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राजनीति की भेंट चढ़ती संसदीय व्यवस्था

(सुभाष कश्यप, संविधानविद) आंध्रप्रदेश विभाजन के लिए तेलंगाना बिल पेश किये जाने से पहले संसद के सीधा प्रसारण पर रोक और सदन के दरवाजे बंद करना संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में अभूतपूर्व घटना है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन गैरकानूनी नहीं. अध्यक्ष को प्रसारण रोकने का अधिकार है. लेकिन, इससे संसदीय गरिमा प्रभावित हुई है. दरअसल, […]

(सुभाष कश्यप, संविधानविद)

आंध्रप्रदेश विभाजन के लिए तेलंगाना बिल पेश किये जाने से पहले संसद के सीधा प्रसारण पर रोक और सदन के दरवाजे बंद करना संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में अभूतपूर्व घटना है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन गैरकानूनी नहीं. अध्यक्ष को प्रसारण रोकने का अधिकार है. लेकिन, इससे संसदीय गरिमा प्रभावित हुई है. दरअसल, तेलंगाना बनाने की इच्छा किसी दल की नहीं रही.

इस पर राजनीति हुई. कांग्रेस ने 10 साल पहले तेलंगाना बनाने की बात कही. लेकिन आम चुनाव से पहले और संसद के आखिरी सत्र में बिल को पेश किया. ऐसे में कांग्रेस की नीति पर सवाल उठना लाजिमी है.

दुर्भाग्य है कि करोड़ों रोजाना खर्च के बावजूद संसद ढंग से काम नहीं कर रही. बिना बहस बिलों का पास होना अच्छी बात नहीं होती. लोकतंत्र में बहुमत का मतलब मनमानी का अधिकार नहीं है. लोकतंत्र सर्वसम्मति से चलना चाहिए. तेलंगाना बिल पर संसद में जो घटित हुआ, लोकतंत्र के लिए लज्ज की बात है. सभी दलों को इस बारे में गंभीरता से सोचना होगा कि कैसे संसदीय व्यवस्था को फिर से पटरी पर लाया जा सके. सत्ता पक्ष और विपक्ष को इस पर गंभीर चिंतन करना चाहिए.

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