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मातृ स्मृति, पढ़ें, मदर्स डे पर वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पाण्डे को

मेरी मां गौरा, जिनको साहित्य जगत उनके उपनाम ‘शिवानी’ से जानता आया है, अपने बच्चों के लिए आजन्म दिद्दी ही रहीं. उनका जन्म 17 अक्तूबर चूंकि विजयादशमी के दिन हुआ था, हम आज भी उसे उसके जन्मदिन पर दो बार याद करते हैं- एक बार विजयादशमी को, एक बार ‘कैलेंडरवाले’ दिन. नानी जब तक रहीं, […]

मेरी मां गौरा, जिनको साहित्य जगत उनके उपनाम ‘शिवानी’ से जानता आया है, अपने बच्चों के लिए आजन्म दिद्दी ही रहीं. उनका जन्म 17 अक्तूबर चूंकि विजयादशमी के दिन हुआ था, हम आज भी उसे उसके जन्मदिन पर दो बार याद करते हैं- एक बार विजयादशमी को, एक बार ‘कैलेंडरवाले’ दिन.
नानी जब तक रहीं, अलबत्ता उनको हमेशा उनके तिथिवाले जन्मदिन पर ही असीसती थीं. और मेरा अपना विकट आत्मसम्मान और तीखा न्यायबोध भी अपनी उस दुर्गा सरीखी तेजस्वी मां की देन है, जो झूठ के आगे विनम्र लज्जास्तूप कभी न बनी, न झुकी. अपनी आत्मकथा में उसने लिखा है : ‘सुना यही है कि कोई विवेकी शल्यचिकित्सक कभी अपने किसी निकट आत्मीय पर छुरी नहीं चलाता और विवेकशील लेखक के लिए भी शायद यही उचित है. पर मेरा मानना है कि कभी-कभी ऐसी शल्यचिकित्सा मरीज के हित में ही नहीं, औरों के लिए भी हितकर होती है. ऐसे जीवनानुभव जो आपके जीवन के अंतरंग क्षणों से जुडे हैं, यदि हम ईमानदारी से तमाम प्रियाप्रिय ब्योरों के साथ पाठकों में भी बांटें, तो शायद उनके सन्मुख भी जीवन के नये आयाम खुल सकें’.
दिद्दी के नाना ने लखनऊ के महिला कालेज की नींव रखी, पिता राजकुमार कालेज के प्रमुख थे, और संस्कृतज्ञ दादा हरीराम पाण्डे मालवीय जी के अभिन्न मित्र थे, जो उनके साथ झोली फैलाये काशी में अपने सपनों के विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए गृहत्यागी बन चंदा बटोरने शहर-शहर घूमे थे.
मालवीय जी के आदेशानुसार शांतिनिकेतन भेजी जाने पर शिवानी को बचपन में ही जाने विलक्षण गुरु मिले थे : कविकुलगुरु रवींद्रनाथ टैगोर, पं. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, अवनींद्रनाथ टैगोर, आचार्य क्षितिमोहन सेन. उन सबकी अद्भुत् तौर से अनौपचारिक शिक्षण पद्धतियों की कहानियों पर हम पलें. खुद दिद्दी का जीवन गहरे उतार-चढ़ाव से भरा रहा. पर यह सब दिद्दी ने हिम्मत और गरिमा के साथ स्वीकारा और निभाया. मैं उसकी मुंहलगी पहली संतान थी. मुझसे उसके मन में उफनता विषाद या मन्थन उसकी सयत्न धारी गयी मुस्कान के बावजूद नहीं छिप पाते थे. उनका ही जैसा खुला स्वभाव होने के कारण मैं उनसे सबसे अधिक झगड़ी, लड़ियायी गयी और कुछेक बार पिटी भी.
पचास के दशक में दिद्दी ने बिना किसी विशेष सुविधा या किसी तरह के राज्याश्रय के एक सरस और लोकप्रिय साहित्यकार की एक वैकल्पिक पहचान बनानी शुरू की, तो हम सब स्कूल में थे.
साठ के दशक तक दिद्दी के उपन्यास किस्तों में धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपने लगे थे. उपन्यास लिखा जाता बड़ी सहजता से. वह हाथ से सादे फुलस्केप कागज पर लिखी पांडुलिपि मुझे दे देती और उसे हर सप्ताह रजिस्टर्ड पोस्ट से डा भारती को क्रमिक तौर से मुंबई भेजना मेरा दाय था. वह तेजी से लिखती और अक्सर शिरोरेखा या बिंदु लगाना भूल जाती थीं. यहां तक कि कुछेक बार अपना नाम लिखना भी. बुडबुड करते हुए उस सबका संपादकीय परिमार्जन तेरह साल की उम्र से मेरा निजी उत्तरदायित्व बना और इसने मुझे संपादन की दुनिया की गेटकीपरी की हैसियत अनजाने ही दे दी.
‘हद है,’ मैं कभी उसे धमकाती ‘परसों वाली तेरी पांडुलिपि में हल्दी के छींटे थे. भेजते हुए मुझे शरम आयी पर न भेजती तो फर्मे नहीं छप पाते. कागज-पत्तर तो साफ सुथरे भेजा कर.’ घर की तत्कालीन स्थिति के अनुरूप कभी दिद्दी हंस देती, और कभी गुर्रा कर कहती काम करने में तेरे हाड़ क्यों हंसते हैं री? देखती नहीं कैसी पिसती रहती हूं घर के काम में मैं.
बात गलत भी नहीं थी. दिद्दी की रचनाकारिता से जुड़ने के कारण से मेरा रिश्ता बेटी का कम, छोटी बहन का शायद अधिक रहा. जब प्रयाग विवि गयी, तब ‘चौदह फेरे’ सीरियलाइज हो रही थी. अगली किस्त का मसौदा जानने को आतुर सीनियर लड़कियों ने हॉस्टल में कई बार मेरी रैगिंग भी मुल्तवी कर दी और दिद्दी को उपन्यास का अंत सुखांत बना देने का बचकाना हठ बार बार किया.
साठ के दशक से लगभग चालीस साल तक खिंचा दिद्दी का रचनाकाल ध्यान देने लायक है. अपनी प्रिय मित्र तथा अग्रजा लेखिका महादेवी के साथ वह इतिहास के जिस संधिस्थल पर खड़ी हो चुपचाप लिख रही थी, वहां विषमतामूलक सामंती तथा समतामूलक लोकतंत्र की दो भिन्न संस्कृतियां किस तरह परस्पर मिलती-टकरातीं, जुड़ती-बिखरती हुईं एक नयी तरह का राज-समाज रच रही थीं, जिसका हरावल दस्ता हमारी बहसतलब पीढ़ी बन रही थी.
चारों ओर के समाज की गहन जानकारी और सामान्य स्त्री के प्रति एक जबरदस्त करुणा से आप्लावित उनके लेखन ने उनसे मेरी तमाम बहसिया निजी मुठभेड़ों के बावजूद बिना स्त्रीत्व से शर्मसार या सजग बने हर कीमत पर ज्ञानार्जन करने और नया रचने की हिम्मत दी, जिसका हम दोनो मां-बेटी ने अपनी अपनी तरह से मोल भी चुकाया.

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