सेवा में ही लगा रहनेवाला मिलता है.
लाखों में गरीब मुवक्किलों के साथ क्या होता है, यह सब छिपा नहीं है. इसकी गाथा कहने-सुनने में हम सब अपना-अपना समय व्यर्थ करने में लगे हुए हैं. जब यहीं से पीड़ित के साथ अच्छा सलूक नहीं होगा, तो फिर आगे जाकर परेशानियां तो पैदा होंगी ही. क्योंकि सबूतों और गवाहों का मामला तो पुलिस-प्रशासन तंत्र के पास ही होता है, जिसके आधार पर अदालत को अपना फैसला देना होता है.
यहां भी वही सवाल है कि अदालत में इन मामलों पर इंसाफ की बात कितनी देर तक और कौन करता है? न्यायाधीशों की जहां तक बात है, कितने ही हैं, जो आसाराम, या रामरहीम को सलाखों में डालने के लिए प्रयास करते हैं? यह प्रयास सफल होते-होते युग बीत जाते हैं, तब तक वे अपना साम्राज्य बना डालते हैं, जहां गरीब जनता इनकी चक्की में दशकों तक पिसती रहती है. अगर सचमुच प्रशासन और अदालत चाह ले, तो ऐसे लोगों का साम्राज्य ही नहीं खड़ा होगा.
न्यायाधीश भी हैं भ्रष्ट
मामला अदालत में जाते-जाते और जाने के बाद की प्रक्रिया में न्याय में इतनी देरी हो जाती है कि न्याय बीच में ही अपना दम तोड़ देता है. यह सच है कि न्यायाधीशों की संख्या कम है और जजों की संख्या बढ़ायी जानी चाहिए.
पर, क्या यही एक वजह है न्याय में देरी की? नहीं. कानून के प्रावधानों को समझने में अक्षम वकील जो गलती करते हैं, क्लाइंट को संतोष दिलाते हुए तारीख पर तारीख लेते रहते हैं, और बार-बार फीस वसूलते रहते हैं, इन सबसे न्याय में बहुत देरी होती है और न्याय मिलना मुश्किल होता चला जाता है. वकील तो भ्रष्ट हैं ही, कुछ न्यायाधीश भी कम भ्रष्ट नहीं हैं. विडंबना यह है कि अब तो खानदानी न्यायाधीश भी होने लगे हैं. निचली अदालतों के जजों में से उनके रिश्तेदार लिखित-मौखिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं.
इसके लिए याचिका तक उच्च न्यायालयों में फाइल हुई है, लेकिन यह नहीं रुक पाता है. वहीं ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों का चुनाव यदा-कदा ही चर्चा में होता है. सब भीतरखाने चल रहे भ्रष्टाचार की भेंट चलता रहता है और रोना रोया जाता है कि जजों की संख्या कम है, कोर्ट-कचहरियों की संख्या कम है. सच कहें तो हमारे पास ऐसा पुख्ता सिस्टम ही नहीं है, जो अत्यंत निर्भीक, जानकार, मेहनती न्यायाधीशों को नियुक्त कर पाये. यह बहुत बड़ी खामी है न्यायपालिका की. यह खामी ही भ्रष्टाचार को जन्म देती है और यही वजह है कि अब लोगों का कुछ भरोसा न्यायपालिका से कम होता जा रहा है.
कभी-कभार ही मिलता है न्याय
हम यह भी कह सकते हैं कि न्याय मिलता है, लेकिन कभी-कभी. कभी-कभार काम आनेवाली अच्छी तकदीर की तरह, जैसे कुंडली में या किस्मत में होगा तो न्याय जरूर मिलेगा, कुछ इसी तरह. जबकि न्यायपालिका जैसी व्यवस्था में कुंडली और किस्मत की कोई जगह नहीं होती है. अगर कुछ होता है, तो सबूत और गवाह होते हैं, और वकीलों एवं न्यायाधीशों की ईमानदारी होती है कि वे कितनी जल्दी एक पीड़ित को न्याय दें. न्याय में देरी से लंबित मामलों की लिस्ट बढ़ती ही जाती है.
रसूखदारों के लिए न्याय तंत्र
कुछ ऐसे मामले भी हर साल आते हैं, जहां अच्छा-खासा व्यक्ति सजा के पहले या बाद में जेल के दरवाजे से अंदर जाता है और कुछ दिनों में उसकी लाश बाहर आती है. दरअसल, जेल में रहने की हालत भी बाहर की ही तरह है.
यदि सजा पाया व्यक्ति रसूखदार है, तो उसके लिए वहां खाने-पीने-सोने आदि की सब बेहतर सुविधाएं मुहैया हो जाती हैं और वह मौज करता रहता है. जरूरत पड़ने पर वह बेल पर बाहर जाकर घूम भी आता है. लेकिन, वहीं अगर एक गरीब व्यक्ति को जेल की गंदी व्यवस्था में सड़ना पड़ता है और कई मामलों में न्याय-अन्याय का फैसला होने से पहले ही उसे दम तोड़ देना पड़ता है. उसके लिए बेल पर बाहर जाने की कोई सुविधा भी नहीं. इस तरह सिर्फ वह गरीब व्यक्ति ही नहीं, बल्कि उसका पूरा परिवार उसकी सजा का भागी बनता है और बेबसी का शिकार होकर होता है.
मीडिया से बाहर गरीब पीड़ित
निचली अदालतों में तो छोटे-छोटे मुकदमों और लोगों की परवाह ही किसे है? यह एक ऐसा दुरूह दुष्चक्र है, जिसकी चक्की में अक्सर निर्दोष लोग भी पिसते रहते हैं. इनकी खबर मीडिया के लिए भी टीआरपी नहीं देनेवाली है, जबकि रसूखदारों की खबरें टीआरपी देनेवाली होती हैं, इसलिए हमारा मीडिया उसके न्याय-अन्याय की बातें उठाता रहता है.
यहां एक और महत्वपूर्ण बात मुझे यह लगती है कि भारतीय न्यायपालिका की भाषा जब तक अंग्रेजी के बजाय हिंदी नहीं होगी, तब तक न्याय कभी निष्पक्ष, उचित और पर्याप्त नहीं हो सकता. एक गरीब और कम पढ़े-लिखे देश के लिए हिंदी में न्यायपालिका की व्यवस्था एक संजीवनी का काम करेगी. लेकिन, ऐसा मुमकिन हो पायेगा, अभी इसके आसार नजर नहीं आते.
भारत में न्यायपालिका की स्थिति : न्याय-प्रणाली के सारे घटकों में हैं खामियां
सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों में आयी कमी
सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों में कमी आयी है. नवीनतम आंकड़ों के अनुसार 17 जुलाई, 2017 तक सर्वोच्च न्यायालय में कुल 58,438 मामले लंबित हैं, जिसमें 48,772 मामले दीवानी और 9,666 मामले फौजदारी के हैं. विधि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2014 के अंत तक सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या 62,791 थी, जो 2015 के अंत तक गिरावट के साथ 59,272 पर पहुंच गयी थी. लेकिन, साल 2016 में लंबित मामलों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई और वर्ष के अंत तक यह आंकड़ा 62,537 पर पहुंच गया.
उच्च न्यायालयों में 40.15 लाख लंबित मामले
देश के 24 उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की संंख्या में एक बार फिर बढ़ोतरी हुई है. वर्ष 2016 के अंत तक उच्च न्यायालयों में 40.15 लाख मामले लंबित थे, जबकि साल भर पहले यानी 2015 में लंबित मामलों की संख्या 38.70 लाख थी. हालांकि, वर्ष 2014 में 41.52 लाख मामले लंबित थे.
निचली अदालतों में लंबित मामले अधिक
न्याय प्रणाली की रीढ़ समझे जानेवाली निचली अदालतों पर पिछले कई वर्षों से लंबित मामलों का बोझ लगातार बढ़ रहा है. पिछले तीन वर्ष के आंकड़ों को देखें, तो वर्ष 2014 में कुल लंबित मामले 2.64 करोड़ से बढ़ कर 2015 में 2.70 करोड़ हो गये. यह रुझान जारी रहा है और 2016 के अंत तक निचली अदालतों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ कर 2.74 करोड़ पर पहुंच गयी.
उच्च न्यायालयों में 413 जजों की कमी
सितंबर, 2017 तक के आंकड़ों के मुताबिक देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में 413 जजों की कमी है. सभी उच्च न्यायालयों में जजों की स्वीकृत संख्या 1079 है और वर्तमान में 666 न्यायाधीश ही कार्यरत हैं. यही स्थिति निचली अदालतों में भी है. निचली अदालतों में न्यायिक अधिकारियों की स्वीकृत संख्या 20,000 के मुकाबले 4,937 न्यायिक अधिकारियों की कमी है.
न्यायाधीशों की कमी का अनसुलझा सवाल
लंबित मामलों के निपटारे और त्वरित न्याय की आस में अदालतों की चक्कर काटते लोग, यहां तक कि न्याय प्रणाली से जुड़े लोग भी इस बात से वाकिफ नहीं है कि अदालतों में जजों की कमी क्यों बनी हुई और जजों की नियुक्ति कैसे और किस आधार पर होती है. देश के सर्वोच्च न्यायालय में 31 न्यायाधीशों के पद स्वीकृत हैं, जबकि वर्तमान छह न्यायधीशों की कमी है. यही हाल 24 उच्च न्यायालयों में जहां न्यायाधीशों की 413 रिक्तियां हैं.
छह हाईकोर्ट कार्यवाहक सीजेआई के भरोसे
देश के 24 उच्च न्यायालयों में से कमोबेश हर न्यायालय में जजों की कमी है. लेकिन छह उच्च न्यायालय आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कलकत्ता, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और मणिपुर तो कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीशों के जिम्मे हैं.
एक रिपोर्ट के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश बदलने के बाद सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को 61 न्यायाधीशों के नाम सुझाये थे. हालांकि, कई बार कॉलेजियम द्वारा नाम फाइनल होने के बाद भी न्यायाधीशों की महीनों तक नियुक्ति लंबित रहती है. इन्हीं रिक्तियों की वजह से ही लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ रही है. हालांकि, वर्ष 2016 में सरकार ने 126 न्यायाधीशों की नियुक्ति की थी, जो कि हाल के वर्षों में सर्वाधिक थी.
जजों की नियुक्ति पर गतिरोध
जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर के मुद्दे पर पारदर्शिता और जवाबदेही का सवाल वर्षों से उठता रहा है. इस मसले पर सरकार सबसे अधिक मुखर रही है.
वर्ष 2015 में संसद ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का रास्ता साफ कर दिया था. प्रावधान के तहत आयोग में कानून मंत्री, मुख्य न्यायाधीश द्वारा नियुक्त दो अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता आदि को शामिल करने का प्रावधान किया गया था. लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय ने जजों की नियुक्ति की इस नयी प्रक्रिया को सरकारी हस्तक्षेप का हवाला देते हुए नकार दिया था. सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित होगी.
कॉलेजियम के फैसले होंगे सार्वजनिक!
मुख्य न्यायाधीश समेत देश के प्रमुख पांच जजों के पैनल वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने एक ऐतिहासिक फैसले के तहत कॉलेजियम की चर्चाओं और प्रस्तावों को सार्वजनिक करने निर्णय लिया है. जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर की जानकारी सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर उपलब्ध करायी जायेगी. नियुक्ति आदि में पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर अक्सर सरकार और न्यायविद् सवाल उठाते रहे हैं.
एमओपी पर समाधान की तलाश
ऊंची अदालतों में जजों की नियुक्ति के लिए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) पर नरेंद्र मोदी सरकार और न्यायपालिका वर्ष 2015 से आमने-सामने है. एमओपी की स्पष्टता नहीं होने की वजह से सर्वोच्च न्यायालय और 24 उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया बाधित है और सभी अदालतों में रिक्तियां बरकरार हैं.
मंत्रालय के विधायी विभाग में 40 प्रतिशत पद रिक्त
लंबित मामलों की बढ़ती संख्या की पीछे अदालतों में जजों की कमी को सबसे बड़ा कारण बताया जाता रहा है, लेकिन अन्य कारण भी हैं, जो कानून और न्याय व्यवस्था को प्रभावी बनाने से रोकते हैं. मुख्य रूप से केंद्र सरकार के मुख्य कानूनों का मसौदा तैयार करनेवाले विधायी विभाग में आश्चर्यजनक रूप से 40 फीसदी पद रिक्त हैं.
कानून एवं न्याय मंत्रालय के तहत तीन विभागों विधायी, कानून और न्यायिक मामले में रिक्तियां हैं. संडे स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक विधायी विभाग के 171 पदों में से 75 पद रिक्त हैं. इन विभागों में रिक्तियों की वजह से मंत्रालय के साथ अन्य व्यवस्थागत कार्य प्रभावित होते हैं.
भारतीय न्यायपालिका
भारतीय संविधान के तहत त्रिस्तरीय न्यायपालिका की व्यवस्था की गयी है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और स्थानीय पर जिला अदालतें हैं. न्यायपालिका स्वतंत्र और मजबूत व्यवस्था है, जो संविधान और नागरिकों के मूल अधिकारों की संरक्षक के तौर पर जानी जाती है. भारतीय में न्यायिक प्रशासन की जिम्मेदारी सर्वोच्च न्यायालय पर ही है यानी सभी अदालतें एकीकृत न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी हुई हैं.
सर्वोच्च न्यायालय भारतीय संविधान का संरक्षक है और समय-समय पर आवश्यकतानुसार व्याख्या करता है. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट को सभी कानूनों की संविधानिकता को जांचने का अधिकार है. यह अधिकार उच्च न्यायालयों को भी दिया गया है. संविधान के तहत सभी राज्यों के लिए उच्च न्यायालय की व्यवस्था की गयी है. भारतीय न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के हस्तक्षेप से मुक्त है. न्यायिक प्रशासन सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों और नियमों के अनुसार संचालित होता है.
नियुक्ति प्रक्रिया : जजों की नियुक्ति को लेकर हाल को वर्षों में सरकार और न्यायपालिका मतभेद उभरा है. फिलहाल, न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए कॉलेजियम व्यवस्था है. कॉलेजियम में भारत के मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल होते हैं.
अमेरिकी न्याय प्रणाली
अमेरिकी न्याय प्रणाली को दोहरी न्याय व्यवस्था के तौर पर जाना जाता है. यहां स्टेट और फेडरल गवर्नमेंट की अदालती व्यवस्थाएं हैं. फेडरल कोर्ट के तीन स्तर हैं- सुप्रीम कोर्ट, सर्किट कोर्ट ऑफ अपील्स और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट. संघीय न्यायपालिका में सुप्रीम कोर्ट का सर्वोच्च स्थान है. इसमें एक मुख्य न्यायाधीश और आठ अन्य एसोसिएट जस्टिस होते हैं.
सुप्रीम कोर्ट में हर वर्ष अपील मामलों की सीमित संख्या तय होती है. सर्किट कोर्ट्स ऑफ अपील्स में एक फेडरल सर्किट और 12 रीजनल सर्किट होते हैं, प्रत्येक सर्किट में एक सर्किट कोर्ट ऑफ अपील होता है. सर्किट कोर्ट ऑफ अपील डिस्ट्रिक्ट कोर्ट की अपीलों की सुनवाई करता है. इसके अलावा 12 रीजनल सर्किट के अंतर्गत 94 ज्यूडिशियल डिस्ट्रिक्ट हैं. इनमें सभी प्रकार के सिविल और क्रिमिनल मामले दाखिल किये जाते हैं.
नियुक्ति प्रक्रिया : संयुक्त राज्य के संविधान के तहत सुप्रीम कोर्ट, सर्किट कोर्ट्स ऑफ अपील्स और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट्स में जजों की नियुक्ति सीनेट की सलाह पर संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है. जस्टिस और जजों का कार्यकाल आजीवन होता है और उन्हें केवल कांग्रेस के महाभियोग द्वारा ही हटाया जा सकता है.
जजों की संख्या बढ़ाने से ही नहीं होगा समाधान!
पिछले वर्ष एक कार्यक्रम के दौरान तब के सीजेआइ यानी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने कहा था कि देशभर की विविध अदालतों में लंबित मामलों के समयबद्ध निबटान के लिए करीब 70,000 जजों की जरूरत है. जजों की वास्तविक संख्या की तुलना यदि 70,000 के आंकड़े से की जाये, तो वह एक-चौथाई भी नहीं होगी.
ऐसे में इस मसले पर चर्चा होना स्वाभाविक था और इस विषय ने जोर पकड़ा, लेकिन इतनी ज्यादा संख्या में जजों की नियुक्ति होने में वित्तीय व अनेक अड़चनों पर भी चर्चा हुई. हालांकि, टीएस ठाकुर ने इसके लिए देशभर की अदालतों में तीन करोड़ से अधिक लंबित मामलों और 130 करोड़ आबादी के लिए इतनी संख्या में जजों नियुक्ति होने का तर्क दिया था, लेकिन कुछ न्याय विशेषज्ञ उनके विचार से सहमत नहीं दिखे.
विशेषज्ञों का मानना है कि कुछ राज्यों में जजों की मौजूदा संख्या इतनी पर्याप्त है कि दो साल से ज्यादा पुराने सभी मामलों को आगामी तीन वर्षों में निबटा बहुत मुश्किल नहीं है. जबकि कुछ राज्यों में रिक्त पदों पर नियुक्ति से इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है.
वैसे कुछ राज्यों में वास्तव में इनकी संख्या व्यापक तौर पर बढ़ाने की जरूरत है. आंकड़ों के लिहाज से यदि हम बात करें, तो बिहार में निचली अदालतों में न्यायाधीशों की कमी से लंबित मामलों को निबटाने में सबसे ज्यादा दिक्कतें हैं. वहीं, ओड़िशा और झारखंड में भी इस मोर्चे पर हालात उल्लेखनीय रूप से बदतर हैं. अनेक अध्ययनों में यह पाया गया है कि इन राज्यों में न्यायिक प्रणाली कारगर तरीके से काम नहीं कर पा रही है.
विशेषज्ञों का मानना है कि बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और अनेक व्यावहारिक मदद मुहैया कराते हुए जजों की मौजूदा संख्या के माध्यम से न्यायिक प्रणाली सक्षम तरीके से लंबित मामलों को निर्धारित समयावधि में निबटा सकती है. इसके लिए अलग-अलग स्तरों पर कुछ सुधार करने की जरूरत है, जिसमें कार्रवाई को स्थगित करने में कमी लाना होगा और सुनवाई के दिनों को बढ़ाना होगा.
वकीलों की गुणवत्ता सुधारने की जरूरत
इस मसले में दूसरा पहलू यह भी है कि लंबित मामलों को निबटाने जैसी समस्या का समाधान केवल न्यायाधीशों की नियुक्ति से नहीं किया जा सकता है.
मौजूदा समय में नियुक्त होने वाले वकीलों की गुणवत्ता से भी यह मसला व्यापक हद तक प्रभावित होता है. इसलिए इस पूरे सिस्टम में भी बदलाव करने की जरूरत है. साथ ही, न्याय की प्रक्रिया में व्यापक तौर पर बदलाव करने की जरूरत है. इसमें कई चीजें शामिल हैं- मसलन, लॉ ग्रेजुएट्स की गुणवत्ता को सुधारना, सूचना प्रौद्योगिकी का अधिकतम इस्तेमाल करना और न्याय के वैकल्पिक तरीकों को भी बढ़ावा देना.
जुडिशियल रिफॉर्म को लागू करने में ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि हमें यह भी देखना होगा कि कहीं इससे न्याय पाने वालों को ज्यादा खर्च तो नहीं करना पड़ेगा. इसलिए इसकी लागत का विश्लेषण करना भी जरूरी है.
हमें लीगल इकोसिस्टम की सीमाओं को समझना होगा, क्योंकि कहीं-न-कहीं उसी दायरे के भीतर ही समस्याओं का समाधान मुमकिन होगा. साथ ही, पूरी न्याय प्रणाली के संसाधनों का समुचित इस्तेमाल करने पर ही लोगों को समयबद्ध न्याय मुहैया कराया जा सकता है.
विवाद निस्तारण मध्यस्थता केंद्र
इनके अलावा, सामाजिक स्तर पर लंबित मामलों को संबंधित राज्य सरकारों की अधिकृत विवाद निवारण मध्यस्थता केंद्र के जरिये निबटाया जा सकता है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली सरकार की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कई इलाकों में विवाद निवारण मध्यस्थता केंद्र की स्थापना की थी. इन केंद्रों के जरिये पारिवारिक और सामाजिक स्तर के अनेक विवादित मसलों को निबटाया गया था. ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था से न्याय प्रणाली पर बढ़ते बोझ को कम किया जा सकता है.