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एक नयी राजनीतिक ताकत का उदय

हममें से बहुतों के लिए सार्वजनिक जीवन और लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता के मूल्य स्पष्ट हैं. लोग सबसे बेहतर का निर्णय कर जन-प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं, जो लोक-इच्छाओं को कानून का जामा पहनाते हैं. विधायिका द्वारा चुनी गयी कार्यपालिका लोक-इच्छाओं को लागू करती है. लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हुआ है. लोगों के अधिकारों में बराबरी […]

हममें से बहुतों के लिए सार्वजनिक जीवन और लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता के मूल्य स्पष्ट हैं. लोग सबसे बेहतर का निर्णय कर जन-प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं, जो लोक-इच्छाओं को कानून का जामा पहनाते हैं. विधायिका द्वारा चुनी गयी कार्यपालिका लोक-इच्छाओं को लागू करती है. लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हुआ है. लोगों के अधिकारों में बराबरी नहीं है. जब लोक-इच्छा वोट में बदलती है, तो धन-बल जैसे कारक शुरू में ही इसे भ्रष्ट कर देते हैं.

इस प्रक्रिया से चुने गये प्रतिनिधि लोगों के प्रति जवाबदेह होने के बजाय अपने निर्वाचन में पूंजी लगानेवाले का हित-साधन करने लगते हैं. वे मतदाताओं के एक हिस्से को लुभाये-रिझाये रखने की कोशिश करते हैं, क्योंकि हमारे चुनावी-तंत्र में मतों का एक निश्चित हिस्सा जीत के लिए काफी है. उधर, कार्यपालिका के काम करने के अपने ढंग हैं. जब इनका स्वार्थ सधता है, तभी ये कोई कदम उठाते हैं, अन्यथा उसे लंबित रखते हैं. जनप्रतिनिधियों की इच्छा और शासन के रवैये में तालमेल का अक्सर अभाव होता है.

राजनीतिक खानदानों का शासन में दखल उत्तरोत्तर बढ़ रहा है.

अपनों को रेवड़ी बांटने का खेल बन चुके प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र में बड़े हिस्से के लिए थोड़ा-बहुत ही बचा-खुचा रह गया है. जैसे, बिहार के दलितों के स्वयंभू नेता रामविलास पासवान ने भाजपा से गठबंधन में कम-से-कम सात सीटों की मांग की, जिसका एक कारण यह भी था कि वे अपनी जीत को लेकर सशंकित होने के चलते दो जगहों से चुनाव लड़ना चाहते हैं. और फिर, वे दो भाइयों और अपने बेटे के लिए भी सीटें चाहते हैं. सपा के मुखिया मुलायम सिंह मनमाने तरीके से बिना किसी जवाबदेही के अपने कुनबे के लिए इलाके और शासन में हिस्सेदारी बांटे चले जा रहे हैं.

मौजूदा तंत्र में पड़ी दरारों के बीच एक मजबूत और मुखर मध्यवर्ग खड़ा हुआ है जिसने ‘सिविल सोसाइटी’ नामक समूह में गहरे तक पैठ बना ली है. यह ऐसा सामाजिक वर्ग है जो योग्यता और काम के आधार पर सम्मान का आकांक्षी है. यह वर्ग इस बात को खारिज करता है कि उसकी सफलता सामाजिक आधार पर विशेषाधिकारों या परिस्थितियों का परिणाम हो सकती है. यह वही वर्ग है, जिसने 2003 के बाद के आर्थिक विकास के भ्रम को हवा दिया था, जब ऐसा लग रहा था कि भारत बड़ी शक्तियों की सूची में शामिल हो सकता है.

यह समूह मध्यवर्ग की कुंठित आकांक्षाओं को राजनीतिक ताकत में बदलने की विदेश में रह रहे भारतीयों की कोशिश से प्रेरित है. लेकिन इस समूह के पीछे सिर्फ यही कारण होता, तो यह हाशिये पर ही रहता. दिल्ली में आप के प्रदर्शन से यह संकेत मिलता है कि मध्यवर्गीय असंतोष की नयी राजनीति समाज के बड़े हिस्से में भारतीय लोकतंत्र के वंशवाद की ओर मुड़ने से पैदा हुए मोह-भंग को अपने साथ जोड़ सकती है. हालांकि भली नीयत के बावजूद उभरती राजनीतिक ताकत एक अभिजन परिघटना ही है, जिसमें महिलाओं, दलितों और आदिवासियों की भागीदारी मुख्यधारा की पार्टियों से कम है. यह ताकत चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज करायेगी, लेकिन इसके द्वारा प्रशासन में कोई बेहतर बदलाव को लेकर अविश्वास के कारण भी हैं. सारी समस्याओं के हल के रूप में लोकपाल के खोखले नारे को उछालते रहना शासन की चुनौतियों का सामना करने में उनकी कल्पना-शक्ति के अभाव का परिचायक है.

सुकुमार मुरलीधरन
वरिष्ठ पत्रकार

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