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आंदोलनकारी से नेता बनने में वक्त लगेगा

डॉ अश्विनी कुमार टाटा इंस्टीटय़ूट ऑफ सोशल साइंस – जनता के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की लड़ाई लड़ते, तो मिलती सफलता अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा चुनाव के दौरान दिल्ली की जनता से कुछ वादे किये थे. अपनी राजनीति को जनोन्मुखी बना कर जनता के मन में उम्मीद की किरण जगायी थी. आज वही दिल्ली […]

डॉ अश्विनी कुमार

टाटा इंस्टीटय़ूट ऑफ सोशल साइंस

– जनता के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की लड़ाई लड़ते, तो मिलती सफलता

अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा चुनाव के दौरान दिल्ली की जनता से कुछ वादे किये थे. अपनी राजनीति को जनोन्मुखी बना कर जनता के मन में उम्मीद की किरण जगायी थी. आज वही दिल्ली की जनता केजरीवाल से सवाल कर रही है, और किया भी जाना चाहिए, कि उसके वादों का क्या हुआ? केजरीवाल जनता के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की लड़ाई लड़ते, खुद के द्वारा जनता में जगायी गयी उम्मीदों को मुकाम तक पहुंचा कर उनका विश्वास हासिल करते, तो यह सबके लिए बहुत अच्छा होता, उन्हें आगे सफलता भी मिलती..

सामाजिक आंदोलन एक ही मुद्दे पर चलते हैं, जबकि एक राजनीतिक दल (आम आदमी पार्टी), जो भाजपा और कांग्रेस जैसी स्थापित पार्टियों के सामने और प्रधानमंत्री पद के उनके उम्मीदवारों के सामने खुद को खड़ा करने की कोशिश कर रहा है, को व्यापक फलक पर सोचना होगा.

अरविंद केजरीवाल ऐसा नहीं करते हैं, तो थोड़े समय के लिए उन्हें राजनीतिक सफलता मिल सकती है, चुनावी महासमर में कुछ बड़े धुरंधरों को हरा कर वे लोगों के आकर्षण का केंद्र बन सकते हैं, लेकिन जनता से किये वादे पूरा नहीं कर पाने पर जनता पूछने पर मजबूर होती है, ‘क्या हुआ तेरा वादा, वो कसम वो इरादा?’ या ये जुमले भी दोहराये जाते हैं- ‘वादा तेरा वादा, वादे पे तेरे मारा गया’. अरविंद ने विधानसभा चुनाव के दौरान दिल्ली की जनता से कुछ वादे किये थे. उन्होंने अपनी राजनीति को जनोन्मुखी बना कर जनता के मन में उम्मीद की किरण जगायी थी. आज वही जनता केजरीवाल से सवाल कर रही है, और करना भी चाहिए, कि वादों का क्या हुआ? अरविंद जनता के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की लड़ाई लड़ते, खुद के द्वारा जनता में जगायी गयी उम्मीदों को मुकाम तक पहुंचा कर उनका विश्वास हासिल करते, तो सबके लिए बहुत अच्छा होता, उन्हें आगे सफलता भी मिलती. लेकिन अन्य आंदोलनों की तरह ही इस आंदोलन से जुड़े लोग भी ‘सेल्फ परसेप्शन’ के दायरे में खुद को बांध कर रखे हुए हैं और वह परसेप्शन है भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़नेवाले के रूप में अपनी पहचान (एंटी करप्शन क्रूसेडर).

लेकिन एक तरह से यह खुद के लिए भी संकट है. आप एक मुद्दे को सामने लाकर सामाजिक आंदोलन तो चला सकते हैं, लेकिन राजनीतिक आंदोलन में अपनी जगह बनाने के विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय रखनी होती है.

49 दिन पहले जब अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की सत्ता संभाली थी, तब कांग्रेस और भाजपा जैसी स्थापित पार्टियों को भी यह कहने पर मजबूर होना पड़ा कि हमें ‘आप’ और इसके नेता अरविंद केजरीवाल से कुछ सीखने की जरूरत है. मोदी को चाय की चौपाल लगानी पड़ी, तो राहुल को कुलियों के बीच जाकर उनका हाल-चाल जानना पड़ा. यह भी उम्मीद की जाने लगी थी, और की भी जा रही है, कि हम 2014 के आम चुनाव में भारतीय राजनीति की परिभाषा को पुनर्भाषित करने की दिशा में बढ़ रहे हैं.

वैसे भी गंठबंधन के दौर में भारतीय चुनाव में दो गुणात्मक परिवर्तन देखा गया है, व्यक्तित्व केंद्रित और ‘प्लेबिसिएटरी कैरेक्टर’. इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह भी है गरीबोन्मुखी नीतियों और कानूनों, मसलन सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा आदि कानूनों के जरिये आम जनजीवन में बदलाव की कोशिश की जा रही है.

केजरीवाल की राजनीति इस लिहाज से कुछ अलग नहीं है, लेकिन अंतर यह है कि वे नागरिकोन्मुखी अधिकार (सिटीजन इनटाइटलमेंट) को आधार बना कर जनता से संवाद की कोशिश करते दिखे. पानवाला, रिक्शावाला, ऑटोवाला जैसे अन्य विभिन्न आर्थिक-सामाजिक वर्गो के हितों को मुद्दा बनाया और उनकी भावनाओं, उनकी जरूरतों को आवाज देकर दिल्ली की गद्दी पर पहुंचे. इसलिए इस लिहाज से केजरीवाल ने भारतीय राजनीति को प्रभावित करने की एक सफल कोशिश की. उन्होंने सड़क से संसद तक संघर्ष का जज्बा दिखाया.

इस दौरान उन पर संविधान की अवहेलना, लोकतांत्रिक संस्थाओं की अवहेलना के आरोप भी लग रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि भारत में यह पहली बार हुआ है. नक्सलवादी भी संसद को नहीं मानते. गांधीजी भी चरखा चलाने या इस जैसे अन्य रचनात्मक कामों को तभी आगे बढ़ाते थे, जब आंदोलन नहीं होता था. आंदोलन के दौरान वे भी ब्रिटिश शासन की स्थापित सत्ता को चुनौती देते ही दिखते थे.

केजरीवाल भी अपने ‘गुरिल्ला वारफेयर’, यानी अहिंसक संघर्ष के जरिये स्थापित मान्यताओं को चुनौती दे रहे हैं. भले ही वे कह रहे हों कि मैं ‘अराजकतावादी’ हूं, लेकिन सड़क से संसद का संबंध अराजकता नहीं है, उसी से लोकतंत्र का भविष्य और गवर्नेस का रास्ता बनेगा. जन आंदोलन के दौरान केजरीवाल के सामने और दिल्ली में बनी आप की सरकार के सामने चुनौतियां अलग-अलग थीं. केजरीवाल पार्टी सिस्टम को चुनौती दे रहे हैं, लेकिन उन्हें सरकार और राजनीतिक दल के अंदर, और स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह कर विभिन्न मुद्दों पर संवाद स्थापित करने, समझौते करने का गुण सीखना ही होगा.

उन्हें सामाजिक आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में बदलने का गुर सीखना होगा. हालांकि यह गुण चुनाव-दर-चुनाव ही आयेगा. केजरीवाल देश में कितनी जगह बना पायेंगे, या 2014 की संसदीय राजनीति को कितना प्रभावित कर पायेंगे, इस पर अभी तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन दिल्ली में जिस तरह से जनलोकपाल के मुद्दे पर उन्होंने सरकार गिरायी है, वे इसे दिल्ली को पूर्ण राज्य का दरजा दिलाने की लड़ाई की दिशा में ले जायेंगे.

दिल्ली की राजनीतिक अस्मिता और दिल्ली की पहचान की लड़ाई के रूप में लड़ेगे. इस सवाल पर दिल्ली की जनता उनका कितना साथ देती है, इसी पर उनकी आगे की राजनीति निर्भर करेगी.

(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)

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