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चयन के बाद भी जर्मनी नहीं जा पायीं लड़कियां

पंकज कुमार पाठक, प्रभात खबर.कॉमआज भले हम 21वीं सदी में रह रहे हो पर हम पर कई बार पुरु षवादी सोच हावी हो जाती है. कई खेल जैसे कबड्डी, क्रिकेट, फुटबॉल को सिर्फ पुरुषों के लिए माना जाता है. इस भ्रम को तोड़ती नजर आती हैं ग्रामीण क्षेत्र की वैसी लड़किया जो अपनी पढ़ाई, घर […]

पंकज कुमार पाठक, प्रभात खबर.कॉम
आज भले हम 21वीं सदी में रह रहे हो पर हम पर कई बार पुरु षवादी सोच हावी हो जाती है. कई खेल जैसे कबड्डी, क्रिकेट, फुटबॉल को सिर्फ पुरुषों के लिए माना जाता है. इस भ्रम को तोड़ती नजर आती हैं ग्रामीण क्षेत्र की वैसी लड़किया जो अपनी पढ़ाई, घर के काम के बाद भी फुटबॉल खेलने के लिए वक्त निकाल लेती हैं. लड़कियों के एक ऐसे ही ग्रुप का नाम युवा क्लब है. इस क्लब में लगभग 250 से 300 लड़किया जुड़ी हैं. यह क्लब सिर्फ एक गांव में नहीं, बल्कि कई गांवों की लड़कियों को मिला कर बना है. चौंकाने वाली बात यह है कि इस क्लब की लड़कियां फीफा वर्ल्ड कप के लिए चयनित हो चुकी हैं, लेकिन जर्मनी जाकर खेलने के लिए न तो इनके पास पैसे हैं और ना ही बेहतर प्रशिक्षण लेने का कोई संसाधन. हम बात कर रहे हैं रांची के ओरमांझी में अमेरिकी युवक फ्रेंज गैसलर द्वारा संचालित युवा क्लब की.

लड़कियों की टीम का नाम युवा क्लब
युवा क्लब तीन टीमें चलाती है और इनमें लड़कियां ही हैं. कई सीनियर खिलाड़ियां(लड़कियां) यहां कोच बन कर दूसरी लड़कियों को खेल सिखाती हैं. पहली टीम का नाम सुपरस्टार है. इसमें सबसे पुरानी खिलाड़ी जो शुरुआती दौर से इनसे जुड़ी हैं, शामिल हैं. दूसरी टीम का नाम टाइलेंटेड गर्ल है. इसमें वैसी लड़कियां शामिल हैं, जो अच्छा खेल रही है और तीसरी टीम का नाम है मास्टर. इसमें छोटी उम्र की बच्चियां शामिल हैं, जो छह से लेकर 12 साल तक की हैं. सभी लड़कियां स्कूल से वापस आने के बाद शाम 4.30 बजे तक मैदान में नजर आती हैं. सप्ताह में पांच दिन प्रैक्टिस और रविवार के दिन ये आपस में ही मैच खेल कर देखती हैं कि किसके प्रदर्शन में कितना सुधार हुआ. इनकी ट्रेनिंग देख कर पता चलता है कि ये किसी पेशेवर खिलाड़ी से कम नहीं हैं. इनकी मेहनत और ट्रेनिंग का तरीका लाजवाब है.

सहयोग और साधन की कमी
नीलम टोप्पो इन बच्चों की कोच हैं और खुद भी बहुत अच्छा खेलती हैं. नीलम कहती हैं : शुरुआत में हमारी टीम में सिर्फ 15 लड़कियां जुड़ीं फिर धीरे-धीरे दूसरी लड़कियां भी आकर खेलने लगीं. इस तरह हमारी टीम बड़ी होती चली गयी. अब तो छोटी-छोटी बच्चियां भी खेलने आती हैं. उनमें कमाल का जोश नजर आता है. एक गांव में होने के बावजूद भी हम लड़कियां आपस में कम बात किया करती थीं, हममें एकता नहीं थी, लेकिन जब से हमने फुटबॉल शुरू किया है, सभी एकजुट हो गयीं हैं. शारदा, सोनी, पुष्पा जैसी कई खिलाड़ी राज्य स्तर पर खेल चुकी हैं.

दूसरी कोच कलावती बताती हैं कि फ्रेंच सर का युवा क्लब को बनाने में विशेष योगदान है. उन्होंने ही 15 खिलाड़ियों से इसकी शुरुआत की थी और आज इनकी संख्या बढ़ती जा रही है. आज गांव की लड़कियां इस खेल को प्रोफेशनल तरीके से खेल पा रही हैं तो इसमें उनके प्रशिक्षक फ्रेंज गैसलर की अहम भूमिका है. हमारा चयन फीफा वर्ल्ड कप के लिए हो गया था. हमने नागपुर में जाकर चयन प्रकिया में भाग लिया था. लेकिन पैसे और संसाधन की कमी के कारण हमलोग जर्मनी नहीं जा पाये. अक्सर हम देखते हैं कि महिला खिलाड़ियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता. जब हमलोग गोवा खेलने गये थे, तो हमें रांची रेलवे स्टेशन पर लाकर छोड़ दिया गया था. फ्रेंज सर ने हमें घर तक छोड़ा. वे हमें इसी डर से चयन प्रकिया में भाग नहीं लेने देते. एक बार महिला कोच ने कैंप के दौरान हमारे खिलाड़ियों को मारा था. कैंप में घायल खिलाड़ियों की देखभाल भी ठीक से नहीं होती. इस तरह के व्यवहार के कारण गांव मे छिपी प्रतिभा बाहर नहीं निकल पाती.

खेलने के लिए मैदान नहीं
नीलम कहती हैं : हमारे पास खेलने के लिए मैदान नहीं है, हमें कई जगह से भगाया जा चुका हैं. अगर किसी जगह हम मैदान बना कर वहां प्रैक्टिस शुरू करते हैं, तो लोग उसे जोत कर खेती करने लगते हैं. अगर दूसरे मैदान में खेलने जाते हैं, तो लड़के हमें खेलने नहीं देते, आकर तंग करते हैं. इस वक्त हम हेसातु गांव के मैदान में खेल रहे हैं, लेकिन यहां भी लड़के आकर खेलने लगते हैं. हम मना भी नहीं कर पाते. हम बहुत परेशानी से तैयारी कर रहे हैं. हमारी टीमें इरबा, हेसातु और सिलदरी में भी प्रैक्टिस करती है. सरकार हमारी बस इतनी मदद करती है कि कभी कोई योजना का प्रचार करना हो, तो हमें चीजें बाट दी जाती है. हाल में ही निर्मल भारत अभियान योजना के लिए हमारे खिलाड़ियों को जर्सी, जूते दिये गये. हमारे पास भले सुविधाएं ना हो पर लड़किया पूरे जोश और हिम्मत के साथ इस खेल में आगे बढ़ रही हैं. बस जरूरत है प्रोत्साहन और सहयोग की.

इंटरनेशनल कोच से सीखने का मिला मौका
सबिता कुमारी अपने फुटबॉल प्रेम की वजह से यहां खींची चली आती हैं. उन्हें युवा क्लब में शामिल हुए लगभग चार साल हो गये. प्रखंड स्तरीय चैम्पियंस ट्रॉफी 2013-14 में सबिता ने शानदार प्रदर्शन करते हुए गोल किया था. उनकी टीम उनके गोल की वजह से जीत गयी थी. इस दौरान उन्हें कई बार दूसरे जगहों में कैंप करने और फुटबॉल के गुर सीखने का मौका मिला. 2012 में उन्होंने अपनी टीम के साथ पांच दिनों का कैंप किया था, जिसमें उन्होंने अमेरिका के लिऑन और जूली से फुटबॉल की बारीकियां सीखीं. इस क्लब से जुड़ने के बाद कई लड़किया जो स्कूल नहीं जाती थी वह भी स्कूल जाने लगी है. सबिता कहती हैं कि मुङो इस क्लब के विषय में पता नहीं था, जब मैंने अपनी सहेलियों को यहां आकर खेलते देखा तो मेरा मन भी खेलने का किया. मेरे मां-पापा ने मना किया और अब भी करते हैं. कहते हैं लड़की हो फुटबॉल में कितना आगे जा पाओगी, घर के काम में और पढ़ाई में ध्यान दो. लेकिन यहां दीदी लोग सीखाती है और अच्छा लगता है इसलिए मैं यहां आती हूं. वहीं दूसरी खिलाड़ी शारदा कहतीं है अच्छे मैदान में तैयारी करने का मौका मिला तो उनके प्रदर्शन में सुधार आयेगा.

मां ने कहा जाओ फुटबॉल खेलो
10 साल कि रिया रानी लगभग छह महीनों से इस क्लब से जुड़ी है. रिया कहती हैं शुरूआत में उनके पैर में मोच आ गयी थी, लेकिन फिर भी उन्होंने खेलना नहीं छोड़ा. दर्द होने के बाद भी मैदान जरूर आती थी. मुङो खेलने के लिए मेरी मां ने भेजा. उन्होंने कहा कि देखो दीदी लोग नेशनल तक खेल रही है. जाओ तुम भी फुटबॉल खेलो. मेरा सपना फुटबॉलर बनने का है और मैं इसके लिए पूरी मेहनत करूंगी. मैं पढ़ाई पर पूरा तरह ध्यान देती हूं.

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