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प्रकृति से ऊपर नहीं, उसका हिस्सा हैं आदिवासी

शिशिर टुडू आदिवासी दर्शन के संदर्भ में मेरे मन में जो पहली बात आती है, वह यह कि किसी भी समुदाय-संस्कृति में जीवन-दर्शन का निर्माण कैसे होता है? निश्चय ही अपने परिवेश में दैनिक जीवन के अनुभवों से इसकी उत्पत्ति होती है जिसका अभ्यास पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता जाता है. इस दृष्टि से यदि […]

शिशिर टुडू

आदिवासी दर्शन के संदर्भ में मेरे मन में जो पहली बात आती है, वह यह कि किसी भी समुदाय-संस्कृति में जीवन-दर्शन का निर्माण कैसे होता है? निश्चय ही अपने परिवेश में दैनिक जीवन के अनुभवों से इसकी उत्पत्ति होती है जिसका अभ्यास पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता जाता है.

इस दृष्टि से यदि ‘आदिवासी दर्शन’ पर विचार किया जाय तो उनके ‘दर्शन’ के गढ़न में प्रकृति और मानव श्रम के संयोजन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. प्रकृति के पास मानव को देने के लिए बहुत कुछ था, अब भी है, और उसकी प्राप्ति के लिए मानव ने श्रम किया. इसी संयोजन से संस्कृति का विकास हुआ और साथ ही विकसित हुआ जीवन-दृष्टि जिसको अकादमिक भाषा में संभवत: जीवन दर्शन कहते हैं.

घोटुल (गोंड), धुमकुड़िया (उरांव) और गीति ओडाक् (हो) जैसे युवा-गृह और प्रशिक्षण केंद्रों को छोड़ दिया जाए तो झारखंड के प्राय: सभी आदिवासी समुदायों में ‘गुरु’ की अवधारणा तो है, लेकिन अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक आचार-व्यवहार की शिक्षा बच्चों, किशोरों अथवा युवाओं को प्रदान करने के लिए कोई ‘स्कूल’ नहीं था. एक व्यक्ति परिवार, मित्र व समाज से ही सामाजिक-सांस्कृतिक आचार-व्यवहार स्वत:स्फूर्त भाव से सीख लेता था. चाहे वह वाद्य यंत्र बजाना हो या मौसम के अनुसार नृत्य व गीत हों.

आदिवासी समुदायों का जीवन-दर्शन भी जीवन शैली के समान ही सरल व सहज है. जंगलों अथवा आसपास के इलाकों में उत्पन्न होनेवाले गैर-कृषि उत्पादों का संग्रहण भी वे अपनी जरूरतों के हिसाब से ही करते हैं. संग्रह कर रखने का कोई विचार ही नहीं है. वे स्वयं को प्रकृति से ऊपर या बड़ा नहीं मानते बल्कि प्रकृति का एक हिस्सा मानते हैं.

मानवेतर प्राणियों को भी प्रकृति का हिस्सा मानते हैं. यह दर्शन उनको प्रकृति का दोहन करने से रोकता है. निजी उपयोग के लिए यदि जंगल से बल्ली लेना हो तो वे उपयुक्त पेड़ को जड़ से नहीं बल्कि जड़ से डेढ़-दो हाथ ऊपर से काटते हैं ताकि कालांतर में उसमें पुन: कोंपलें फूटें और वह फिर से पेड़ बन जाये. आदिवासी समूहों की संवेदनशीलता देखिए कि सामूहिक शिकार में शामिल पालतू कुत्ते को भी उसके परिश्रम का हिस्सा शिकार में से दिया जाता है. अंडे सेती चिड़िया या गर्भवती मादा पशु का शिकार वर्जित होता है. शिकार में इकलौते पुत्र या वृद्ध को शामिल नहीं किया जाता क्योंकि जोखिम की स्थिति में उनकी जिम्मेदारी ले पाना कठिन हो सकता है.

संतालपरगना के आदिवासियों के प्रमुख पर्व ‘सोहराय’ का उल्लेख करना चाहूंगा. सामुदायिकता का सजीव उदाहरण इस पर्व को मनाये जाने की प्रक्रिया में दिखाई देता है.

सर्वप्रथम गांव का ‘नायके’ या पुरोहित ‘मांझी हाड़ाम’ (ग्राम प्रधान) के पास जाता है और सोहराय पर्व को गांव में समारोहपूर्वक आमंत्रित करने की अनुमति लेता है. यानी उनकी दृष्टि में ‘पर्व’ कोई अमूर्त वस्तु नहीं बल्कि वह भी एक ‘व्यक्ति’ है. उससे पूर्व गांव के प्रत्येक घर से मुर्गी का चेंगना, चावल या अन्य कोई खाद्य वस्तु अंशदान के रूप में एकत्रित किया जाता है. इसके बाद ‘नायके’ दलबल के साथ गांव के मुहाने पर पूजा-पाठ करके ‘सोहराय’ का आह्वान कर उसे गांव में आमंत्रित करता है. विधि-विधान समाप्त होने पर पूरा समूह ‘नायके’ के साथ-साथ गाते-बजाते हुए पुन: ग्राम प्रधान के पास आकर सूचित करता है कि ‘सोहराय’ को गांव में ले आया गया है.

इसी के बाद से सोहराय पर्व औपचारिक तौर पर आरंभ हो जाता है. संपूर्ण इलाके में सोहराय को महीने भर से अधिक समय तक विभिन्न इलाकों में अलग-अलग तिथि को मनाया जाता है. इस उदार विस्तार के पीछे दर्शन यह है कि सोहराय में निकट संबंधियों, विशेषकर विवाहिता बहनों को घर में आमंत्रित करने का रिवाज है. यदि पर्व एक ही दिन मनाया जायेगा तो अतिथियों को आमंत्रित करना या स्वयं किसी रिश्तेदार के पास पर्व मनाने जाना असंभव होगा. इसलिए यह उदार व्यवस्था की गयी है. इस व्यवस्था में भी जीवन-दृष्टि है.

सोहराय की विशेषता यह है कि फसल उत्पादन में सहयोग करनेवाले पालतू पशु सहित प्रयुक्त औजारों के प्रति भी इस पर्व के दौरान आभार प्रकट किया जाता है. ऐसा इस कारण है क्योंकि आदिवासी समुदाय अपने जीवन दर्शन के अनुसार स्वयं सहित पशु-पक्षियों को भी प्रकृति का अंग मानते हैं. इसलिए जब वे उत्सव मनाते हैं तो उन पालतू पशुओं का भी अधिकार बनता है कि उनको उत्सव में सम्मिलित किया जाय. सोहराय के अंतर्गत ‘बंधना’ अनुष्ठान इसी भावना को प्रकट करता है.

आदिवासी समुदायों की वैचारिक प्रबुद्धता और दर्शन का सजीव उदाहरण है उनकी ‘सृष्टि कथा’, जो प्राय: सभी प्रमुख आदिवासी समुदायों के पास है.

इसका अर्थ यह हुआ कि वे किसी एक ‘परम सत्ता’ का अस्तित्व मानते हैं जिसने सृष्टि की रचना की, जिनमें मानव भी शामिल हैं. उस ‘परम सत्ता’ को प्रसन्न रखने के लिए ‘बलि’ से लेकर अन्य कई प्रकार के अनुष्ठान किये जाते हैं. वे मानते हैं कि सुख-समृद्धि प्रदान करनेवाला ‘वही’ है. इस दृष्टि से आदिवासी समुदाय को ‘एनिमिस्ट’ या जीववादी अथवा अनध्यात्मवादी कहना उचित नहीं जान पड़ता है क्योंकि उनका अपना अध्यात्म है. इसकी खूबी-खामियों पर बहस की जा सकती है लेकिन इसे सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है.

आदिवासी दर्शन में अध्यात्मवाद का स्पष्ट उदाहरण उनका मृत्यु के बाद के जीवन पर आस्था रखना है. संताल समुदाय के पुरुष अपने हाथ पर (जहां आजकल हाथ-घड़ी बांधी जाती है) तांबे का सिक्का गर्म कर एक सीध में तीन बार दागते हैं.

इसको संताली में ‘सिखो’ कहते हैं जो संभवत: सिक्का का देशज रूप होगा. गर्म सिक्के से दागने पर जलने के तीन स्थायी चिह्न हाथ पर बन जाते हैं जिसकी व्याख्या जीबोन, मोरोन, जीबोन के रूप में की जाती है. अर्थात् जीवन के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद फिर जीवन की परिकल्पना है. इसी प्रकार ‘खाट’ बीनते समय जब लंबाई वाली और चौड़ाई वाली पाटी पर रस्सियां बांधी जाती हैं तो ध्यान रखा जाता है कि उनकी संख्या ‘जोड़’ नही ’बिजोड़’ हो. यानी अगर ‘जीबोन’ से गिनती आरंभ की जाए तो गिनती पुन: ‘जीबोन’ पर ही समाप्त होनी चाहिए. कितनी सहज-सरल आस्था है! समुदाय के समस्त सामाजिक-धार्मिक अनुष्ठानों में इसका ध्यान रखा जाता है.

जीवन-दर्शन की बानगी देखनी हो तो आदिवासी लोकगीत उत्कृष्ट उदाहरण हैं. इन लोकगीतों के रचनाकार गुमनाम हैं. संताली भाषा का ऐसा ही ‘लागड़ें राग’ का एक लोकगीत, जिसको ऐसी एक बहन को केंद्र में रखकर रचा गया है जिसका सहोदर भाई ‘खो’ गया है, कुछ इस प्रकार है -‘ कान्डा रपुदोक् दो कांखा ताहेना/कासकोम ओटेजोक् दो डंडिच् ताहेना/ नुमीन मारांग नायगो रसीबस्ती/दांड़ा राकाप् नायगो, दांड़ा नाड़गो/हायरे पेटेर भाइ दो बञ’ ‘ञेलेकान. हिंदी शब्दार्थ इस प्रकार है-‘घड़ा टूटता है तो उसका ऊपरी भाग (कांखा) बचा रहता है/कपास फूटता है तो उसका डंठल रह जाता है/इतनी बड़ी सुंदर बस्ती में मां/उसमें चलकर ऊपर चढ़ते, और चलकर नीचे उतरते हुए मां/हाय, अपने सहोदर भाई को मैं देख नहीं पाती.’ एक निराश बहन, जिसका भाई ‘खो’ गया है, उसकी ओर से यह वर्णन कितना मर्मस्पर्शी है!

उपरोक्त परिदृश्य में जिन लोगों ने ‘रेलगाड़ी की खिड़की’ से आदिवासी गांवों को देखा और उनके जीवन-दर्शन के प्रति धारणा बनायी है, वह निश्चय ही अपनी आधुनिक ‘स्कूलिंग’ के आधार पर बनायी है. इस स्थिति में, आदिवासी दर्शन को समझने के लिए, समाज के रीति-रिवाजों और आचार-व्यवहार के साथ अनुकूलन अनिवार्य है. अन्यथा आदिवासियों की दर्शनयुक्त मार्मिक अभिव्यक्ति भी आदिमयुगीन और ‘नॉन डेस्क्रिप्टिव’ लग सकती है. जबकि वास्तविकता इससे सर्वथा भिन्न है.

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