।। मिथिलेश झा ।।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का उत्सव शुरू हो गया है. चुनाव की तिथियों की घोषणा हुई. सभी दलों के प्रत्याशियों की भी घोषणा होने लगी है. एक बार सभी प्रत्याशियों की घोषणा हो जाये, तो यह उत्सव अपने चरम पर होगा, जो 12 मई तक चलेगा और इसका खुमार 16 मई के बाद ही उतरेगा, जब चुनाव परिणामों की घोषणा हो जायेगी. इससे पहले 12 मई तक कुछ लाख या करोड़ नहीं, हजारों करोड़ रुपये खर्च होंगे.
एक अनुमान के मुताबिक, यह रकम कम से कम 18,000 करोड़ रुपये होगी. इसमें करीब साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये तो चुनाव आयोग अपने स्तर से ही खर्च करेगा. शेष रकम विभिन्न राजनीतिक दल और उनके प्रत्याशी खर्च करेंगे. इस दौरान भारी मात्रा में ब्लैक मनी की आवक होगी, जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगी. इसका असर अगली सरकार के कार्यकाल में देखने को मिलेगा.
चुनाव अभियान को स्वच्छ और पारदर्शी बनाने और काले धन का प्रवाह रोकने के लिए स्टेट फंडिंग पर विचार की बात अपने देश में भी शुरू हो गयी है. इससे जुड़े कई सवाल भी सामने आये हैं. लेकिन, सरकार ने अब तक इस पर अपना मत स्पष्ट नहीं किया है. विशेषज्ञ मानते हैं कि एक बार इस पर अमल शुरू हो जाये, तो चुनाव के दौरान काले धन के प्रवाह पर प्रभावी रोक लग जायेगी. कम से कम व्यक्तिगत स्तर पर जो काला धन चुनाव में लगाया जाता है, उस पर तो अंकुश लग ही जायेगा.
वर्ष 2014 के आम चुनाव के लिए दो प्रमुख राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का 500-500 करोड़ से अधिक का बजट है. यानी 1,000 करोड़ रुपये. यह सिर्फ इन दलों के अपने नेता की छवि चमकाने के लिए तय की गयी रकम है. प्रचार के दौरान बैनर, होर्डिंग, पार्टियों की जनसभाएं, रैली, प्रचारकों और स्टार प्रचारकों के आवागमन के लिए हेलीकॉप्टर और चार्टर्ड प्लेन आदि पर किया जानेवाला खर्च शामिल नहीं है. जितना खर्च कांग्रेस और भाजपा करेगी, बाकी छोटे दल मिल कर लगभग इतनी ही या इससे कुछ अधिक राशि खर्च करेंगे. यानी 2,000-4,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे. इसमें सभी दलों के प्रत्याशियों के खर्च को भी जोड़ दें, तो यह आंकड़ा करीब 18,000 करोड़ तक पहुंच जायेगा.
अभी यह एक अनुमान भर है. असल रकम इससे अधिक भी हो सकती है, क्योंकि भारत में चुनाव लड़नेवाले प्रत्याशी कभी खर्च का सही ब्योरा नहीं देते. चुनाव खर्च में प्रत्याशी और राजनीतिक दल पारदर्शिता बरतें, इसलिए आयोग ने खर्च सीमा में बढ़ा कर 70 लाख रुपये तक कर दी है, जो पहले 40 लाख थी. इसका एक उद्देश्य चुनाव के दौरान काला धन का प्रवाह रोकना भी है. दरअसल, अब तक होता यह था कि उम्मीदवार चुनाव आयोग को ब्योरा सौंपने के लिए अलग बिल बनवाते थे. बाकी रकम अवैध तरीके से खर्च करते थे. यह सब जानते हैं, लेकिन जनप्रतिनिधियों पर कार्रवाई नहीं हो सकती, क्योंकि इसका कोई सबूत नहीं होता है. इस तरह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकार के गठन के लिए जो कवायद होती है, उसमें सबसे ज्यादा काला धन इस्तेमाल होता है.
* काले धन के कारण ही बढ़ता है भ्रष्टाचार
भारत में कोई प्रत्याशी 40 फीसदी से भी कम वोट पाकर जीत जाता है. किसी सीट पर तीन-चार उम्मीदवार हों, तो 30-35 फीसदी वोट पानेवाला भी जीत जाता है. इसलिए एक सीट पर कई लोग किस्मत आजमाते हैं. इस भरोसे से कि यदि दो से तीन फीसदी वोट इधर-उधर हो जाये, तो उसके वारे-न्यारे हो जायेंगे. उन्हें एक बार यकीन हो जाये कि कुछ वोटों के अंतर से ही उसकी हार जीत में बदल सकती है, तो इसके लिए प्रत्याशी अंतिम समय में वोटर को खरीदने से भी गुरेज नहीं करते. नकद, मदिरा और अन्य आकर्षक उपहार का लालच देते हैं. इसके लिए जो खर्च करना पड़ता है, उसकी व्यवस्था नाजायज तरीके से ही होती है. यही लोग जब सांसद बनते हैं. मंत्री बनते हैं, तो चुनाव से पहले मदद करनेवाले उद्योगपतियों, व्यवसायियों को अधिक से अधिक लाभ दिलाने के लिए सारे नियम-कानून ताक पर रख देते हैं. यानी भ्रष्ट आचरण में लिप्त हो जाते हैं.
* स्टेट फंडिंग का फंडा
भ्रष्टाचार और मतदाताओं पर होनेवाला अनाप-शनाप खर्च रोकना है, तो स्टेट फंडिंग जरूरी है. लोग पूछते हैं कि क्या भारत में यह संभव है? जवाब है : हां. सिर्फ नीति-निर्माताओं में इच्छाशक्ति होनी चाहिए. यदि स्टेट फंडिंग की जाये, तो चुनाव खर्च भी घटेगा और काला धन का प्रवाह भी रुकेगा. तो सवाल है कि स्टेट फंडिंग है क्या? उम्मीदवारों को कहां से और कितने पैसे मिलेंगे? जवाब आसान है. चुनाव आयोग एक संसदीय क्षेत्र के लिए एक निश्चित रकम तय कर देगा. उम्मीदवार चुनाव के दौरान अपनी जेब से खर्च करेंगे.
चुनाव के बाद प्राप्त वोट प्रतिशत के आधार पर सरकारी खजाने से उन्हें भुगतान कर दिया जायेगा. मसलन, एक चुनाव क्षेत्र से कई उम्मीदवार खड़े थे. इनमें एक को 35 फीसदी वोट मिला, दूसरे को 25 फीसदी और तीसरे को 15 फीसदी. यदि खर्च सीमा 10 करोड़ रुपये तय हैं, तो इन तीनों उम्मीदवारों को दो से चार करोड़ रुपये के बीच मिल जायेंगे. किसी प्रत्याशी को 10 फीसदी या उससे कम वोट मिलेगा, तो उसे एक धेला नहीं मिलेगा. ऐसा होने पर उम्मीदवार को नाजायज तरीके से पैसे लेने और खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.
जब किसी का एहसान लेंगे नहीं, तो चुकाने की नौबत ही नहीं आयेगी. यानी भ्रष्ट आचरण से दूर रहेंगे. यहां एक और सवाल है कि क्या सरकार इतना खर्च वहन कर सकेगी? हां. लोकसभा और राज्यसभा के क्रमश: 545 और 250 सांसदों को अपने क्षेत्र में विकास कार्य करने के लिए हर साल पांच करोड़ रुपये सांसद विकास निधि (एमपीलैड) मिलता है. पांच साल में यह करीब 20,000 करोड़ रुपये बैठता है. लेकिन, सिर्फ 543 सदस्यों को ही चुनाव लड़ना होता है. यदि इस निधि को खत्म कर दिया जाये, तो चुनाव आयोग के पास हर संसदीय क्षेत्र के लिए 35 से 36 करोड़ रुपये उपलब्ध होंगे. किसी संसदीय क्षेत्र में इससे अधिक रकम खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.
* जाली नोटों की तस्करी बढ़ने की आशंका
विदेशों से जाली भारतीय नोटों की तस्करी बढ़ गयी है. वित्तीय खुफिया एजेंसियां सतर्क हैं. आम चुनाव के चलते जाली नोटों की तस्करी बढ़ने की आशंका है. सूत्रों ने बताया कि राजस्व खुफिया विभाग (डीआरआइ) को पता चला है कि पाकिस्तान में छापी गयी जाली भारतीय मुद्रा श्रीलंका, नेपाल व बांग्लादेश के रास्ते भारत आ रहे हैं. अप्रैल, 2013 से जनवरी, 2014 के बीच भारत से बाहर ऐसे पांच मामले दर्ज किये गये. करीब 15 लाख की जाली भारतीय मुद्रा जब्त की. आठ लोग गिरफ्तार हुए. इनमें तीन पाकिस्तानी नागरिक हैं. देश में डीआरआइ ने 11 मामले दर्ज कर 96 लाख रुपये जब्त किये और 17 को गिरफ्तार किया. 2012-13 में 15 मामले दर्ज हुए और दो करोड़ रुपये जब्त हुए. 23 लोग हिरासत में लिये गये थे. वियतनाम और मलयेशिया के रास्ते भी जाली मुद्रा की तस्करी हो रही है.
चुनाव आयोग की पहल, काले धन पर रोक को वोटरों से चर्चा