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लोकतंत्र की असली ताकत चुनाव में

लोकतंत्र की असली ताकत चुनाव में है. यह चुनाव उन सभी संस्थानों के लिए अपनी अहमियत रखता है, जहां जनता के अधिकार और हित निहित है. संघ-संगठनों का लोकतांत्रिक स्वरूप इसी बात में है कि वहां एक निश्चित प्रक्रिया के तहत निश्चित समय पर चुनाव होता है. देश की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्था हमारी संसद […]

लोकतंत्र की असली ताकत चुनाव में है. यह चुनाव उन सभी संस्थानों के लिए अपनी अहमियत रखता है, जहां जनता के अधिकार और हित निहित है. संघ-संगठनों का लोकतांत्रिक स्वरूप इसी बात में है कि वहां एक निश्चित प्रक्रिया के तहत निश्चित समय पर चुनाव होता है. देश की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्था हमारी संसद है और राज्य की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्था विधानमंडल. 73वें और 74वें संविधान संशोधन के द्वारा स्थानीय निकायों यानी त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थानों और नगर निकायों को भी संवैधानिक ताकत मिली. संसद के मामले में लोकसभा और विधानमंडल के मामले में विधानसभा के चुनाव में देश के प्रत्येक वयस्क नागरिक को वोट डालने और अपने प्रतिनिधि को चुनने का अधिकार है. इस अधिकार को सुरक्षित रखने और प्रभावी बनाने के लिए कई उपाय किये गये हैं.

आरके नीरद
हमारे देश के संविधान में चुनाव यानी निर्वाचन की व्यवस्था है. हमारी पूरी गणतांत्रिक व्यवस्था इसी पर टिकी है. संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 तक में चुनाव की स्पष्ट व्याख्या है. इसके तहत चुनाव आयोग का प्रावधान है, जिस पर सभी वैसे संवैधानिक पदों के लिए चुनाव का दायित्व है, जिनकी व्यवस्था हमारे संविधान में की गयी है. चुनाव आयोग के बारे में अनुच्छेद 324 में बताया गया है. इसमें चुनाव आयोग को निर्वाचन का अधिकार दिया गया है.

पहले एक सदस्यीय था चुनाव आयोग
देश में चुनाव आयोग का 25 जनवरी 1950 को जब गठन हुआ था, तब इसके एक सदस्य का प्रावधान था. यानी एक ही चुनाव आयुक्त होता था. करीब 39 साल तक यही व्यवस्था रही. 16 अक्तूबर 1989 को इसे दो सदस्यीय बनाया गया. यानी चुनाव आयोग में दो आयुक्त बनाये गये. इनमें से एक को मुख्य चुनाव आयुक्त अधिसूचित किया गया और दूसरे को चुनाव आयुक्त. पहली अक्तूबर 1993 से इसे तीन सदस्यीय बनाया गया. वर्तमान में यह तीन सदस्यीय ही है. लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद का निर्वाचन कराना भारत के चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आता है. चुनाव की तिथि और कार्यक्रम तय करना, निष्पक्ष और शांतिपूर्ण मतदान कराना, निर्वाचन के लिए आदर्श आचार संहिता तय करना, उम्मीदवारों की दावेदारी की जांच कर उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति देना, मतगणना कराना और चुनाव के नतीजे की घोषणा यह सब कार्य भारत के चुनाव आयोग के अधीन है. वह इसके लिए केंद्र और राज्य सरकार की मदद लेता है. सुरक्षा से लेकर सामान्य प्रशासन तक के सभी कार्यो को अपनी निगरानी और अपने मापदंडों के अनुरूप कराता है. इसमें सभी स्तर के अधिकारी उसके आदेश पर और उसके निर्देश के अनुरूप काम करते हैं.

चुनाव आयोग सरकार के अधीन नहीं
चुनाव आयोग सरकार के अधीन काम नहीं करता. संविधान के अनुच्छेद 324(1) में इसे स्वतंत्र संवैधानिक संस्थान के रूप में मान्यता मिली हुई है. चुनाव कराने के मामले में यह सरकार के नियंत्रण में नहीं है. इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में एक मुकदमा लाया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 324(1) को लेकर ऐतिहासिक फैसला दिया. इसमें कहा गया कि निर्वाचन आयोग की शक्तियां कार्यपालिका यानी सरकार के नियंत्रण में नहीं हो सकती. सरकार संसद के जरिये कोई कानून बना सकती है. उस कानून को मानने के लिए आयोग बाध्य है. संविधान और संसद द्वारा पारित कानून एवं नियम ही आयोग को नियंत्रित करते हैं. जहां संविधान या संसद द्वारा बनाया गया कानून मौन हो जाता है, वहां चुनाव आयोग की शक्तियां असीमित हैं. यानी वहां आयोग कोई नियम बनाने और निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन वह ऐसा कोई निर्णय नहीं ले सकता या ऐसा कोई नियम नहीं बना सकता, जो हमारे संविधान की भावना और प्राकृतिक न्याय (नेचुरल जस्टिस) के खिलाफ नहीं हो सकता. आयोग अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं कर सकता है. उसके निर्णय को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.

निर्वाचन आयोग के कार्य
संविधान के अनुच्छेद 324(1) में चुनाव आयोग की शक्तियों की चर्चा है. आयोग इन शक्तियों का प्रयोग अपने कर्तव्य पालन के लिए करता है. निर्वाचन आयोग की यह जिम्मेवारी है कि वह निर्वाचन कार्य की निगरानी करे, निर्देश दे, नागरिकों को निष्पक्ष और निर्भीक होकर अपने प्रतिनिधि चुनने का अवसर उपलब्ध कराये, इसके लिए जरूरी व्यवस्था बनाये और उसे सुगमता से लागू कराये, चुनाव कराये और उसके नतीजे जारी करे. राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति, लोकसभा, राज्यसभा और विधान सभा का निर्धारित समय पर चुनाव कराना उसकी जवाबदेही है.

चुनाव आयोग वोटर लिस्ट तैयार करता है. इसमें 18 वर्ष की उम्र के हर भारतीय नागरिक का नाम दर्ज कराना उसकी जवाबदेही है. इसके लिए प्रचार-प्रसार, नागरिकों को जागरूक करना, उन तक ऐसी सुविधा और व्यवस्था पहुंचना कि वे अपना नाम वोटर लिस्ट में दर्ज करा सकें या नाम गलत है, तो उसमें सुधार करा सकें या अगर कोई व्यक्ति मर गया है या क्षेत्र बदल लेता है, तो उसका नाम लिस्ट से हटवा सकें. वोटर लिस्ट को दुरुस्त और अपडेट रखने की जवाबदेही इसकी है. इससे जुड़े किसी भी तरह के विवाद को निबटाना उसका काम है. इस काम के लिए वह जिलों के उपायुक्तों या जिलाधिकारियों को अपने प्रतिनिधि के रूप में अधिकृत करता है.

देश में किसी चुनाव में दो तरह के उम्मीदवार मैदान में होते हैं. एक दलीय और दूसरे निर्दलीय. दलीय उम्मीदवार राजनीतिक दलों के होते हैं. ऐसे दलों का पंजीकरण चुनाव आयोग करता है.

आयोग राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय और राज्य स्तर के दल के रूप में वर्गीकृत करता है. इसके अलावा मान्यताप्राप्त दल भी होते हैं. दलों को मान्यता भी चुनाव आयोग ही देता है. निर्दल भी उसी की अनुमति से चुनाव लड़ते हैं और सभी को चुनाव चिह्न् आयोग ही आवंटित करता है.

निर्वाचित होने और सदन की सदस्यता ग्रहण करने के बाद अगर किसी सांसद या विधायक की योग्यता को लेकर सवाल उठाता है, तब चुनाव आयोग से सलाह मांगी जाती है. आयोग सांसद के मामले में राष्ट्रपति को और विधायक के मामले में राज्यपाल को अपनी सलाह देता है, लेकिन अगर मामला दल बदल का हो, तो वह चुनाव आयोग के विचार या सलाह का विषय नहीं होता.

आयोग को यह अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति को चुनाव में गलत उपाय अपनाने के लिए दोषी पाये जाने पर उसे नोटिस भेजे, उससे जवाब मांगे और संतुष्ट नहीं होने पर उसे अयोग्य करार दे. वह किसी प्रतिद्वंदी दल या प्रत्याशी या जनता की शिकायत पर संज्ञान लेता है. ऐसे मामले की जांच करता है. नोटिस जारी करता है. साक्ष्य और बयान ग्रहण करता है और अपने फैसले सुनाता है. चुनाव कार्य में लगे सरकारी सेवक के गलत आचरण पर भी वह कार्रवाई करता है.

नागरिकों के मूल अधिकार

वे अधिकार जो लोगों के जीवन के लिए अति-आवश्यक या मौलिक समङो जाते हैं, उन्हें मूल अधिकार कहा जाता है. प्रत्येक देश के लिखित अथवा अलिखित संविधान में नागरिक के मूल अधिकार को मान्यता दी गयी है. ये मूल अधिकार नागरिक को निश्चात्मक रूप में प्राप्त हैं तथा राज्य की सार्वभौम सत्ता पर अंकुश लगाने के कारण नागरिक की दृष्टि से ऐसे अधिकार विषर्ययात्मक कहे जाते हैं. मूल अधिकार का एक उदाहरण है ‘राज्य अपने नागरिकों के बीच परस्पर विभेद नहीं करेगा’. प्रत्येक देश के संविधान में इसकी मान्यता है.

मूल अधिकारों का सर्वप्रथम विकास ब्रिटेन में हुआ जब 1225 में सम्राट जॉन को ब्रिटिश जनता ने प्राचीन स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान करने के लिए मैग्ना कार्टा पर हस्ताक्षर करने को बाध्य कर दिया था.

अधिकार, जिन्हें मौलिक कहा गया

जीवित रहने का अधिकार (राइट टू लाइफ)

घूमने-फिरने की स्वतंत्रता का अधिकार (राइट टू फ्रिडम ऑफ मुवमेंट)

संपत्ति रखने का अधिकार (राइट टू ओन प्रोपर्टी)

संगठित होने की स्वतंत्रता का अधिकार (राइट टू फ्रिडम ऑफ एसोसिएशन)

भाषण की स्वतंत्रता का अधिकार (राइट टू फिडम ऑफ स्पीच)

कानून के समक्ष समानता का अधिकार

विचारों की स्वतंत्रता का अधिकार (राइट टू फिडम ऑफ थाउट)

मतदान का अधिकार (राइट टू वोट)

अनुबंध या संविदा करने की स्वतंत्रता का अधिकार (राइट टू ऑफ कंट्रेक्ट)

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